पंजाब के ताज़ा घटनाक्रम से किसान आंदोलन के दौरान बनी साझ कमज़ोर हुई 

 

कोई चालीस साल पहले सिख अलगाववाद ने खालिस्तानी आंदोलन की शक्ल में पंजाब को बुरी तरह से घायल किया था। इससे पहले अलगाववादी दावेदारियां मुख्य तौर पर उत्तर-पूर्व तक ही सीमित रहती थीं। दिल्ली और उसके आस-पास के स्थानों तक उसकी ़खबरों को पहुंचने से पहले ही नज़रंदाज़ कर दिया जाता था। लेकिन, पंजाब में खूनी आतंकवाद ने देश की राजनीति को आखिरी तौर पर बदल दिया। प्रधानमंत्री की हत्या ने हमारी राजनीति को सुरक्षा के प्रति अत्यंत संवेदनशील बनाया और वीआईपी सुरक्षा की अति ज़रूरत ने जनता को उसके नेताओं से दूर करने में एक ़खास तरह की भूमिका निभाई। कहना न होगा कि पंजाब में आतंकवाद को पराजित करने के लिए देश ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई। अभी भी बीच-बीच में वह आतंकी माहौल अपनी वापिसी का अंदेशा पैदा करता रहता है। पाकिस्तान इसे हवा देता है। कश्मीर के आंतकवाद और पंजाब के आंतकवाद के बीच एक ऐसा समीकरण है, जिसमें विभिन्न घटकों को जोड़ने का काम पाकिस्तान की इंटर सर्विल इंटेलिजेंस (आई.एस.आई) करती है। यही कारण है कि खालिस्तान के पैरोकार कभी भी लाहौर पर अपनी दावेदारी नहीं करते। और तो और वे गुरु नानक देव जी के जन्मस्थान पर भी कोई दावा नहीं करते। हम जानते हैं कि लाहौर महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी थी। वही रणजीत सिंह जिनके राज के नाम पर खालिस्तानी समर्थक कहते हैं कि उनका तो पहले अलग राज था। इस समय भी पंजाब एक बार फिर उसी खालिस्तानी हवा की गर्मी से ़खुद को बचाने की कवायद में लगा हुआ है। राज्य सरकार केन्द्र सरकार की मदद से ‘वारिस पंजाब दे’ और उसके नेता अमृतपाल सिंह की गतिविधियों पर शिकंजा कसने में लगी हुई है। 
ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो सोचते हैं कि जैसे ही अमृतपाल सिंह पंजाब पुलिस की पकड़ में आया, वैसे ही एक बार फिर इस ताज़ा खालिस्तानी मुहिम का अंत हो जाएगा। यानी, सिख अलगाववाद की राजनीति पुन: पराजित हो जाएगी। हो सकता है कि उनका यह अंदाज़ा ठीक निकले। लेकिन, वे इस सवाल का जवाब तलाश करने से बच रहे हैं कि इस राजनीति के हालिया उभार से साल भर चले किसान आंदोलन की साझा ज़मीन को पहुंचे ज़बरदस्त नुकसान की भरपायी कैसे होगी? किसान आंदोलन इस लिहाज़ से ऐतिहासिक था कि उसने बहुत दिनों बाद पंजाब के समाज में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसान समाजों के बीच एक राजनीतिक-सामाजिक एकता की रचना की थी। इस एकात्मकता में हिंदू, मुसलमान और सिख एक साथ शामिल थे। इनके साथ शहरी और अर्ध-शहरी मध्यवर्ग की हमदर्दी भी थी। भले ही इसका सीधा ताल्लुक न दिखाई दे, लेकिन इस आंदोलन के कारण बने माहौल के कारण ही पंजाब के वोटरों ने राज्य की चारों पुरानी पार्टियों (अकाली दल, कांग्रेस, भाजपा और बसपा) को दरकिनार करके आम आदमी पार्टी को असाधारण जीत के मुकाम तक पहुँचाया था। अमृतपाल सिंह प्रकरण ने पंजाब के भीतर ही नहीं बल्कि बाहर भी इस एकता पर गहरी चोट की है। 
घटनाक्रम पर इस नज़र से ़गौर करते ही यह बात समझ में आने लगती है। किसान आंदोलन की असाधारण सफलता ने सबसे ज्यादा जिन त़ाकतों को चिंतित किया था, उनकी सूची में खालिस्तान पक्षी का नाम सबसे ऊपर था। उनकी निगाहों के सामने लोग किसान यूनियनों के तहत गोलबंद होते जा रहे थे। पंजाब का वारिस किसान आंदोलन एक बड़ी त़ाकत न बनने पाये, इसीलिए ‘वारिस पंजाब दे’ जैसा संगठन बनाया गया। शुरू में इसकी डोर पंजाबी ़िफल्मों में काम करने वाले दीप सिद्धू के  हाथ में थी। दीप सिद्धू ने लाल किले वाले प्रकरण में अहम भूमिका निभाकर सिख अलगाववाद होने की दावेदारी पेश करने की कोशिश की थी। इसके कारण एक बार तो किसान आंदोलन के बहक जाने और खत्म हो जाने का अंदेशा पैदा हो गया था। परंतु आंदोलन की दृढ़ता ने गाज़ीपुर बॉर्डर पर रकेश टिकैत के जज़बाती होने की घटना के ज़रिये उसे बचा लिया। बाद में दीप सिद्धू का सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया। लेकिन, अलगाववादियों ने पहला म़ौका देखते ही दुर्घटना को साज़िश और दीप सिद्धू को शहीद घोषित कर दिया। उसके उत्तराधिकारी की तलाश होने लगी। इस प्रक्रिया के गर्भ में से अमृतपाल सिंह का जन्म हुआ। 
दुबई में अपने परिवार के ट्रांसपोर्ट धंधे में काम करने वाला यह 28-29 साल का यह युवक सोशल मीडिया पर दीप सिद्धू से बहस करता रहता था। उसके विचार सिद्धू  से भी गर्म थे। ज़ाहिर है कि खालिस्तानियों के लिए वह दीप सिद्धू के म़ुकाबले अधिक उपयोगी साबित होने वाला था। कटे बालों और कटी हुई दाढ़ी मुछों वाले और ़िफल्मी जीवन शैली के शौकीन सिद्धू के विपरीत अमृतपाल ने फटाफट केश रख लिए, भिंडरावाले जैसी सिख संतों वाली पगड़ी-पोशाक धारण की और एक दम भिंडरावाले की अदाओं की हूबहू नकल करते हुए ‘वारिस पंजाब दे’ की अध्यक्षता करनी शुरू कर दी। कम पढ़े-लिखे और पॉलिटेक्नीकल के इस विफल विद्यार्थी की अकेली ़खूबी यह साबित हुई कि उसने अपनी एक्टिंग से भारतीय मीडिया को य़कीन दिला दिया कि वह ‘भिंडरावाले 2.0’ बनने की तऱफ जा रहा है। किसी भी तरह की सनसनी की संभावनाओं की हरदम तलाश करने वाले मुख्यधारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक सभी ने अमृतपाल की इस छवि को तैयार करने में प्रभावी भूमिका निभाई। 
समस्या केवल एक थी। जिस तरह दीप सिद्धू  के पास ज़मीनी समर्थक नहीं थे, उसी तरह अमृतपाल के पास भी कोई जनाधार नहीं था। इसलिए जैसे ही पंजाब सरकार ने उसकी गिरफ्तारी की कार्रवाई शुरू की, वैसे ही उसकी बड़ी-बड़ी बातों की पोल खुल गई। उसके पक्ष में कोई बहुत ज्यादा लोग खड़े नहीं हुए। किसी ने आवाज़ नहीं उठाई। आज नहीं तो कल अमृतपाल का पकड़ा जाना और कानून के कठघरे में खड़ा होना अब तयशुदा है। अमृतपाल के पक्ष में अगर कुछ हुआ है तो विदेशों में बहुत से सिखों द्वारा किए गए प्रदर्शन है। लेकिन, उससे आम लोगों के बीच ऐसे अलगाववादियों की साख ही गिरी है। 
मुश्किल यह है कि इस तरह की लम्बी खिंचने वाली घटनाएं पंजाब जैसे राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश के लोकप्रिय मानस पर अपने गहरे निशान छोड़ जाती हैं। अमृतपाल की शक्ल में चली खालिस्तानी हवा से निकले अंदेशों के कारण डर है कि पंजाब के सिख, हिंदू और दलित पहले जैसी आश्वस्ति के साथ राजनीतिक एकता नहीं कर पाएंगे। इसका लाभ उन शक्तियों को मिलेगा जो चाहती हैं कि ये समुदाय 2022 के चुनाव के पहले की तरह अलग अपनी-अपनी राजनीतिक प्राथमिकताएं फिर से अलग-अलग निर्धारित करने लगें। इसके प्रभाव में किसान आंदोलन पंजाब के बाहर कुछ हदतक कमज़ोर हुआ है। खालिस्तान के प्रेत की वापिसी तो नहीं हो सकी, लेकिन वह जनता को बांटने में ज़रूर कामयाब हो गया है। 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।