जीवन का लेखा-जोखा

मनीषी कहते हैं कि मृत्यु शैय्या पर पड़े हुए मनुष्य की आंखों के समक्ष उसके जीवनकाल का सारा लेखा-जोखा चलचित्र की भांति घूम जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सभी शुभाशुभ कर्म जो उसने अपने जीवनकाल में किए हैं, उसके सामने पर्दे पर चलती हुई रील की तरह घूम जाते हैं। जो शुभ कर्म उसने किए होते हैं यानी किसी का भी हितचिन्तन करना, परोपकार करना, किसी प्रकार ३का दान देना, अपने दायित्वों का निर्वाह करना, ईश्वर की सच्चे मन से अर्चना करना इत्यादि कर्म होते हैं, उन्हें देखकर वह आनन्दित होता है। इसके विपरीत जो अशुभ कर्म यानी किसी का अहित करना, चोरबाजारी करना, किसी को धोखा देना, रिश्वतखोरी करना, किसी की पीठ में छुरा मारना, किसी को अपशब्द कहना, किसी का अनावश्यक अपमान करना, किसी साथी का हक मारना, जाने-अनजाने किसी का बुरा करना आदि जो भी कर्म उसने जीवन में किए होते हैं, उन्हें देखकर वह रोता है। ईश्वर से प्रार्थना करता है कि थोड़े समय की मोहलत दे दे तो जिनके साथ बुरा व्यवहार किया है, वह लोगों से क्षमा माँग ले या कुछ और अच्छे कर्म कर ले। जो कार्य अधूरे रह गए हैं, उन्हें वह पूरे कर ले। उस समय उसका नाम, उसका यश, उसकी कीर्ति, उसकी अपार सम्पदा उसके किसी काम नहीं आती। उस सब के बदले उसे कोई भी जीवन के कुछ पल नहीं दिला सकता। मनुष्य सारा जीवन उपलब्धियां प्राप्त करने में जुटा रहता है। अपना सारा सुख-चैन होम करके जीवन में ऊंचाइयों को छू लेता है। जब उसे यह लगता है कि जो कुछ जीने के लिए चाहिए, वह सब उसने कमा लिया है। अब उसकी कोई और इच्छा शेष नहीं बची तो ईश्वर कहता है, ‘अब तू सब छोड़कर मेरे पास आ जा।’यानी उसे अपने कमाए हुए सारे ऐश्वर्य को भोगने का समय भी नहीं मिल पाता। उस समय अपनी सारी दौलत के बदले वह कुछ पल तक नहीं खरीद सकता। यही मानव जीवन की त्रासदी है कि कमाता कोई और है और उसे भोगता कोई और ही है। मनुष्य को धन-वैभव जुटाने के पीछे इतना पागल नहीं हो जाना चाहिए कि वह अपनों को ही भूल जाए। समय रहते अपने ऐश्वर्य का भोग करना चाहिए। अपने बच्चों के साथ समय व्यतीत करना चाहिए। अपनी सामर्थ्य के अनुसार उन्हें देश-विदेश की सैर करवानी चाहिए। ऐसा नहीं करना चाहिए कि पैसा लो और घूम आओ या मौज-मस्ती कर लो। घूमने जाने से अधिक महत्त्व अपने माता-पिता के साथ का होता है। कभी-कभार अपने कार्य से समय निकालकर बच्चों के साथ बैठना चाहिए। उनकी छोटी-छोटी समस्याओं को सुनकर उन्हें सुलझाना चाहिए। ऐसे कई बच्चों को बहुत करीब से देखा है जिनके माता-पिता के पास बच्चों के लिए समय नहीं होता। ऐसे बच्चे उद्दण्ड व जिद्दी बन जाते हैं। वे जान-बूझकर ऐसे काम करते हैं जिनसे उनके माता-पिता को कष्ट हो यानी वे उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ऊल-जलूल हरकतें करते हैं यानी घर या स्कूल में मारपीट करना, स्कूल से या ट्यूशन से बैंक करना, पढ़ाई न करना, टेस्ट की तैयारी न करना। इससे उनकी शिकायतें हर तरफ से माता-पिता को मिलती हैं। फिर भी वे बालमन को पढ़ने का यत्न नहीं करते बल्कि उन्हें दोष देते हैं, फटकारते हैं। यह सब जब अन्तकाल में चलचित्र की तरह देखता है तो उसे बहुत क्षोभ होता है। मृत्युशैय्या पर पड़ा मनुष्य बेबस होकर देखता ही रह जाता है, कर कुछ सकता नहीं। अपने जीवन की बाजी पलट नहीं सकता। अपने दुर्भाग्य को कोसता है कि उसने सारी आयु उसने उतना कमाया नहीं जितना उसने गंवा दिया है। सम्पूर्ण जीवन बीत जाने के बाद अन्त समय में पश्चाताप करने के अतिरिक्त मनुष्य और कुछ भी नहीं कर सकता। तब वह न अपने पापकर्मों से मुक्त हो सकता है और न ही अपने पुण्यकर्मों में कुछ जोड़ सकता है।इसलिए समय रहते आत्मविश्लेषण करते रहना चाहिए। जो कार्य अधूरे रह गए हों, उन्हें शीघ्र पूर्ण कर लेना चाहिए। जो अपने से गलत कार्य हो गए हैं, उन्हें सुधारने का प्रयास करना चाहिए। जिनके साथ दर्व्यवहार किया हो, उनसे क्षमा याचना कर लेनी चाहिए। प्रयास यही करना चाहिए कि जितना जीवन शेष बचा है, उसका सदुपयोग करते हुए शुभ कार्यों में लगाना चाहिए। इस तरह करते रहने से अन्तकाल में मनुष्य सिर उठाकर उस मालिक के दरबार में खड़ा हो सकता है। (उर्वशी)