‘बदलते तेवरों की क्रांतिकारी पहचान’

 

आप ज़िंदगी में क्या बनना चाहते हैं? छक्कन छुटपन के साथी हैं। जिंदगी के मैदान में कूदने का मन्सूबा कभी बना रहे थे, तो उन्होंने हमसे पूछा था।
सबकी तरह हम एक साधारण औसत मध्यवर्गीय परिवार की पैदावार गांव में रहते तो किसी ऐसे परिवार के फरजंद होते, कि जो पुरखों से दो एकड़ से कम ज़मीन पर खेती करते हैं। आने वाले दिनों में कृषि क्रांति के घर जाने का सपना देखते हैं। हां फंसी थी एक बार कृषि क्रांति अपनी लक्ष्मण रेखाओं में घुटी-घुटी सी। देश में चन्द फसलों तक सीमित, कुछ सम्पन्न किसानों के ओसारे भरती हुई। फिर यह एक दशक में ही दम तोड़ गई और अब यहां लगभग आधी सदी से दूसरी कृषि क्रांति का इंतज़ार हो रहा है। जो सब फसलों के लिए घटे। पूरे राष्ट्र को अपने कलेवर में ले। लेकिन अब तक वही है इंतज़ार और अभी और अभी यही देश का मिज़ाज है। वहीं नारे हैं, कृषि को व्यवसायिक बना देंगे, लेकिन परिणति भी वही है, जीवन निर्वाह खेती की। नौजवानों को घर गांव के पास छोटे और कुटीर उद्योगों का विकल्प देंगे। यह नारा बरसों से लगता है, लेकिन उनका विकास कागज़ों के आंकड़ों में होता है। गांवों के नौजवानों से पूछते हैं तो वे कहेंगे ‘अरे अब कहां है खेती हमारे जीने का ढं़ग? आह, अगर कहीं सात समुद्र पार डॉलर क्षेत्र में निकल जाने का वसीला बन जाये, तो हम भी प्रवासी भारतीय बन जायें। 
वार्षिक फेरी पर भारत आयें तो यहां अपनी जीर्ण शीर्ण कुटिया को अट्टालिका बना जायें। यहां परिवार में बाकी बचे अपने बूढ़ों के लिए शरनार्थस्थल।’ छक्कन ने जब हमसे पूछा होगा तो हमने तो अवश्य यही कहा होगा, ‘बन्धु या मैडीकल पढ़ेंगे या इंजीनियरिंग। या डाक्टर बनेंगे या इंजीनियर’ लेकिन कहां अपने जैसे बहुत से लोगों की तरह हम न डाक्टर बन सके न इंजीनियर। बस उम्र भर किरानी गिरी करते हुए घर के लिए सब्ज़ी का थैला उठा थोक मंड़ियों में सस्ती सब्ज़ी की तलाश करते नज़र आते रहे। आलम आज भी वही है। सब कुछ महंगा तब भी लगता था, आज भी लगता है।
सरकार महंगाई नियंत्रित करने की घोषणायें तब भी करती थी, आज भी करती है। थोक भाव तब भी गिरते थे, आज भी। लेकिन हमें तो थोक के भ्रम में वही परचून भाव की वस्तुएं मिलती रही हैं। क्योंकि कमी का अहसास देकर या अपनी लागत की दुहाई देकर परचून कीमतें अंगद का पांव हो जाती हैं। थोक से कहीं अधिक दाम पर बिकती हैं और पूरा देश हर बाज़ार में चोर बाज़ारी को सिजदा करता नज़र आता है। 
और जनाब, वह डाक्टर या इंजीनियर बनने की इच्छा का क्या हुआ? भाई जान, डाक्टरी पढ़ना तो इतना महंगा हो गया कि अब भरपूर प्रैक्टिस वाले डाक्टरों की संतानों ने उन पर कब्जा जमा रखा है। लाखों खर्च करके पढ़ते हैं और वापिस बाज़ार में आकर करोड़ों कमाते हैं और इस बड़ी आबादी वाले देश में किसी न किसी बड़ी महामारी के फैलने का अंदेशा जताते नज़र आते है। कोविड जाता है, पाक्सो का डर आता है, वह बेबुनियाद निकले तो फिर कोरोना के पड़ोस से आयात हो जाने के डर, या बिगड़े डेंगू के फैलने का डर। दवा और उपचार की काली मंडियों को नयी कमी से पैदा ज़िंदगी बख्शता दिखायी देता है। भुगतान नहीं होता के नाम पर आयुष्मान योजना उनके सामने पानी मांगती नज़र आती है और ‘आयुष’ के नाम पर सनातन युग की आयुर्वेद, योग और यूनानी विद्या पर नीम हकीम तारी हो जाते हैं। बेचारा आदमी इस देश का डाक्टर, इंजीनियर तो बन नहीं पाया। हां, सरकारी उपचार गृहों के भद्र संस्करण मुहल्ला क्लीनिकों की दवाओं के खाली काऊंटरों और गैर हाज़िर डाक्टरों की संतान में किसी क्रांतिकारी नये सेहत मॉडल का सपना अवश्य देखते रहते हैं।
और वह साहिब नई सोच के इंजीनियर बन जाने के सपने का क्या हुआ? भई, हमारे वक्त में तो पढ़ाई कठिन और संस्थान इतने कम थे, कि लोग ये कालेज नहीं तो आई.टी.आई. या पॉलीटैक्निक में पढ़ने का समझौता करने पर भी तैयार हो जाते।
परन्तु लीजिये इस बीच ज़माना इतनी तेज़ी से बदल गया कि अब इन संस्थानों से निकलते हुए इंजीनियरों या अर्ध-इंजीनियरों की ज़रूरत ही नहीं रही। देश डिजीटल हो गया। नकदी करंसी की जगह अगर ई-करंसी या क्रिपटो करंसी आई, तो यहां भी कृत्रि इंटैलिजैंस इन अर्ध-शिक्षितों की जगह लेने लगी। सुना था, रोज़गार परक नई शिक्षा नीति बन रही है। लेकिन वह यही फैसला नहीं कर सकी कि प्रशिक्षण किस रोज़गार को देना है। ज़माना तो इस तेज़ी से बदला कि उसके नवीनतम प्रशिक्षण के अभाव में ये स्थापित आई.टी.आई. भूर्त पूर्व ज़माने के प्रशिक्षक बनते नज़र आने लगे। और तो, अब तो डिज़ीटल दुनिया में छंटनी की दुविधा के कारण नई इंजीनियर आसामियां पैदा होने के स्थान पर काम पर लगे तकनीकी विशेषज्ञ बेकार होने लगा। 
विकल्प! अब तो लगता है देश में रह कर राष्ट्र सेवा के साथ अपनी जेब से सेवा भी करनी होगी, तो राजनीति में रह कर ‘आया राम गया राम’ के आधुनिक संस्करण पार्टी बदल नीति को अपनी हथेली पर उगती सरसों की तरह बड़ा या छोटा नेता बनने का धंधा अपनाना होगा। प्रशासन की सहजता के नाम पर कानूनी या ़गैर-कानूनी काम करवा देने की महारत हासिल कर लो बन्धु। इसके लिए त्याग, बलिदान और जन-सेवा का मार्ग अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं। बस चन्द अनुयायी लेकर सड़क पर धरना लगा दो, आवागमन बाधित कर दो। बस तुरंत अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में लगे कथित पीड़ितों की आंख के तारे बन जाओगे। इस बीच प्रशासन की आंख की किरकरी बन गये, तो क्या? किसी मोबाइल टावर पर चढ़ कर अपने क्रांतिकारी हो जाने की घोषणा भी कर सकते हो।