निजीकरण का जाल

कुछ दिन पूर्व देश की वित्त मंत्री ने सरकार की सम्पत्तियों को निजी हाथों में सौंपने की जो बात की है, उसे हम देश के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण अमल समझते हैं। भविष्य में आम लोगों के लिए इसके क्या परिणाम निकल सकते हैं, अभी तो उनका अनुमान ही लगाया जा सकता है परन्तु यह बात सुनिश्चित है कि जन-साधारण को अपने जीवन निर्वाह के लिए बड़ी कम्पनियों एवं साहूकारों की तरफ देखना पड़ेगा। आज चाहे राहुल गांधी इस बात पर सरकार की आलोचना करते हुए यह कहते हैं कि सरकार सम्पत्ति बेचने में जुट गई है। देश ने पिछले 70 वर्षों में जो कुछ कमाया है, उस सम्पत्ति को वह धनाढ्यों के हवाले कर रही है। इससे जहां युवाओं के भविष्य का नाश हो जाएगा, वहीं धनाढ्यों के लिए अपनी मनमज़र्ी करने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। यह भी कि देश में सुधारों हेतु मूलभूत ढांचे की मज़बूती के लिए सरकार ने धन हासिल करने हेतु गलत मार्ग को चुना है। कोई भी देश-भक्त इस का विरोध करेगा। यह भी कि ऐसी व्यवस्था से रोज़गार के अवसर समाप्त हो जाएंगे। चाहे केन्द्रीय वित्त मंत्री सीतारमण ने इसके उत्तर में यह कहा है कि सरकार इन सम्पत्तियों को बेच नहीं रही, अपितु इनको ठेके पर दे रही है। इससे 6 लाख करोड़ रुपये कमाए जाएंगे। उन्होंने इसे राष्ट्रीय मोनीटाइजेशन पाइप लाईन योजना  का प्रारूप कहा है। जहां तक आर्थिक उदारीकरण का संबंध है, जिसके अधीन सरकारी सम्पत्तियों को बेचने या निजीकरण का सिलसिला शुरू किया गया था, यह नरसिम्हा राव की सरकार के दौरान 1991 में शुरू हुआ था। डा. मनमोहन सिंह उस समय केन्द्रीय वित्त मंत्री थे। केन्द्र में कांग्रेस के शासनकाल में ही प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकारी क्षेत्र में अधिक से अधिक पूंजी लगाने की योजना को बड़ी सीमा तक बदल दिया गया था। आज यदि कांग्रेस इसका विरोध कर रही है तो उसके लिए यह सोचने की आवश्यकता है कि केन्द्र में उसके शासन काल में ही ऐसा प्रवेश मार्ग बना दिया गया था, परन्तु अब इस प्रक्रिया को मोदी सरकार ने पूरी तेज़ी से इस मार्ग पर डाल दिया है। उसने सड़कों, रेलवे, विद्युत, दूरसंचार, तेल एवं गैस आदि के साथ-साथ खेल स्टेडियमों, बंदरगाहों, एयरपोर्ट आदि को भी इसके दायरे में ला दिया है। इससे एक बात स्पष्ट है कि सरकार 70 वर्ष पूर्व अपने द्वारा शुरू किये गये बड़े-छोटे सभी कार्यों में बुरी तरह असफल हो गई है। यदि भविष्य में निजी कम्पनियां ठेके पर ली गई इन सरकारी सम्पत्तियों से लाभ उठाएंगी तो यह सरकारी कार्यशैली में असफलता को ही समक्ष लाने की बात होगी। हम देश के मज़बूत आधार-भूत ढांचे के विरुद्ध नहीं हैं अपितु इससे जीवन को गति मिलती है परन्तु राष्ट्रीय मुद्राकरण योजना को आधार बना कर ऐसे दावे इस कारण देश के लिए नमोशी का कारण बन सकते हैं, क्योंकि इन यत्नों के अधीन सरकारी पूंजी को निजी कारोबारियों को सौंपा जाता है तो वे लोगों के सरोकारों को सम्बोधित नहीं हो सकते। सरकार ने अपने प्रत्येक स्तर पर जीवन जी रहे लोगों की सुध लेनी होती है। ये बातें उसकी प्राथमिकताओं में शामिल होनी चाहिएं। सस्ता अनाज, सस्ता स़फर तथा अन्य सस्ती सुख-सुविधाएं जन-साधारण को देना उसका कर्त्तव्य होता है। यदि ऐसी सुख-सुविधाओं को पैसे के साथ जोड़ा जाएगा तो जन-साधारण इनसे वंचित रह जाएंगे। लोगों को अपनी सामर्थ्य-शक्ति वाली शिक्षा नीति की ज़रूरत है। प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं जन-साधारण की बड़ी आवश्यकता है। सरकार को प्रतिदिन अधिक से अधिक रोज़गार पैदा करने हेतु यत्नशील होना चाहिए। ़गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों को कैसे ऊपर उठाना है, यह उसकी नीति का प्राथमिक तत्व होना चाहिए परन्तु हर स्तर पर फैलाया जा रहा निजीकरण सामाजिक सरोकारों वाला नहीं हो सकता। ऐसी ज़िम्मेदारी निजी कम्पनियों की नहीं, अपितु सरकार की होती है। सरकारी नीतियों में प्राथमिकता गरीब तथा साधारण व्यक्ति के जीवन की देख-रेख वाली होनी चाहिए। भविष्य में अपनी सम्पत्तियां गिरवी रख कर सरकार इस मार्ग पर कितनी दूर तक चल सकेगी तथा लोगों को कितनी सुविधाएं प्रदान कर सकेगी, यह बात अभी सन्देह के घेरे में आ गई है। मोदी सरकार ने पहले भी काले धन एवं आर्थिक गति को तेज़ करने के नाम पर नोटबंदी जैसा पग उठाया था, जिसके प्रभाव के कारण आज तक लोग तंगी-संकट से नहीं निकल सके। हम समझते हैं कि देशवासी निजीकरण के फैलाये जा रहे इस जाल में और भी उलझ कर रह जाएंगे।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द