सामाजिक रिश्तों में तनाव क्यो ?

आज का मानव बहुत तेज़ी से बदल रहा है और समाज में विचर रहा है। विज्ञान और तकनीकी खोजों के विकास ने ज़िंदगी की चीज़ों को आसान और आरामदायक बना दिया है। ज़िंदगी की तेज़ रफ्तार ने मनुष्य को कई प्रकार के काम में भी फसा दिया है, उसको ज़िंदगी जीने का तरीका भूल गया है। उसके पास अपनी ज़िंदगी जीने के कुछ पल भी नहीं है। आज के पदार्थवादी युग में एक ओर तो अमीर-गरीब बहुत हैं। दूसरी ओर सामाजिक रिश्तों में तनाव बढ़ता हुआ नज़र आ रहा है। सांझे परिवार टूट रहे हैं। पहले समय में सभी एक ही छत के नीचे रहते थे और परिवार के सभी सदस्यों में बहुत प्यार था। वह सभी काम आपस में मिल बांट कर करते थे। उनमें किसी प्रकार की कोई अनबन नहीं होती थी और न ही कोई किन्तु-परन्तु जैसे प्रश्न होते थे। लेकिन आज का समय वैसा नहीं रहा है, पूरा बदल चुका है। परिवारों में झगड़े प्रतिदिन बढ़ रहे हैं। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, जिसका सबसे ज्यादा असर घर के बुजुर्गों पर पड़ता है। बहुत सारे परिवार ऐसे हैं, जो अपने घर के बुजुर्गों को वृद्धा आश्रम में छोड़ आते हैं। सामाजिक रिश्तों में सबसे बड़ा कारण आज की आधुनिक पीढ़ी का है। पहले समय के लोग बहुत मेहनती थे। मानवीय रिश्तों का सम्मान करते थे और एक-दूसरे के साथ प्यार के साथ बोलते थे, उनमें कोई ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं था। परन्तु आज की पीढ़ी सिर्फ अपने पर ही ध्यान देती है। उन्हें सामाजिक रिश्तों से कोई लेना-देना नहीं है। पिछले वर्ष में हुए आर्थिक विकास ने मानव को सभ्याचार का गुलाम बना दिया है। अमीर वर्ग ने अपने घर में अनेक प्रकार की ऐसी वस्तुओं का चलन चलाया है कि उनके बच्चों को या उनको किसी दूसरे की सहायता नहीं लेनी पड़ती। लेकिन इसका असर मध्यम परिवार के बच्चों पर पड़ता है, जब उनकी आशाएं पूरी नहीं हो पाती तो वह अपने सामाजिक रिश्तों से दूरी बना लेते हैं। जन्म से लेकर मरने तक सामाजिक रस्मों-रिवाज़ बहुत ही महंगे और पेचीदा हो गए हैं। एक-दूसरे की देखा-देखी में ही आगे बढ़ने की दौड़ में लगे हुए हैं। आज के समाज में ईर्ष्या और अहम सामाजिक रिश्तों में तनाव पैदा करता है। हर एक मनुष्य का स्वभाव, आदतें और जीवन में विचरने का ढंग दूसरे से अलग होता है और हर किसी की सोच भी अलग है। मानवीय जीवन केवल एक बार ही मिलता है, इसीलिए इसका प्रयोग अच्छे कामों और रिश्तों को निभाने में लगाना चाहिए ताकि दुनिया और ज़िंदगी खूबसूरत लगे। 

—रमिन्द्र गिल