सामाजिक समरसता को बिगाड़ सकती है जातीय गणना
सामाजिक समरसता ही विकसित राष्ट्र का आधार है। आज भारत में जबकि कई अवसरों पर छोटी-छोटी बातें आपसी वैमनस्य का कारण बन जाती हैं, तब समाज जीवन में ऐसे वातावरण की आवश्यकता है जहां सभी लोग जाति, संप्रदाय, भाषा एवं क्षेत्रीयता आदि के भेदभाव से परे मिलजुल कर रहें। मोदी सरकार द्वारा जातीय जनगणना को सामाजिक न्याय और पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति के विकास की गारंटी के रूप में देखा जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषक इसे बिहार चुनाव के मद्देनज़र मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं किंतु कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष इसे अपनी बड़ी जीत मानते हुए इसका श्रेय लेने की होड़ में लगा है। कांग्रेस राहुल गांधी को सामाजिक न्याय की राजनीति का नया नायक बनने में जुट गई है। इसे एक बड़ा अवसर मानते हुए राहुल तत्काल यह घोषणा कर चुके हैं कि अब 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को हटाने के लिए कांग्रेस दबाव बनाएगी। क्या इससे जातीय गणना का मंतव्य और राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति नहीं दिखाई दे रही है? क्या इस प्रकार की घोषणाओं से समाज में विभाजन नहीं होगा? क्या आपसी झगड़े नहीं बढ़ेंगे? क्या संख्या में अधिक जाति के लोग संख्या में कम जाति के लोगों पर वर्चस्व जमाने का प्रयास नहीं करेंगे? क्या जातीय आधार पर योजनाएं और आरक्षण घटने-बढ़ने से प्रतिभाशाली लोग उपेक्षित नहीं होंगे?
ध्यान रहे अतीत में ऊंच-नीच और जातियों के भेदभाव के कारण देश ने बहुत कुछ सहा है। स्पष्टत सरकार को जातीय गणना के साथ-साथ सामाजिक समरसता का ध्यान भी रखने की आवश्यकता है। क्या जातीय गणना के आंकड़े सार्वजनिक किए बिना कल्याणकारी योजनाएं नहीं बनाई जा सकती? क्या कई प्रदेशों और क्षेत्रों में धार्मिक आधार पर जनसंख्या असंतुलन के दुष्परिणामों से सरकार अनभिज्ञ है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आरंभ से ही ‘सबका साथ-सबका विकास’ का मंत्र लेकर अनेक योजनाओं के सहारे आमूलचूल परिवर्तन का प्रयास कर रहे हैं। 15 अगस्त, 2014 को लाल किला की प्राचीर से प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले ही भाषण में उन्होंने मां भारती के कल्याण का संकल्प प्रस्तुत करते हुए कहा था—हम आज़ादी के इस पावन पर्व पर मां भारती के कल्याण के लिए, हमारे देश के गरीब, पीड़ित, दलित, शोषित, समाज के पिछड़े हुए सभी लोगों के कल्याण का, उनके लिए कुछ न कुछ कर गुजरने के संकल्प का यह पर्व है।
यह भी ध्यान रहे कि भारत जैसे विविधता वाले देश में जाति, संप्रदाय, क्षेत्रीयता एवं भाषा लगातार वैमनस्य और दंगों का कारण बन रहे हैं। सामान्य जनगणना के माध्यम से भी सरकार के पास आवश्यक आंकड़े आ जाते हैं, जिससे कमज़ोर वर्गों के उत्थान हेतु नीतियां और कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं। सरकार को गंभीरता से विचार करना होगा कि जातीय जनगणना से देश में जातीय विभाजन गहरा हो सकता है जो समाज में आपसी तनाव और वैमनस्य को बढ़ाएगा। आरक्षण की दृष्टि से वर्तमान में अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर समुदाय के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रविधान है। जातीय गणना के आंकड़े इस संरचना को प्रभावित कर सकते हैं अथवा संख्या बल के आधार पर जातियां सरकार पर अधिक आरक्षण हेतु दबाव बनाएंगी। स्पष्टत आरक्षण की मौजूदा संरचना को घटाना अथवा बढ़ाना फिर से नए विवादों को जन्म दे सकता है।
अब जब देश ‘सबका साथ-सबका विकास’ का मंत्र लेकर आगे बढ़ रहा है, ऐसे में जातीय गणना हम भारत के लोग अथवा सबका की भावना को ठेस पहुंचा सकती है। क्या आज सामाजिक समरसता बनाए रखने के लिए और सभी के कल्याण के लिए जातीय गणना की अपेक्षा वंचित, उपेक्षित और पिछड़े आदि सभी को एक जाति मानकर उनके कल्याण के लिए काम करने की आवश्यकता नहीं है। (युवराज)