सामाजिक व सांस्कृतिक स्वच्छता की पहचान है  जापान

छुट्टियां मनाने के लिए मैं अपने परिवार के साथ जापान में था। मुझे दो चीज़ों ने विशेषरूप से प्रभावित किया। पहली यह कि पूरे देश आईने की तरह साफ-सुथरा है। बड़े शहरों से ग्रामीण क्षेत्रों तक यात्रा करते हुए हमने देखा कि सार्वजनिक स्थल जैसे पार्क, बाज़ार व रेलवे स्टेशन और समुद्र तट, रिवर फ्रंटस, तालाब व सड़क किनारों के नाले सभी एकदम साफ-सुथरे थे, कहीं न कूड़ा था और हद तो यह थी कि बोतल, कैन या कागज़ का टुकड़ा कहीं पड़ा हुआ नहीं मिला। आश्चर्यजनक तो यह था कि हमें कुछ कॉफी कप्स फेंकने थे, लेकिन कहीं भी हमें कूड़ेदान दिखायी नहीं दिया। हमारे पास कोई विकल्प नहीं था सिवाये इसके कि पेपर कप्स को अपने बैकपैक्स में डाल दें। 
पूरा जापान इतना साफ-सुथरा कैसे रह पाता है? आगे यात्रा करते हुए हमें एहसास हुआ कि स्वच्छता गहरे नागरिक बोध से हासिल की गई है जोकि प्रत्येक व्यक्ति ने इस तरह से अपनायी हुई है जैसे वह उनकी सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा हो। कोई भी व्यक्ति सड़क पर पैदल चलते हुए या सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग करते हुए खा या पी नहीं सकता है। जो दुकानें स्नैक्स बेचती हैं वह अपने ग्राहकों से आग्रह करती हैं कि फूड को अपने साथ ले जायें और उनके परिसर में न खाएं। हमें कुछ ही जगहों पर कूड़ेदान दिखायी दिए जो प्लास्टिक्स, पेट् बोतल, बोतल व कैन और दहनशील कूड़ा लेबल किये हुए थे। इस प्रकार के विभाजन का पालन घरों, दुकानों के साथ हर जगह किया जाता है। कूड़ा व्यवस्थित अंदाज़ में सफेद पारदर्शी प्लास्टिक बैग में एकत्र किया जाता है व सड़क के किनारे रख दिया जाता है, जिसे नगरपालिका का स्टाफ उठा कर ले जाता है। अधिकतर देशों में कूड़े को लैंड फिलिंग के ज़रिये ठिकाने लगाया जाता है, लेकिन जापान में भूमि की कमी है, इसलिए दहनशील कूड़े को इंसीनेटर (कचरा जलाने वाला उपकरण) में डाला जाता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि हवा में कम से कम टोक्सिन ही पहुंच पाएं। 
‘काम करो, पुन: प्रयोग करो व री-साइकिल करो’, आम नारा है प्लास्टिक वेस्ट को कम करने के लिए। इसे हर कोई जानता है, लेकिन इसका पालन बहुत कम किया जाता है। मुझे फरोशीकी के बारे में जानकर बहुत खुशी हुई। यह कपड़े में उपहारों को लपेटने व बैग बनाने का परम्परागत जापानी तरीका है। इससे कागज़, प्लास्टिक, टेप व रिबन की ज़रुरत समाप्त हो जाती है। जापान के जिस दूसरे पहलू ने मुझे प्रभावित किया वह टॉयलेट्स थे। इस संदर्भ में जापानियों ने पूर्व व पश्चिम की सर्वश्रेष्ठ प्रथाओं का संगम करा दिया है। यह जानना निश्चितरूप से प्रेरणादायक पल था। स्वच्छ व सूखे फ्लोर के टॉयलेट में प्रवेश करते ही लाइट्स अपने आप जल उठती हैं और सीट की लिड भी अपने आप ही ऊपर उठ जाती है। आरामदायक सीट और पानी की कल कल ध्वनि जैसा कि तालाब से आ रही हो, सुकून का एहसास कराती है। 
जापान में टॉयलेट्स हर जगह स्वच्छ, काम करते हुए और पर्याप्त स्टॉक के साथ थे। ओलंपिक 2020 से पहले विख्यात आर्किटेक्टस से संपर्क किया गया था टोक्यो में विशिष्ट पब्लिक टॉयलेट्स बनाने के लिए। इनमें से एक था योयोगी पार्क के निकट पारदर्शी ग्लास टॉयलेट। उसका दरवाज़ा अंदर से बंद करने के बाद ग्लास अपारदर्शी हो जाता है यानी बाहर से कुछ दिखायी नहीं देता है। कोविड महामारी के कारण ओलंपिक को स्थगित कर दिया गया था और बाद में उनका आयोजन बिना दर्शकों के किया गया लेकिन टोक्यो के टॉयलेट प्रोजेक्ट को ‘परफेक्ट डेज’ फिल्म के ज़रिये दुनिया को दिखाया गया। इसमें जिस एक्टर ने टॉयलेट क्लीनर की भूमिका अदा की थी, उसे कांस में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 
जापानी हर चीज़ में परफेक्शन लाने का प्रयास करते हैं। उनके व्यवहार में शालीनता होती है और वह सार्वजनिक दिखावे में विश्वास नहीं करते हैं। उनके यह गुण गज़ब के हैं। टोटल क्वालिटी मैनेजमेंट की मदद से जापानियों ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद अपने उत्पादन को बेहतर किया। इस प्रबंधन तकनीक का जमशेदपुर, भारत में 1990 पालन करना शुरू किया गया। तब जाकर हम पांच एस- सिरी (छांटो), सीटन (क्रम से लगाओ), सिसो (चमकाओ), सिकेत्सू (मानक बनाओ) और शित्सुके (बरकार रखो) के महत्व को समझ पाये। लेकिन सामाजिक नियमों व अनुशासन के ज़रिये पूरे देश को स्वच्छ रखना कमाल की बात है, हालांकि अन्य देशों के लिए यह असंभव महत्वाकांक्षा ही प्रतीत होती है। 
जापान में स्वच्छता की जड़ें उसकी संस्कृति में हैं। जापान का सबसे पुराना धर्म शिंटो प्रकृति की पूजा और मानव, प्रकृति व देवताओं के बीच संबंध पर आधारित है। इस धर्म में कोई प्रमुख देवता नहीं है और न ही कोई एक इसका संस्थापक है। शिंटो धार्मिक बहुवाद, बहुदेवता और प्रकृति से समन्वय बनाये रखने में विश्वास रखता है। अधिकतर जापानी इस धर्म को, बौद्ध धर्म को या दोनों को मानते हैं। शिंटो मंदिरों के दर्शन करते हुए व ऑरेंज रंग के तोरी द्वारों से गुज़रते हुए मेरी पत्नी ने मेरे कान में कहा, ‘हमें नहीं मालूम कि जापानियों का कुल देवता कौन है, लेकिन यह देश कमाल कर रहा है। आओ अपने लिए भी स्वच्छता व समृद्धि के लिए प्रार्थना करें।’ वास्तव में स्वच्छता ईश्वरीयता के समतुल्य है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

#सामाजिक व सांस्कृतिक स्वच्छता की पहचान है  जापान