विश्व में बदलते समीकरण और भारत

 

जहां तक सीमा का सवाल है, भारत के साथ दो देश पाकिस्तान और चीन भारत के तयशुदा प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखे जा सकते हैं। हाल ही में अपने एक बयान द्वारा हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने चीन के साथ हमारे संबंधों को जटिल स्वीकार किया है। उनका मानना है कि ये संबंध सामान्य नहीं हैं। दूसरी तरफ पाकिस्तान जो अपनी भीतरी समस्याओं में बुरी तरह से संकटग्रस्त है। वहां खाने-पीने की चीज़ें लोगों के लिए सवाल बनती जा रही है। पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान भी संकट में हैं और भीतरी उथल-पुथल से छुटकारा नहीं मिल रहा। 
चीन की भी भीतरी और बाहरी समस्याएं कम नहीं, परन्तु भारत के लिए पाकिस्तान-चीन मित्रता संकट का विषय हो सकती है। चीन ने पाकिस्तानी विकास के लिए करोड़ों रुपए खर्च किए हैं। चीन का कज़र् भी पाकिस्तान पर बढ़ता चला गया है परन्तु फिर भी ये सहयोगी की भूमिका में हैं। विश्व स्तर पर चीन, रूस, अमरीका, पाकिस्तान का समीकरण अजीब होता चला जा रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध से एक बात स्पष्ट होती चली गई है कि पश्चिमी देशों के विरुद्ध अपनी लड़ाई में रूस अभी तक इसीलिए टिका हुआ है कि उसे चीन की मदद हासिल है। उधर म्यांमार को लेकर चीनी कस्टम विभाग के ताज़ा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार चीन की अर्थ-व्यवस्था सुस्त रही है और उसका कुल ब्याज कम हुआ है। परन्तु इन दोनों देशों के बीच व्यापार में काफी इज़ाफा हुआ है। 
भारत में आजकल यह धारणा आम है कि हम रूस से जो तेल खरीद रहे हैं वह उसकी अर्थ-व्यवस्था और युद्ध के प्रयत्नों में उसकी सहायता कर रहा है परन्तु वास्तविकता यह है कि रूसी अर्थ-व्यवस्था में चीन का योगदान काफी अधिक है। अपितु कई गुणा ज्यादा ही है। यहीं नहीं आधुनिक सैन्य साजो-सामान की सप्लाई का भी सवाल है। रूस के साथ भारत के पुराने रिश्ते हैं परन्तु इसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि आर्थिक, राजनीतिक और अन्तत: सैन्य मामलों में मात्र (दुनिया भर में) केवल एक देश पर निर्भर है जो पिछले लम्बे समय से हमारा बड़ा प्रतिद्वंद्वी ही है जिसके लगभग साठ हज़ार सैनिक हमसे युद्ध करने के लिए हर समय तैयार नज़र आते हैं। 
अब यह जटिल समीकरण नहीं तो और क्या है? इस पर इस पक्ष से भी सोचा जा सकता है कि आपका बड़ा प्रतिद्वंद्वी आपके दोस्त का दोस्त ही है। यह भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि जिस देश को आज हम अपना रणनीतिक सहयोगी मान रहे हैं वह रूस और चीन के पक्ष में है। भारत के प्रधानमंत्री एवं अमरीका के राष्ट्रपति तक कई बार इस बात का एहसास करवा चुके हैं। आज तक हमारे लिए सबसे बड़ा सिरदर्द पाकिस्तान बना रहा है और हमारा प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान का संरक्षक, दोस्त और मालिक बना बैठा है। यही जटिलता है। हम जिस दुनिया में यथार्थ रूप में हैं उसकी सैन्य ज़रूरतें रूस के बिना पूरी नहीं होती। 90 प्रतिशत टैंक, 70 प्रतिशत लड़ाकू विमान और अन्य बहुत कुछ रूस पर ही निर्भर करता है, जिसमें कोई बदलाव नहीं। परन्तु कुछ सवाल हैं वो इस समय ही उठाये जा सकते हैं एल.ओ.सी. पर बलून कभी भी आ सकता है तब हमारे पुराने मित्र रूस का रवैया क्या हो सकता है। रूस क्या 1962 की तरह चुप रहेगा? 1962 में तो सोवियत संघ था।
 उसमें बिखराव तो जाकर 1990 के आस-पास के समय या बाद में आया। तब का रूस पूरी ताकत में था और चीन से वैचारिक सांझ भी थी। आज चीज़ें बदली हुई नज़र आती हैं। पुतिन बुरी तरह युद्ध में फंस चुके हैं। चीन की भारत के खिलाफ किसी कार्यवाही में क्या रूस भारत का उतना ही मददगार साबित हो सकता है जितना भारतीय उसे मित्र और अभिन्न समझते रहे हैं।
उधर पाकिस्तान में यह एक मुश्किल दौर है। आज़ादी के बाद पाकिस्तान ने अपने पांवों पर खड़े होने का प्रयास ही नहीं किया। हमेशा आर्थिक मदद के लिए अमरीका की तरफ देखता रहा। 9/11 के हादसे के समय पाकिस्तान अकेला था। अमरीकी राष्ट्रपति ने सैन्य शासक परवेज़ मुशर्रफ को बुला कर पूछा- तुम हमारे साथ हो या नहीं? 9/11 के बाद फिर डॉलर बरसने लगे परन्तु पाकिस्तान में अपने पांवों खड़े होने की ताकत भी नहीं रही। तभी चीन ने पांव पसारने आरम्भ कर दिए। भारत के लिए नये वैश्विक समीकरण देखते हुए एक मुश्किल डगर है, जिस पर सावधानी से चलना होगा।