चेतन दास का दर्द

थोड़ी देर में मैंने बरगद की ओर झांका। वहां एक आदमी घुटनों में सिर देकर बैठा था। मुझे वह एक कुशल कारीगर तो क्या, साधारण खाट ठोंकने वाला मिस्त्री भी नहीं लगा... यह सोचकर कि बात करने में क्या हर्ज है, मैंने उसे बुलावा भेजा।
देखने में वह मुझे एक बूढ़ा आदमी नज़र आया। बेतरतीब सफेद बढ़ी हुई दाढ़ी। धंसी हुई आंखें, माथे पर बल और चेहरे पर उदासी की छाया। चैक मैली सी कमीज़। पैंट पाजामे और पतलून के बीच की कोई चीज। जब वह बात कर रहा था, मुझे लगा कि उसके कंधे झुके हुए हैं। चाल तो उसकी एक परास्त आदमी जैसी ही थी। 
मैंने उसे अपनी समस्या बताई। साथ ही पूछ लिया कि कई अड़ियल दराज सीधे किये होंगे। -दफ्तरों के। वहां बाबुओं के सिर दराज में रह जाते हैं। इस जवाब के लिए मैं तैयार न था। मुझे साबुत अर्थ के लिए डुबकी लगानी पड़ी उस शब्द सागर में। उसने सावधानी से दराज खींच कर देखा और कहा—‘लकड़ी चाहिए।’ मैंने उसे कहा कि कुछ पुराने और बेकार तख्ते छत पर पड़े हैं। कुछ देर पहले काम करवाया था तो बचे हुए लकड़ी के टुकड़े और बेकार तख्ते छत पर फैंक दिये थे।  -चलो दिखाओ।  उसने कहा। मैं सीढ़ी के दरवाजे का ताला खोलकर उसके साथ ऊपर चला गया। उसने जेब से लोहे का इंचीटेप निकाला। लकड़ियों को परखते हुए उलटाया और कुछ पैमाइश की फिर इंचीटेप समेट कर कहा— हो जाएगा।’
उसकी हर बार, हर गति में एक गम्भीरता थी। वह बोलता बहुत कम था। सिर्फ नपे-तुले दो-चार शब्द। उतने ही जितने से काम चल जाता हो, न एक शब्द कम, न एक ज्यादा।
नीचे आकर मैंने उससे पूछा-कितने पैसे
-जो मन चाहे दे देना।
-नहीं ठीक-ठीक बता दो।
-पचास रुपये।
हम दुकानदारों की अजीब-सी आदत होती है भाव-ताव करने की। जितना मूल्य कोई कह दे उससे कुछ कम न करवाएं तो रोटी हजम नहीं होती। चाहे मांगा गया मोल पहले ही बाज़ार भाव में कम क्यों न हो।
-चालीस ले लेना।
-नहीं, साठ।
-अरे।
-दो बीड़ी बंडल, एक माचिस और दो कप चाय ऊपर से। मुझे पहले ही लगा था कि पचास रुपये ज्यादा नहीं है। कम अज कम फंसे दराज के साथ रोज होती कसरत और परेशानी को देखते हुए। परन्तु ऐसा भी क्या कि अगला कुछ भी कम न करे।
उसने जिस लापरवाही से इन्कार किया था वह उसकी आरी से तीखी थी। मुझे ख्याल आया कि ऐसे काम का कोई स्थिर मूल्य तो होता नहीं। दिमाग में दर्जी वाली उदाहरण कौंध गई। यह उदाहरण अक्सर मैं अपने ग्राहकों को दिया करता था, जो मोल-भाव करते थे। ‘बहन जी, (या भाई साहब) चीज का मोल आप इस तरह न लगायें। हम अपना माल कश्मीर के कारीगरों से तैयार करवाते हैं। वे विस्थापित हैं। बम गोलियों के डर से घर नहीं जाते। आप ही देखो शेखां बाज़ार का गोल्डन टेलज़र् एक कमीज़ की सिलाई 100 रुपए लेता है। मॉडल टाऊन का सिंह टेलज़र् सवा सौ रुपए परन्तु उधर कोने में सीढ़ियों पर बैठा सोहना 50 रुपये में कमीज सीकर हाथ में पकड़ा देता है। काम-काम का फर्क होता है मैडम (भाई साहब)। मैंने उसी रो में कहा-मुझे ऐसे रिक्शा वाले पसंद नहीं आते जो स्टेशन जाने के तीस रुपये मांगते हैं और एक रुपया भी कम नहीं करते। चाहे बिना सवारी के घंटों खाली घूमते रहें।
-मैं ऐसे रिक्शा वालों को सलाम करता हूं।’ उसने जवाब दिया और चलता बना।
मुझे जिद-सी हुई, ऐसी भी क्या बात है कि आदमी ज़रा भी एडजस्ट नहीं करे। उसने वापस जाने का एक कदम बढ़ा लिया।
-मुंह मांगी तो मौत भी नहीं मिलती।
-मिल जाती है। मांग कर देखना कभी। शुद्ध मन से। कह कर वह पहले ही अपेक्षा तेज कदमों से चला गया। मुझे बहुत गुस्सा आया। बड़ा बदतमीज़ आदमी है। बोलता भी उल्टा-सुल्टा है।
उस वक्त तैश में आकर मैंने तय किया कि इस आदमी की कभी भी शक्ल नहीं देखूंगा। लिहाज़ा अगले दो-तीन दिन में अलग-अलग कारीगरों को बुलाता रहा। एक ने सलाह दी- ‘सारा तो चरमराया हुआ है। नया काऊंटर ही बनवा लो।’ दूसरे ने कहा- ‘कील पक्की ठोक कर दराज को पक्का ही बंद कर देते हैं।’
-मैं अपने ज़रूरी कागज़ात कहां रखूं?
-एक बैग ले लो। साथ ही ले जाया करो।
एक और ने पैसे इतने ज्यादा मांग लिए कि हाथ जोड़कर पीछा छुड़ाना पड़ा।
असल में चेतन दास से हुई एक ही मुलाकात से मन भर गया था। लगा कि मुझे उससे हर्गिज बात नहीं करनी चाहिए। हम दुकानदारों को 100-50 का कोई फर्क नहीं पड़ता। परन्तु इस तरह पैसे के मामले में ‘लल्ले’ हो कर चेतन दास दिख गया तो मैंने कह दिया ‘चलो काम कर दो।’
-नहीं, आज मन नहीं, कल करेंगे।
इतना कह कर उसने आव देखा न ताव। चुपचाप जाकर बरगद के नीचे घुटने पेड़ की ओर मोड़कर पड़ गया। (क्रमश:)
अगले दिन वह दिखाई ही नहीं दिया। उस दिन मुझे दराज ने बहुत परेशान किया। इस कद्र कि मैंने खुद को गाली देकर कहा- ‘गधे कहीं के, तुमसे यह छोटा-सा काम भी नहीं होता।’
तिलक राज अखबार लौटाने आ गया-मालिक आज फिर दराज के पंगे में पड़े हो।
-यार आज इसकी फांसी काटो। कोई भी आदमी बुला लो और इस झंझट से मुझे छुटकारा दिलवाओ।
-कोई भी क्यों, चेतन दास से बात नहीं की?
-अकेला चेतन दास ही बचा है इस काम के लिए? बुलवाया था कल। कहता है कल कर दूंगा। आज इधर का रुख ही नहीं किया उसने। कहीं दूसरी जगह अच्छे पैसे मिल गये होंगे।
-वह ऐसा है नहीं। कहीं फंस गया होगा या बीमार पड़ गया होगा। पैसों का उसे ऐसा कोई लोभ नहीं कि अपनी कही बात से फिर जाये। एक काम क्यों नहीं करते। शाम को जाते समय उसे उसके घर देख लो। तुम्हारे रास्ते में ही पड़ता है। कल्याण सिंह के पैट्रोल पम्प के पीछे संकरी गली जाती है। उसी में तीसरा मकान है उसका बाईं ओर से।
-इसकी ज़रूरत क्या है।
-वह बढ़िया कारीगर है और बढ़िया आदमी। एक बार काम करवा कर तो देखो।
शाम को मैं उधर से ही निकला। गली इतनी संकरी थी कि मैंने स्कूटर पैट्रोल पम्प पर ही छोड़ दिया।
घर आसानी से मिल गया, तब भी निश्चित हो जाने के लिए मैंने बाईं तरफ के दूसरे मकान की दहलीज़ में खड़े लड़के से  पूछा- यही कहीं एक लकड़ी का काम करने वाला कारीगर रहता है। कुछ पता है कहां?