जांच वही जो जंचे

जांच वही जो जचे। जांच जचे इसके लिए जजमान को जटिल से जटिल जतन करना पड़ते है। जांच कर्ता और जिसकी जांच होने वाली हो उनके बीच यही समानता है कि दो ही वक्त दोनों के कठिन गुजरते है एक तो जांच शुरू होने से पहले दूसरा जांच खत्म होने के बाद। जांच शुरू होने से पहले ढ़ेर सारे नासमिटे नाक में दम किए रहते हैं और जिसकी जांच होने वाली हो उस गरीब को तो मालूम नहीं रहता है कि गलबैया किससे करनी है। उधर बापडा जांच कर्ता भी अधर में लटका होता है। मी लार्ड ने सिर पे छप्पर जो रख दिया है। अब जिसका माई बाप हुक्मरान हो, उसका बाल बांका करना तो उसके लिए बहुत दूर की बात है, जो खुद उसके बाल के बराबर भी नहीं है। और फिर वो इस उधेड़ बुन में लग जाता है कि क्या करे कि जांच हो भी जाए और कोई जांच हो भी नहीं। गोया कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। 
कई बार तो जांच कर्ता समझ ही नहीं पाता कि इस जांच में जांच क्या करना है। भला सूरज डूबा है कि नहीं। यह जांच करने के लिए कितने आयोग और कितना समय सरकारों के अफसरों को लगना चाहिए। क्योंकि सिर्फ अक्ल के अंधों को छोड़कर सबको पता है कि सूरज डूब गया है, लेकिन जांचेरिया तो जांचेरिया होता है। जब तक कोई जांच न हो जाए। जांच कर्ता ये साबित न कर दे कि सूरज डूब गया है। वो कैसे मान ले कि सूरज डूब गया है। हो सकता है विपक्षी चांद की साजिश हो। होने को क्या नहीं हो सकता। फिर ये बंदा कोई माड़साब थोड़ी न है कि थूथनी दबोची और देश द्रोही करार दे दिया। 
फिर जांच करने वाला पढ़ा लिखा भी तो होता है कोई फर्जी डिग्री धारी तो होता नहीं ना। जानता है कि नंगे के तो नौ ग्रह बलवान होते है। उसका कुछ बिगाड़ना हो तो नया ग्रह ही बिगाड़ पाएगा। अब नया ग्रह खोजना समय के पहिए को उल्टा घुमाने वालों के लिए तो चांद तारे तोड़कर लाने से कम नहीं है, और माना खुदा न खास्ता ढूंढ भी लिए तो पुराने जमे बूढ़े ठुडे मानेगे इस बात को? इस बात की उतनी ही गारंटी है जितनी कि जांच कर्ता की। पता नहीं कब टहलते हुए उसके प्राण अमरत्व की खोज में कूच कर जाए। उसकी दुविधा यह भी होती है कि जांच रपट इतनी भारी न हो जाए कि हुकूमत की वैतरणी में डूबने के लिए पत्थर बांधने की ज़रूरत भी न पड़े। वो खुद अपने वजन से ही डूब जाए और इतनी हल्की भी न हो जाए कि कोई फूंक भी दे तो जांच कर्ता खुद उसके साथ हवा में उड़ जाए। ये तो जांच कर्ता की दशा हुई। जिसकी जांच होनी है वो गरीब तो बड़े-बड़े रसूखदारों के दर पर सर पटक रहा होता है। उनको बता रहा होता है कि मेरे साथ इतने वोटर है। मेरे समाज के लोग फलानी संख्या में है। कौन है आपके पास मेरे बाद जो इस होने वाली क्षति की पूर्ति कर सके? 
प्रत्यंचा पे कसा आलाकमान भी ढीला पड़ जाता है। समझाने की मुद्रा में अभयदान देते हुए कहता है काहे बउराये जा रहें हो? जांच तो कर्म कांड है। हो जाने दो। जनता का क्या। ये पब्लिक है सब जानती ज़रूर है लेकिन भूलती भी जल्दी है। नया खिलौना दे दो तो पुराने खिलौने को कचरा पेटी में डाल देती है। और फिर हर शाख पे तो अपन लटके हुए है इस जांच को भी लटकाए रहेंगे। जा चक्रम जा। चकोर पार्क चल कर चिकन पार्टी कर। चिंता चित्त को चित करदे उसके पहले पहेली समझ कि चारु चंद्र की चारों किरणे खेल रही है तेरे नभ में....आमीन...अरे! क्षमा प्रार्थी हूं तथास्तु। और जांच होने के बाद दोनों प्राणी सुखपूर्वक जीवन बिताने लगते है जांचकर्ता कहीं अपने हिस्से की मलाई काट रहा होता है और जिसकी जांच हुई वो सत्ता सुंदरी से गलबईया कर रहा होता है, बशर्ते दोनों ने नैतिकता के पाखंड को खंड खण्ड न कर दिया हों। (सुमन सागर)

#जांच वही जो जंचे