लेखा-जोखा 2019- विपक्ष अपनी भूमिका निभाने में विफल रहा

इस साल के अंतिम दिनों में जब कांग्रेस ने दिल्ली के रामलीला मैदान में (14 दिसम्बर) और देश के अन्य स्थानों पर ‘भारत बचाओ रैली’ का आयोजन किया, तब लगा कि देश में विपक्ष का भी कुछ वजूद है, वर्ना पिछले कुछ वर्षों की तरह इस वर्ष भी यही एहसास रहा जैसे विपक्ष है ही नहीं, बस सत्तारूढ़ दल ही है और वह बिना किसी रोक-टोक के अपनी मनमर्जी कर रहा है। सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास निरंतर अवसर आते रहे, लेकिन वह संसद के अंदर व बाहर असहाय ही दिखायी दिया, जैसे उसकी किसी चीज में दिलचस्पी ही न हो और उसके पैरों की जमीन भी लगातार खिसकती रही।
दरअसल, 2019 के आम चुनाव में विपक्ष को जो करारी पराजय का सामना करना पड़ा, उससे उसके हौसले इतने पस्त हो गये कि वह यह भूल गया कि लोकतंत्र में विपक्ष का भी महत्व होता है और वह अपनी जमीन बचाने का भी इच्छुक दिखायी नहीं दिया। कर्नाटक में जद(स) व कांग्रेस की संयुक्त सरकार थी, लेकिन इनके 15 विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और भाजपा को राज्य में सरकार बनाने का अवसर मिल गया। गोवा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन उसके ही दस विधायक टूटकर भाजपा सरकार से जा मिले। हरियाणा व महाराष्ट्र विधानसभाओं के जब परिणाम आये, तब विपक्ष को एहसास हुआ कि अगर उसने लड़ने की इच्छाशक्ति दिखायी होती तो नतीजे उसके पक्ष में भी जा सकते थे। हरियाणा में उसने चौटाला के दस विधायकों को भाजपा के साथ जाने दिया, जिससे मनोहर लाल खट्टर को फि र मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिल गया। 
महाराष्ट्र में भी भाजपा ने (80 घंटे के लिए) एनसीपी के अजित पवार को तोड़ ही लिया था, एनसीपी प्रमुख शरद पवार को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साथ मिलकर काम करने का न्यौता दिया, लेकिन शरद पवार की चतुराई और शिव सेना की महत्वकांक्षा के कारण महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिव सेना-एनसीपी-कांग्रेस की सरकार बनी। वैसे इसमें चूक भाजपा से भी हुई- उसे लगा कि अपने हिंदुत्व एजेंडा के कारण शिव सेना के पास कोई विकल्प ही नहीं है और इसलिए उसने वायदे के बावजूद ढाई-ढाई वर्ष मुख्यमंत्री पद शेयर करने की बात नहीं मानी और दूसरा उसे लगा कि कर्नाटक, हरियाणा आदि की तरह विपक्ष को तोड़कर उसके अकेले की सरकार बन जायेगी, लेकिन फि लहाल के लिए शरद पवार राजनीतिक बिसात पर अमित शाह से अधिक मजबूत खिलाड़ी नजर आये।
बहरहाल, विपक्ष उस समय भी उदासीन प्रतीत होता रहा जब प्राइवेट (विदेशी व देसी) एजेंसीज अपनी रिपोर्टों व सर्वों में देश की चिंताजनक स्थिति को व्यक्त कर रहे थे और सरकार निरंतर खंडन कर रही थी। ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने रिपोर्ट किया कि भारत की विकास दर गिरकर 5 प्रतिशत रह गई है और ‘स्टैण्डर्ड-पुअर’ ने भारत की ऋ ण रेटिंग को डाउनग्रेड किया, लेकिन सरकारी प्रवक्ता ने इसका खंडन करते हुए 6.6 प्रतिशत का ताजा क्वार्टरली रेट घोषित किया (जिसे बाद में 4.5 प्रतिशत पर सही किया गया)। इससे कुछ सप्ताह पहले सरकार ने मिड-डे मील योजना को जबरदस्त सफ ल घोषित किया, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के स्वास्थ्य व पौष्टिकता पर सर्वे में कहा गया कि सबसे ज्यादा कुपोषित मामले सब-सहारा अफ्रीका में नहीं बल्कि ग्रामीण भारत में हैं। यही नहीं, दिल्ली का म्युनिसिपल पानी टेस्ट किया गया व खतरनाक स्तर पर पाया गया, लेकिन दिल्ली जल बोर्ड ने न सिर्फ  इसका खंडन किया बल्कि कहा कि राजधानी का पानी अधिकतर यूरोपीय शहरों से बेहतर है। 
5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर से न सिर्फ  धारा 370 को हटाया गया बल्कि उसके राज्य का दर्जा समाप्त करके उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों- लद्दाख व जम्मू-कश्मीर में विभाजित कर दिया गया, तभी से घाटी में इंटरनेट व एसएमएस सेवाएं बंद हैं। गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में घोषणा की कि कश्मीर में स्थिति सामान्य है और इसके दो दिन बाद सांसद फारूक अब्दुल्ला की पीएसए (जन सुरक्षा अधिनियम) के तहत नजरबंदी तीन माह के लिए बढ़ा दी। दो अन्य पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती भी पीएसए के तहत बंद हैं, जबकि 31 अन्य नेता सीआरपीसी की धारा 107 के तहत एमएलए हॉस्टल में बंद हैं। इस साल प्याज, बच्चों की स्कूल फीस, बिजली की दरें, पेट्रोल, डीजल आदि सभी महंगे हुए हैं। 
आज भी देश में तीन सौ मिलियन लोग (दुनिया में सबसे अधिक) निरक्षर हैं और कुल जनसंख्या का लगभग पांचवा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है, स्वास्थ्य व कुपोषण समस्या बने हुए हैं। प्रदूषण, जहरीली नदियां, पर्यावरण आदि अन्य अनेक परेशानियां हैं। बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, मकानों का अभाव आदि गंभीर स्थितियां हैं, लेकिन विपक्ष की तरफ  से इन पर कोई आंदोलन या विरोध देखने को पूरे साल नहीं मिला, जबकि सरकार सच्चाई से ध्यान हटाकर जनता को फील-गुड व पहचान की राजनीति के क्षेत्र में ले जाने में सफल रही- क्या सरदार पटेल की मूर्ति पर ताजमहल से अधिक पर्यटक आये? क्या छह-लेन के हाईवे से देश की प्रगति हो जायेगी? क्या संसद की नई प्रस्तावित बिल्डिंग से देश में अधिक लोकतंत्र आ जायेगा? क्या संशोधित नागरिकता कानून से पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश के ‘पीड़ित’ गैर-मुस्लिम भारत आ जायेंगे? सरकार के लिए यह प्रश्न अधिक प्रासंगिक रहे और विपक्ष यह दिखाने में नाकाम रहा कि आम जनता को इनसे कोई लाभ नहीं है।
यह सही है कि अच्छे कानून अच्छा समाज बनाते हैं, लेकिन अधिकतर सामाजिक मुद्दों को अपराधिक कानून संबोधित नहीं कर सकते, जैसा कि हम दहेज, शराबबंदी आदि कानूनों के संदर्भ में देख चुके हैं। फि र भी इस साल सरकार को विशेषरूप से लगा कि सजा देने वाले कठोर कानून बनाकर समाज में सुधार आ जायेगा। इसलिए क्रिप्टोकरेंसी रखने व ट्रेड करने पर दस वर्ष की कैद का प्रावधान है, मोटर वाहन कानून के अनेक उल्लंघनों पर जेल की सजा है, तीन तलाक देने पर तीन वर्ष की कैद है, ई-सिगरेट स्टोर करने पर छह माह की सजा है (पहले अपराध पर) ... और हाल ही में केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने मेंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ  पैरेंट्स एंड सीनियर सिटीजंस एक्ट 2007 में संशोधन को मंजूरी दी, जिसके तहत परिवार के बुजुर्ग सदस्यों की देखभाल की जिम्मेदारी सिर्फ  जैविक बच्चों पर ही नहीं है बल्कि दामाद, बहू, गोद लिए व सौतेले बच्चों पर भी है और ऐसा न करने पर छह माह की सजा का प्रस्ताव है। 
बहरहाल, यह कानून व सजाएं व्यवहारिक नहीं हैं, इसलिए मोटर वाहन कानून के लागू होने के तीन माह बाद भी चालकों को अनुशासित करने के लिए बड़े जुर्माने नहीं लगाये जा रहे हैं। इनमें से कुछ कानूनों का संबंध अंतर-व्यक्तिगत जिम्मेदारियों से है, जैसे अपने पैरेंट्स की देखभाल करना। कुछ का संबंध प्राइवेट गलतियों से है, जिनमें सार्वजनिक कानून उपचार की आवश्यकता नहीं या कुछ में पहले से ही सिविल कानून मौजूद है। लेकिन बिना विपक्षी विरोध के यह कानून बने।-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर