भुखमरी का बढ़ता दायरा एवं संवेदनहीन व्यवस्थाएं

संयुक्त राष्ट्र की ताजा वैश्विक खाद्य सुरक्षा रिपोर्ट में दुनिया में भुखमरी की स्थिति पहले के मुकाबले ज्यादा विकराल होने की स्थितियां विकास की तमाम तस्वीरों पर एक बदनुमा दाग लगाती हैं। दुनिया में उभरती आर्थिक महाशक्तियों, व्यवस्थाओं एवं विकास के बीच भूखे लोगों की तादाद में इजाफा होना दुनिया में संतुलित समाज की संरचना पर एक गंभीर प्रश्न चिन्ह है। कहीं न कहीं दुनिया के विकास मॉडल में खामी है या वर्तमान सरकारों की कथनी और करनी में फर्क है। ऐसा लगता है कि विकास के लुभावने स्वरूप को कामयाबी माना जाने लगा है, लेकिन इसके बुनियादी पहलुओं को केंद्र में रखकर ज़रूरी कदम नहीं उठाए गए या उन पर अमल नहीं किया गया, तभी भुखमरी एवं भूखे लोगों की विडम्बनापूर्ण स्थितियां सुरसा की भांति बढ़ती ही जा रही हैं। यह कैसी संवेदनहीनता एवं उपेक्षापूर्ण मानसिकता है कि  भुखमरी की त्रासद एवं खौफनाक मसले पर किसी नई रिपोर्ट पर हैरानी तक नहीं होती, मगर इससे इतना जरूर पता चलता है कि विश्वभर में नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने को लेकर कोई संतुलित रुख नहीं अपनाया जाता। यह शासन व्यवस्थाओं की नीति एवं नीयत में खोट को ही दर्शाता है।
विश्व की करीब दो अरब तीस करोड़ आबादी को भुखमरी एवं भूख का सामना करना पड़ रहा है। दो वक्त की भोजन सामग्री जुटाने के लिए इस आबादी को जिन मुश्किलों, संकटों एवं त्रासद स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, वह विश्व की सरकारों एवं व्यवस्थाओं के विकास के बयानों को बेमानी सिद्ध करता है। संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के मुताबिक, कोरोना महामारी और उसके बाद रूस-यूक्रेन युद्ध ने भुखमरी को विकट बनाने में अहम भूमिका निभाई है। संयुक्त राष्ट्र की कई एजेंसियों की ओर से संयुक्त रूप से प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया 2030 तक सभी रूपों में भूख, खाद्य असुरक्षा, स्वास्थ्य और कुपोषण को खत्म करने के अपने लक्ष्य से और दूर जा रही है।संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट में भले ही भुखमरी के कारणों में कोरोना महामारी, युद्ध, संघर्ष, हिंसा, जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदा आदि की बात की गयी हो, लेकिन इसके लिये नवसाम्राज्यवाद, नवउदारवाद, मुक्त अर्थव्यवस्था और बाजार का ढांचा जैसे बड़े कारणों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ता फासला आदि की चर्चा नहीं होती। दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं की एक बड़ी विसंगति यह रही है कि इसमें एक तरफ  गरीब है तो दूसरी तरफ अति-अमीर है। इन दोनों के बीच बड़ी खाई है। इस बढ़ती खाई पर ज्यादा शोरशराबा नहीं होता है तो इसकी एक वजह यह  है कि उच्च वर्गों की समृद्धि की रिसन या ऊंची विकास दर के जरिए गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य अपने आप पा लिया जाएगा। यह उम्मीद पूरी तरह भ्रामक है और पूरी होती नहीं दिखती। उलटे विश्व खाद्य कार्यक्त्रम की रिपोर्ट बताती है कि सरकारों द्वारा निर्धारित अनाज की ऊंची कीमतों के चलते दुनिया में साढ़े सात करोड़ वैसे लोग भुखमरी की चपेट में आ गए हैं जो पहले इससे ऊपर थे। भूखे या अधपेट रह जाने वाली जनसंख्या में हुए इस इजाफे में तीन करोड़ लोग केवल भारत के हैं। इसमें पीने के पानी, कम से कम माध्यमिक स्तर तक शिक्षा और बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं के अभाव को जोड़ लें तो हम देख सकते हैं कि भारत आजादी के सात दशक बाद भी असल में वंचितों की दुनिया है।विकास, विज्ञान एवं उपलब्धियों पर सवार आज की दुनिया का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी गरीबी, अभाव, भूखमरी में घुटा-घुटा जीवन जीता है, जो परिस्थितियों के साथ संघर्ष नहीं, समझौता करवाता है। हर वक्त अपने आपको असुरक्षित-सा महसूस करता है। उसे आत्मविश्वास का अभाव अंधेरे में जीना सिखा देता है। उसके लिए न्याय और अधिकार अर्थशून्य बन जाता है। कोरोना महामारी का सामना करने के क्त्रम में जो उपाय अपनाए गए, उनसे विषाणु के प्रसार की रोकथाम में कितनी मदद मिली, इसका आकलन बाकी है, लेकिन इसके व्यावहारिक असर के रूप में अगर लोगों के सामने पेट भरने तक का संकट पैदा हो गया तो इस पर फिर से सोचने की ज़रूरत है।बड़ा प्रश्न है कि दुनिया में आधुनिक तकनीक एवं विज्ञान के सहारे जब भुखमरी के आंकड़े उजागर हो सकते हैं, तो ऐसी व्यवस्थाएं क्यों नहीं विकसित होतीं जो भुखमरी को रोक सकें।  अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस मसले पर गहराई से नज़र रखने वाली संस्थाएं, विशेषज्ञों, एवं तकनीकों सहित बड़ी तादाद में उच्च स्तर की व्यवस्थाएं मौजूद हैं, तो इसके दूरगामी हल के लिए ठोस नीतियां क्यों तैयार नहीं हो पातीं!  उल्टे यह समस्या लगातार और गंभीर होती गई है। युद्ध और अन्य बेमानी मामलों पर भारी धन खर्च करने और मौजूद संसाधनों को भी नष्ट किए जाने के कारण भुखमरी को लेकर विश्व समुदाय की ओर से गंभीरता नहीं दिखाई जाती, तो इसके पीछे किसका हित है? अभाव से जूझती आबादी को पोषणयुक्त संतुलित भोजन मुहैया कराने को लेकर चिंता जताई जाती है, लेकिन हकीकत यह है कि बहुत सारे लोगों को जीने के लिए न्यूनतम भोजन भी नहीं मिल पा रहा। हमारी दुनिया विरोधाभासी एवं विडम्बनाओं से ग्रस्त है। एक तरफ  भुखमरी तो दूसरी ओर महंगी दावतों और धनाढ्य वर्ग की विलासिताओं के अम्बार, बड़ी-बड़ी दावतों में जूठन की बहुतायत मानवीयता पर एक बदनुमा दाग है। इस तरह व्यर्थ होने वाले भोजन पर अंकुश लगाया जाए, विज्ञापन कम्पनियों को भी दिशा निर्देश दिए जाएं, होटलों और शैक्षिक संस्थानों, दफ्तरों, कैंटीनों, बैठकों, शादी और अन्य समारोहों और अन्य संस्थाओं में खाना बेकार न जाने दिया जाए। इस भोजन का हम अपने समाज की बदहाली, भुखमरी और कुपोषण से छुटकारे के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। सरकारों के भरोसे ही नहीं, बल्कि जन-जागृति के माध्यम से ऐसा माहौल बनाया जाना चाहिए। 

-मो. 9811051133