अनूठी सीख

किसी नगर में एक बुजुर्ग सज्जन रहते थे। वे लोगों को धर्म-कर्म और स्वावलंबन की शिक्षा दिया करते थे। एक बार उनके किसी मित्र की मृत्यु हो गई। वे जानते थे कि उनके मित्र का पुत्र थोड़ा आवारा और आलसी प्रवृत्ति का है। निश्चित ही वह पिता द्वारा छोड़ी गई संपत्ति का दुरुपयोग करते हुए उसे समाप्त कर देगा। इसके चलते वह सब कुछ गंवा बैठेगा और परिवार को निर्धनता की आग में झोंक देगा। इस चिंता के साथ वह बुजुर्ग सज्जन कुछ रोज पश्चात् अपने मित्र के घर पहुंचे। मित्र का पुत्र उन्हें जानता था। उसने उन्हें आदर के साथ बैठाया और यथोचित सत्कार के बाद उसने कहा कि कुछ दिन बाद घर में एक मांगलिक कार्यक्रम रखा गया है, लिहाजा वे भी उस रोज उनके यहां भोजन के लिए पधारें। कुछ सोचकर बुजुर्ग सज्जन ने हामी भर दी। तय दिवस पर अपने मित्र के पुत्र के यहां भोजन के लिए पहुंच गए। पुत्र ने मेहमानों के लिए शानदार दावत का इंतजाम किया था। बुजुर्ग सज्जन को भी थाल में विभिन्न तरह के व्यंजन सजाकर पेश किए गए। जैसे ही बुजुर्ग सज्जन ने पहला निवाला मुंह में डाला कि वह बोल उठे-‘अरे, ये तो बासी भोजन है।’ यह सुनकर मित्र का पुत्र चौंक गया। उसने कहा-‘आपको कोई गलतफहमी हुई है। भोजन अभी तैयार किया गया है। बासी हो ही नहीं सकता।’ बुजुर्ग सज्जन ने जवाब दिया-‘मुझे तो इसमें 25 साल पुरानी गंध आ रही है।’ मित्र का पुत्र इशारे को समझ गया। दरअसल उसके पिता के मित्र उससे कहना चाह रहे थे कि यह भोजन जिस धन से निर्मित किया गया है, उसे तुम्हारे पिता ने अर्जित किया था, तुमने नहीं। जिस दिन तुम्हारे धन से निर्मित भोजन उपलब्ध होगा, उसकी ताजगी अलग होगी। सीख यह है कि अपने परिश्रम से स्वयं धनार्जन करें। पूर्वजों की संपत्ति प्राप्त होना सौभाग्य है, लेकिन उसमें वृद्धि करना आपके पुरुषार्थ पर निर्भर है।

— धर्मपाल डोगरा ‘मिन्टू’