नरेन्द्र मोदी के लिए कड़ी परीक्षा थी गुजरात चुनाव


अगर तकनीकी रूप से देखा जाय तो गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों, दिल्ली के कारपोरेशन चुनावों और पांच राज्यों की 6 विधानसभा सीटों व उत्तर प्रदेश की मैनपुरी लोकसभा सीट में हुए उपचुनावों में जिस एक पार्टी ने सबसे ज्यादा गंवाया है, वह निश्चित रूप से भारतीय जनता पार्टी है। भाजपा ने इन चुनावों में हिमाचल में राज्य सरकार और दिल्ली में कारपोरेशन की अपनी सत्ता गंवा दी है। उपचुनावों में जरूर उसे जिन सीटों में हार मिली है, वे पहले भी उसकी नहीं थीं, हां बिहार में कुढनी की विधानसभा सीट उसके खाते में अतिरिक्त उपलब्धि के रूप में जुड़ी है, जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो कांग्रेस ने हिमाचल में सत्ता हासिल की है और राजस्थान व छत्तीसगढ़ के उपचुनावों में अपनी सीटों पर कब्ज़ा बनाये रखा है। इन चुनावों के दौरान कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी जिस तरह अपनी भारत जोड़ों यात्रा में ही ज्यादातर समय व्यस्त रहे और कांग्रेस के नए अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खड्गे की जो प्रतिष्ठा दांवपर लगी थी, उस सबको देखते हुए हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत उसके लिए बहुत बड़ी राहत की सौगात रही।  
आम आदमी पार्टी के नजरिये से भी ये चुनाव उपलब्धि पूर्ण रहे। दिल्ली की कारपोरेशन सत्ता पाने की उसकी सालों पुरानी साध पूरी हुई तो भले गुजरात में उसने अनुमानों से कुछ कम सीटें पायी हों, लेकिन 12 फीसदी से ज्यादा वोट पाकर उसने राष्ट्रीय पार्टी का वह गौरव हासिल कर लिया,   साल 2024 के आम चुनावों के पहले जो वह पाना चाहती थी। अगर उपचुनावों को देखें तो यूपी में सपा ने प्रतिष्ठित मैनपुरी लोकसभा जीत ली है और रामपुर तथा खतौली विधानसभा सीटों में खुद और अपनी सहयोगी आरएलडी के जरिये जीत की ओर अग्रसर थी। दूसरे प्रदेशों के उपचुनावों में आमतौर पर सत्तारूड़ पार्टियों का डंका बजा और और सम्मान बचा। सवाल है सबके खाते में राहत की इस चुनावी मैथमेटिक्स को कैसे समझें? अगर चुनावों में सबको ही कुछ न कुछ कामयाबी मिली है तो फिर निर्णायक रूप से इन चुनावों का वास्तविक विजेता कौन था? यह कहना तो जल्दबाजी होगी कि इन चुनावों से साल 2024 के लोकसभा चुनावों की तस्वीर समझी जा सकती है या कि उनकी राह इन नतीजों की पृष्ठभूमि से निकलेगी, लेकिन यह बात तय है कि हर पिछले चुनाव का अगले चुनावों पर कुछ न कुछ असर पड़ता ही है साथ ही सभी तरह के चुनाव परिणामों में भविष्य की तस्वीर कहीं न कहीं छिपी ही होती है। ये चुनाव भी इसका अपवाद नहीं हैं।
ऐसे में अगर भविष्य की तस्वीर और कामयाबी के रूप में देखें तो एक राज्य की सत्ता और राजधानी की कारपोरेशन सत्ता गंवाने के बावजूद इन चुनावों सबसे बड़ी कामयाबी भाजपा के हिस्से आयी है। सत्ताईस सालों से गुजरात की सत्ता में काबिज होने के बावजूद और पिछली बार 100 से भी कम सीटों में पहुंच जाने के बाद भाजपा ने गुजरात में जो अकल्पनीय प्रचंड बहुमत हासिल किया है, उसका तो मजाक में भी भाजपाइयों ने दावा नहीं किया था। आप मानें या न माने गुजरात के विधानसभा चुनाव भाजपा से कहीं ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी का लिटमस टेस्ट थे।  गुजरात में पिछले 27 वर्षों से भाजपा का शासन है। इसके बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह जिस तरह धुंआधार अंदाज में प्रचार कर रहे थे, वह उन लोगों के लिए हैरान करने वाला था जो गुजरात में जीत की मनोवैज्ञानिक महत्ता नहीं जानते थे। इन विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे गुजरात में 2017 से भी ज्यादा रैलियां कीं। उन्होंने सौराष्ट्र, उत्तर गुजरात, मध्य गुजरात और दक्षिण गुजरात में 30 से ज़्यादा रैलियां और रोड शो किए।
इतना ही नहीं, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह समेत बीजेपी के केंद्रीय नेता, मंत्री और मुख्यमंत्री भी गुजरात में चुनाव प्रचार में शामिल रहे। अहमदाबाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो ने तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया का ध्यान आकर्षित किया। यह सबसे लंबा रोड शो था। वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी की मेहनत ने चुनाव विश्लेषकों को भ्रम में डाल दिया, जिससे वे सरलीकरण का शिकार हो गये। ज्यादातर विश्लेषकों को लगा कि भाजपा के पास अपनी आंतरिक रिपोर्टें निराशाजनक हैं, इसलिए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री प्रचार में जमीन आसमान एक किये हुए हैं। यह बेहतर को और बेहतर करने की कोशिश भी हो सकती है या कि जीत को महाजीत में बदलने का प्रयास भी हो सकता है, विश्लेषक ऐसा नहीं सोच पाए। इससे साफ है कि राजनेताओं की तरह विश्लेषक भी वैचारिक रुझान और अपनी चाहत के प्रति झुकाव का शिकार थे। दरअसल गुजरात के संभावित नतीजों में आम आदमी पार्टी, विश्लेषकों के ओवर एस्टीमेट का शिकार थी। गुजरात में चूंकि 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ 99 सीटों से संतोष करना पड़ा था और कांग्रेस को 77 सीटें मिली थीं। इसलिए चुनावी पंडितों को लग रहा था कि मतदाता कांग्रेस को पिछली बार के चुनावों में जो ईनाम देते रह गए थे, इस बार वो जरूर देंगे और अगर न दिया तो उसकी भरपाई गुजरात में नई संभावना आम आदमी पार्टी को जो कुछ मिलेगा, उससे कांग्रेस और आप मिलकर 27 सालों बाद भाजपा को सत्ता से बेदखल कर देंगी।
लेकिन चुनावी गणित में दो और दो हमेशा चार कहां होते हैं? गुजरात में नरेंद्र मोदी और केंद्रीय नेताओं के सघन प्रचार अभियान को देखकर कांग्रेस ने जो हमला बोला, वह भी नकारात्मकता की उपज था। कांग्रेस जिसने पता नहीं किस रहस्यमय योजना के चलते चुनावों के पहले ही गुजरात में समर्पण कर दिया था, लेकिन गुजरात में भाजपा को आकाश-पाताल एक करते देख, इसे उसकी हालत खराब समझकर  खिल्लियां जरूर उड़ाने लगी थी। वह बार-बार कह रही थी,देखो केंद्र की पूरी टीम गुजरात में प्रचार करने आ गई है, अगर पिछले 27 सालों में अच्छा काम किया होता तो इस तरह लावलश्कर के साथ केन्द्र को यहां पढ़ाव न डालना पड़ता। प्रधानमंत्री किसी राज्य के विधानसभा चुनाव में इस कदर धुआंधार प्रचार करते हैं क्या? यह आलोचना सचमुच हास्यास्पद थी क्योंकि अगर प्रधानमंत्री प्रचार कर रहे थे, तो इसमें गलत क्या था? 
दरअसल न तो कांग्रेस न ही संयुक्त रूप से विपक्ष इस बात को समझ पा रहा था कि गुजरात को जीतना भाजपा की प्रतीकात्मक शक्ति के लिए कितना जरूरी था। अगर गुजरात में भाजपा हार जाती तो विपक्ष के पास एक मनोवैज्ञानिक बढ़त होती और भाजपा से ज्यादा यह प्रधानमंत्री मोदी की मनोवैज्ञानिक हार होती। क्योंकि आम लोग यह मानकर चलते हैं कि भले ही पार्टी के खिलाफ लोगों में नाराज़गी हो लेकिन नरेंद्र मोदी पार्टी से ऊपर हैं। मुख्यमंत्री कोई भी हों नरेंद्र मोदी इस समय भाजपा के वैचारिक प्रतीक हैं। वह पार्टी के एक दीर्घकालिक निवेश हैं। मोदी इस मनोविज्ञान को किसी भी दूसरे से ज्यादा समझ रहे थे इसीलिये उन्होंने गुजरात में रात-दिन एक कर दिया। भाजपा के लिए इस बार गुजरात में अकेले कांग्रेस को हराने की चुनौती नहीं थी बल्कि प्रदेश में जन्म ले रहे ‘आप’ और ‘एआईएमआईएम’ के फैक्टर को निर्मूल करना ज्यादा जरूरी था। क्योंकि ये कांग्रेस के संभावित विकल्प और विस्तार तथा भाजपा के लिए बड़ी वैचारिक चुनौती थे। अगर भाजपा इस बार गुजरात में बहुमत खोती तो वह लोकसभा चुनावों में आप और एआईएमआईएम को ज्यादा उर्वरता प्रदान करती। इसलिए भारतीय जनता पार्टी बड़े गहरे लक्ष्य के साथ यह मानकर चल रही थी कि गुजरात की जीत बहुत ज़रूरी है। भाजपा के लिए गुजरात मनोवैज्ञानिक ऊर्जा है। इसलिए यह भाजपा से कहीं ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी का लिटमस टेस्ट था।
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