सुख-समृद्धि का भण्डार होता है श्रीयंत्र

यंत्रों में अनेक गुप्त शक्तियां समाहित होती हैं। उनमें बाधाओं को शान्त करने तथा सुख-समृद्धि प्रदान करने की असीम शक्तियां होती हैं। यंत्र का उपयोग देवता विशेष की पूजा एवं विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए होता है। यंत्र को देवता का स्वरूप भी माना जाता है। इस पर पूजित देवता शीघ्र प्रसन्न होकर मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। ‘यंत्र महिमा’ नामक पुस्तक के अनुसार यंत्र के बिना देवता का पूजन निष्फल होता है।श्रीनाथ मंदिर में सुदर्शन चक्र , जगन्नाथपुरी में भैरवी चक्र  तथा तिरूपति बालाजी मन्दिर तथा श्रृंगेरी मठ में स्थापित श्रीयंत्र का प्रभाव एवं चमत्कार देश-विदेश के श्रद्धालुओं में प्रसिद्ध है। श्रीयंत्र या श्रीचक्र  को यंत्रों का राजा (यंत्रराज) कहा जाता है। इसे ‘षोडशी यंत्र’ के नाम से भी जाना जाता है।श्रीयंत्र सर्वविध रक्षा का एक साधन है जो यमराज तक से रक्षा करके बाधामुक्ति में सहायक होता है। श्रीयंत्र में अनेक देवी-देवताओं का वास है। इसी कारण इसे ‘देवद्वार’ भी कहा जाता है। इसकी रचना बिन्दु त्रिकोण, दशारयुग्म, चतुर्दशार, अष्टदल, षोडशार, तीनवृत्त तथा भूपुर से मिलकर होती है। यंत्र के चारों ओर तीन रेखात्मक परिधि, त्रिशक्ति, षोडशदल, सोलह मातृकाएं, अष्टदल, अष्टलक्ष्मी, चौदह त्रिकोण चौदह शक्तियों से युक्त, अन्दर के दस त्रिकोण दस सम्पदाओं से युक्त, दस त्रिकोण के अन्दर के आठ त्रिकोण लक्ष्मी एवं बिन्दु भगवती अर्थात् पूर्णता के प्रतीक हैं। यह इच्छा, ज्ञान और क्रि या को अभिव्यक्त करता है। इन तीनों का संयोग ही त्रिकोण है।श्रीयंत्र के नवचक्र ों का भी बड़ा महत्त्व है। इन्हें ‘नवचक्रेश्वरी’ के नाम से जाना जाता है। श्री यंत्र में चार ऊपर मुख वाले त्रिकोण जिन्हें  ‘शिव त्रिकोण’ तथा पांच नीचे मुख वाले त्रिकोण जिन्हें ‘शक्ति त्रिकोण’ के नाम से जाना जाता है, मुख्य तत्व हैं। इस प्रकार त्रिकोण, अष्टकोण, दो दशार एवं चतुर्दशार, बिन्दु, अष्टकमल, षोड्शकमल, ‘शिवचक्र ’ के नाम से जाने जाते हैं। ये सभी आपस में एक-दूसरे से मिले हुए हैं।बिन्दु से भूपुर तक इस यंत्र को तीन भागों में बांटा गया है-भूपुर के अष्टदल से अन्तदशार तक ‘स्थितिचक्र ’, अष्टार से बिन्दु तक को ‘संहार चक्र ’, तथा शेष चक्र ों को ‘त्रिपुर’ कहा जाता है। इसकी प्रधान नायिका श्री महात्रिपुर सुन्दरी हैं। इनका मुख्य स्थान बिन्दु है। यह बिन्दु आदि शक्ति का प्रतीक है क्योंकि बिन्दु से ही सभी प्रकार की रेखाएं और त्रिकोण बनते हैं।श्रीयंत्र का निर्माण दो प्रकार से होता है  : प्रथम ‘चल यंत्र’ के रूप में तथा दूसरा ‘अचल यंत्र’ के रूप में। प्राण-प्रतिष्ठित यंत्र ही पूजायोग्य एवं फलदायक होता है। ‘चल यंत्र’ को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जा सकता है जबकि ‘अचल यंत्र’ किसी निर्धारित स्थान पर ही स्थापित कर दिया जाता हैं। ‘चल यंत्र’ को शरीर पर धारण भी किया जाता है।  श्रीयंत्र-पूजन में यंत्र निर्माण एवं विधानपूर्वक पूजा का विशेष महत्व है। इसका निर्माण मुख्य रूप से चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, नवरात्र, दीपावली, महाशिवरात्रि आदि शुभ मुहूर्त में ही किया जाता है। विविध कामना हेतु अलग-अलग धातु के यंत्र निर्माण का शास्त्रीय विधान है। सौभाग्य एवं अष्टसिद्धियों की प्राप्ति के लिए सोना-तांबा-चांदी (त्रिलौह), धन, पुत्र, पत्नी एवं यश की प्राप्ति के लिए प्रवाल, पद्मराग, इन्द्रनीलमणि, नीलकांतमणि, स्फटिक का श्रीयंत्र, कांति हेतु ताम्रपत्र, शत्रुनाश हेतु सोना, कल्याण हेतु चांदी एवं सभी प्रकार की सफलता हेतु स्फटिक मणि से निर्मित यंत्र की पूजा करनी चाहिए।श्री विद्यार्णवतंत्र के अनुसार सोने का श्रीयंत्र उत्तम, चांदी का मध्यम एवं तांबे का अधम माना जाता है। सोने से बना यंत्र आजीवन, चांदी का बाइस वर्ष, तांबे का बारह वर्ष तथा भोजपत्र पर निर्मित श्रीयंत्र छह वर्षों तक फल देता है। स्वर्ण एवं स्फटिक से निर्मित श्रीयंत्र का फल अन्तगुणा, चांदी का कोटिगुणा तथा तांबे का श्रीयंत्र बनाकर पूजा करने का फल सौ गुणा बताया गया है। सामान्यत: यंत्र एक से चार तोले के वजन का बनाया जा सकता है। स्फटिक और मरकतमणि का यंत्र सर्वश्रेष्ठ माना गया है जो किसी भी पात्र में बनाया जा सकता है।श्रीयंत्र की विधिवत् प्राण-प्रतिष्ठा तथा षोड्शोपचार पूजन करके घर में रखने से सुख-समृद्धि एवं शान्ति की प्राप्ति होती है। श्री यंत्र के कमलदल में केसर का प्रयोग वर्जित है। दीपावली की रात में श्री यंत्र की विधिवत प्राण-प्रतिष्ठा, पूजा करने से अचला लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। स्थिर लक्ष्मी घर में निवास करती है तथा घर धन-धान्य से पूर्ण हो जाता है। (उर्वशी)