देश में आपात्काल लगाने वाले हालात कैसे बने ?
भारत की राजनीति में लम्बी अवधि तक नेहरू-गांधी का बोलबाला रहा है। इस परिवार का सत्ता पर 1947 से 1967 ई. तक लगातार कब्ज़ा रहा। पहली बार 1967 में भारत के 9 प्रदेशों में कांग्रेस विरोधी राजनीतिक पार्टियों की संयुक्त सरकारें बनीं। विपक्षी पार्टियों का यह गठबंधन किसी एक सिद्धांत या विचारधारा पर नहीं बना था। ये सरकारें पहली बार अस्तित्व में आने के कारण कोई अच्छा परिणाम न दे सकीं। भारत के लोग कांग्रेस का समुचित विकल्प ढूंढते रहे। देश में कांग्रेस वाले कुछ प्रदेशों में भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ा और प्रबन्धन ढांचा भी डावांडोल हो गया। देश की बिगड़ रही राजनीतिक स्थिति को देख कर युवाओं के भीतर रोष बढ़ रहा था। अंतत: गुजरात और बिहार में भ्रष्टाचार विरोधी विद्यार्थी आन्दोलन शुरू हो गया। इस आन्दोलन को देख कर धीरे-धीरे आन्दोलनकारी विद्यार्थियों के साथ युवा संगठन, राजनीतिक पार्टियां भी जुड़ने लगीं। विद्यार्थियों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध पूरा जोश था और अंतत: यह विद्यार्थी लहर समाज सुधार आन्दोलन का रूप धारण कर गई। उस समय इस लहर का नेतृत्व श्री जय प्रकाश नारायण कर रहे थे। श्री जय प्रकाश नारायण एक गांधीवादी होने के साथ ही अंग्रेज़ों के खिलाफ 1942 ई. में चलाए गए ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के भी हीरो थे।
इसी समय के दौरान गुजरात के चुनाव हुए और इन चुनावों में कांग्रेस बुरी तरह हार गई। यह कांग्रेस के विरुद्ध आया जन ़फतवा था। इस बात से उत्साहित होकर देश के अन्य भागों में भी कांग्रेस के भ्रष्टाचार के विरुद्ध रोष गर्माने लगा। भारत में घटित हो रही राजनीतिक घटनाओं के दृष्टिगत 80 वर्षीय क्रांतिकारी नेता बाबू जय प्रकाश नारायण ने देश- वासियों को एक गर्वपूर्ण आवाज़ देते हुए कहा कि ‘लोगो! लोकतंत्र बचाओ। आ रही तानाशाही को रोको।’ देश के युवाओं को ललकारते हुए उन्होंने कहा कि ‘देश की मर रही आज़ादी और स्वतंत्रता को जीवित रखने के लिए आलस्य और निद्रा त्याग कर शांत हो चुके खून और देश को गर्म करो, मैदान में निकलो, शहीदों की आत्माएं पुकार रही हैं। गले पड़ी रही नई गुलामी की ज़ंजीरों को चकनाचूर कर दो...।’ यह दर्द भरी जोशीली आवाज़ जंगल की आग की भांति पूरे देश में फैल गई। जय प्रकाश ज़िन्दाबाद, देश का नेता ‘जन-नायक जय प्रकाश’ जैसे नारे युवाओं की ज़ुबान पर थे। ये नारे देश के अलग-अलग प्रदेशों में गूंजने लगे। लोग लाखों की संख्या में जय प्रकाश नारायण को सुनने के लिए पहुंचने लगे। शिरोमणि अकाली दल के आह्वान पर 10 अक्तूबर, 1974 ई. को श्री जय प्रकाश नारायण लुधियाना आए तो 10 लाख से अधिक नीली पगड़ियों की जैसे जोश भरपूर बाढ़ आ गई। इसी तरह का एक बड़ा जनसमूह मार्च, 1975 ई. में दिल्ली में एकत्रित हुआ था। इन जनसमूहों का देशवासियों के दिल-दिमाग पर गहरा प्रभाव पड़ा।
देश में लोकतंत्र उड़ान भर रहा था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सुपुत्र संजय गांधी जो यूथ कांग्रेस पर थोपे गए नेता थे, तथापि वह किसी गांव की पंचायत या नगर कौंसिल के सदस्य भी नहीं थे, का राजनीतिक दबदबा इतना बढ़ गया था कि जब वह किसी राज्य के दौरे पर जाते तो प्रदेश सरकारें उन्हें बनने वाला प्रधानमंत्री समझ कर सरकारी मशीनरी और मीडिया का इस तरह उपयोग करतीं जैसे किसी देश के राष्ट्रपति या शहनशाह आ रहे हों। संजय गांधी अलग-अलग राज्यों में ज्यादातर भारतीय वायु सेना के विमान से ही जाते थे। राज्य सरकारों द्वारा संजय गांधी का व्यापक स्तर पर स्वागत किया जाता था। संजय गांधी का राजनीतिक प्रभाव इस तरह का बना दिया गया था कि सरकारी उच्चाधिकारी भी भयभीत होकर उनके हर आदेश का पालन करने लग पड़े थे। यह सब कुछ व्यवस्था में बढ़ रहे तानाशाही रुझान का संकेत देता था।
दूसरी तरफ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का सिंहासन डोल रहा था परन्तु कांग्रेसी नेता, मंत्री, विधायक और उनके रिश्तेदारों के मज़े थे। कोई रोक-टोक नहीं थी। कांग्रेसियों के नए बने मित्र सी.पी.आई. वाले जय प्रकाश नारायण का विरोध करते नहीं थकते थे और इंदिरा गांधी की जन-विरोधी नीतियों के पूर्ण समर्थक थे। आम जनता भयभीत, बेदिल और सहमी हुई, परेशानी का शिकार हुई इधर-उधर देख रही थी, परन्तु कोई सहारा या किनारा दिखाई नहीं दे रहा था। लोकतंत्र नामक कोई चीज़ नहीं थी, फिर इन्स़ाफ कहां से हो सकता था। जब अंधेरगर्दी का बोलबाला हो तो फिर परमात्मा ही रक्षक होता है।
देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी 1971 को लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के रायबरेली क्षेत्र से श्री राज नारायण के मुकाबले में सरकारी साधनों का दुरुपयोग करके जीती थीं। श्री राज नारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में उनकी जीत को चुनौती दी थी और पिछले चार वर्ष से मामला चल रहा था। इसी मामले की कार्रवाई 23 मार्च, 1975 ई. को पूरी हुई। यह पूरी कार्रवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट के कमरा नं. 24 में चली। हाईकोर्ट के जस्टिम श्री जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून, 1975 ई. दिन वीरवार को इंदिरा गांधी की जीत रद्द कर दी और उन पर 6 वर्ष के लिए भविष्य में चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगाते हुए अयोग्य करार दे दिया। उन्हें प्रधानमंत्री के पद तो क्या, लोकसभा के सांसद पद से भी खारिज कर दिया गया। यह फैसला 258 पृष्ठों का था। इस फैसले को जस्टिस सिन्हा ने गुप्त रूप से अपने स्टैनो नेगी राम निगम को लिखवाया था। यह फैसला आने तक जस्टिस सिन्हा के स्टैनो नेगी राम निगम ने छुप कर समय व्यतीत किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के साहस ने पूरी दुनिया को हैरान तथा कांग्रेसियों को परेशान कर दिया। श्रीमती इंदिरा गांधी का परिवार ़गम में डूब गया और इसके पूरे घटनाक्रम ने सोच में डाल दिया कि क्या क्या करें और क्या न करें। अलग-अलग सोच वाले अलग-अलग सलाह दे रहे थे, परन्तु चापलूस इस्तीफा न देने के लिए कह रहे थे, अपितु देश में आंतरिक गड़बड़ का बहाना बना कर आपात काल की घोषणा करने के लिए परामर्श दे रहे थे। उनका विचार था कि विपक्षी नेताओं को जेलों में बंद कर दिया जाए, अखबारों पर सैंसर लगा दिया जाए, जलसे, जुलूस, भड़काऊ भाषणों पर पाबंदियां लगा दी जाएं। श्रीमती इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद अपने पद से हट जाना चाहिए था। देश के अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस सरकारों के खिलाफ आन्दोलन चल रहे थे। ऐसी स्थिति में भी श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने वकील वी.एन. खरे के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी। सुप्रीम कोर्ट में छुट्टियों के समय के जज वी.आर. कृष्णा नैयर ने 24 जून, 1975 ई. दिन मंगलवार को हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए इंदिरा गांधी को सांसद के रूप में मिल रही सुविधाओं से वंचित कर दिया और संसद में वोट डालने से भी रोक दिया, परन्तु उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति दे दी। अब इंदिरा गांधी को अंतिम परिणाम बारे अविश्वास था।
श्रीमती इंदिरा गांधी बारे यह फैसला आने के बाद देश में एक तूफान खड़ा हो गया। हर तरफ जुलूस, जलसे तथा कांग्रेस के भ्रष्टाचार के भाषण सुनाई देने लगे। देश के हर कोने से आवाज़ आ रही थी, ‘इंदिरा गांधी अदालत का निर्णय स्वीकार करो, इंदिरा गांधी गद्दी छोड़ो।’ देश में निकल रहे जुलूसों का नेतृत्व श्री जय प्रकाश नारायण, श्री मोरारजी देसाई, कांग्रेस (ओ) के नेता श्री अशोक मेहता तथा पंजाब में अकाली दल के नेता कर रहे थे।
इस समय के दौरान संजय गांधी जो अपनी मां की कमज़ोरी को जानते थे, ने हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसी लाल की मदद से किराये की भीड़ इकट्ठी करनी शुरू कर दी तथा श्रीमती इंदिरा गांधी की कोठी 1-सफदरजंग रोड के सामने इकट्ठा किए लोगों से इंदिरा गांधी के पक्ष में नारेबाज़ी करवाई जो पूरे जोश से कह रहे थे, ‘इंदिरा गांधी आगे बढ़ो, सारा देश आपके साथ है।’ इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र तथा निजी सचिव रहे आर.के. धवन ने बाद में बताया था कि इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट से फैसला आने के बाद अपना इस्तीफा देने का फैसला कर लिया था तथा यहां तक कि त्याग-पत्र टाइप भी कर लिया था, परन्तु समूचे मंत्रिमंडल के सदस्य जिनका नेतृत्व बाबू जगजीवन राम कर रहे थे, हाईकोर्ट के आदेश के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी को मिले तथा इस बात पर जोर दिया कि वह इस्तीफा न दें। इस बैठक के परिणामस्वरूप उन्होंने त्याग-पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए। श्री धवन के कहने के अनुसार सिद्धार्थ शंकर रे जो उस समय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे, आपात काल के मुख्य साज़िशकर्ता बने। श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने चापलूसों की बातें सुनने के बाद लोगों को दबाने का मन बना लिया। श्रीमती इंदिरा गांधी ने सार्वजनिक जोश का रोष अपने खिलाफ होने से रोकने के लिए, देश में आंतरिक खतरा बढ़ गया, बता कर राष्ट्रपति श्री ़फखरुद्दीन अली अहमद से देश में आपात काल की घोषणा करवा दी और राष्ट्रपति ने संविधान की धारा (1) की उप-धारा 352 के तहत यह घोषणा कर दी, ‘मुझे प्रदत्त शक्तियों के आधार पर मैं भारत का राष्ट्रपति यह घोषणा करता हूं कि देश में घोर संकट वाली स्थिति है, जिस कारण आंतरिक गड़बड़ से भारत की सुरक्षा को खतरा है।’
श्री धवन के अनुसार, ‘राष्ट्रपति ने श्री रे को घोषणा का मसौदा तैयार करने के लिए कहा तो उन्होंने तैयार कर दिया। आधी रात से पहले श्री धवन घोषित होने वाले मसौदे को राष्ट्रपति के हस्ताक्षरों के लिए राष्ट्रपति भवन ले गए। उन्होंने कहा कि गिरफ्तारियों की योजनाएं आपात काल से चार दिन पहले ही तैयार कर ली गई थीं। श्रीमती इंदिरा गांधी ने दिल्ली में गिरफ्तारियां ‘मीसा’ के तहत करने के निर्देश दिए ताकि अदालतें बाधा न बनें।
आपात काल बेशक 25-26 जून, 1975 ई. की मध्य रात लागू हो गया था, परन्तु औपचारिक रूप में इसे लागू करने संबंधी प्रस्ताव केन्द्रीय मंत्रिमंडल की 26 जून, 1975 ई. दिन वीरवार को सुबह हुई बैठक में पारित किया गया था।
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