विज्ञापनों की चकाचौंध और समाज का बदलता स्वरूप

आज उपभोक्तावादी युग में विज्ञापन सामाजिक प्रतिष्ठा के साधन बन चुके हैं। विज्ञापनों का संसार किसी मायावी दुनिया से कम नहीं नज़र आता है। प्रिंट मीडिया ने खूबसूरत फोटोग्राफी, आकर्षक व रंग-बिरंगे व नये अंदाज में स्लोगनों से विज्ञापन कर्ताओं ने एक नई उपभोक्ता संस्कृति को जन्म दे दिया है जो आजकल तेजी से फल-फूल रही है।  आज विज्ञापनों की दुनिया इतनी लुभावनी और व्यापक हो गई है कि इसने न केवल शहरी क्षेत्र बल्कि दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में भी पाँव पसार लिए हैं। हर चौराहों, रास्तों व राष्ट्रीय राजमार्गों में लगे विशालकाय होर्डिंग्स, बैनर व पोस्टर आमजन को आकर्षित कर रहे हैं। प्रचार-प्रसार व जनसम्पर्क व समाचार माध्यमों द्वारा एक नई मानवीय सभ्यता को गतिशीलता मिली है।
विश्व के इतिहास में यह दर्ज है कि पहली बार 1822 में अब्राहम लिंकन ने राजनैतिक तथा प्रचार-प्रसार के लिए जनसंपर्क की तकनीक को अपनाकर अपने आपको स्थापित किया तथा 20वीं शताब्दी के शुरू में 1983 में पहली बार राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने प्रचार-प्रसार एवं उस समय के जनसंपर्क को एक नई तर्कसंगत परिभाषा के रूप में प्रचारित किया। राजा-महाराजाओं द्वारा अपनी योजनाओं नीतियों को जनता तक पहुंचाने के लिए उद्घोषक नियुक्त करते थे जो गांवों में जाकर मुनादी करता था। यह जनसंपर्क का रूप था। सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के साथ-साथ संचार माध्यमों का भी विकास हुआ। जनसंपर्क और विज्ञापन के क्षेत्र में उत्तरोत्तर विकास हुआ। 300 वर्ष पूर्व मिश्र में घर किराये पर देना है, खोया-पाया, गुमशुदा की तलाश आदि विज्ञापन काफी प्रचलित थे, भारत में 6 सितंबर, 1556 में सर्वप्रथम प्रेस की स्थापना के बाद संचार माध्यमों को नई दिशा मिली और आज संचार माध्यमों के द्वारा नए प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं। 
29 जनवरी, 1780 को जेम्स आगस्टा हिक्की ने कलकत्ता से भारत का पहला समाचार पत्र प्रकाशित किया जो भारत के इतिहास में संचार माध्यमों की पहली शुरुआत थी। इलेक्ट्रानिक माध्यमों का विकास हुआ और आज नए-नए माध्यमों के विकास होने से सूचनाओं में क्र ांति आ गई है। इन चैनलों में सूचनाओं को लोगों तक पहुंचाने की होड़ सी मच गई है ऐसे में चैनलों ने विशुद्ध बाजार का रूप धारण कर लिया है।
विज्ञापनों की चकाचौंध व अंधी होड़ हमें एक ऐसे संसार में ले जा चुके हैं, जहां बस यही महसूस होता है कि यदि इन विलासितापूर्ण वस्तुओं का उपभोग नहीं करेंगे तो हमें बदलते समाज व परिवारों में पिछड़ा अथवा दकियानूसी समझा जायेगा। विज्ञापन अभियानों के जरिये प्रोडक्ट्स को आमजन के लिए आवश्यक सामग्री के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। नामी कंपनियां अपनी योजनाओं को प्रचारित करने हेतु करोड़ों की धनराशि विज्ञापनों व जनसंपर्क में खर्च करती है। शहरों में बड़े-बड़े फेस्टिवल आयोजित किये जाते हैं, यानी सब कुछ एक ही छत के नीचे सब कुछ उपलब्ध है और ऐसे मेलों ने आम जन मानस में लोकप्रियता के नये आयाम भी छू लिये हैं। यूं देखा भी जाय तो बाजार का नियम है कि जो दिखता है वो बिकता है की तर्ज पर होड़ सी लगी हुई है। बदलाव के युग व समय में पहले के समय में और आज के समय में जमीन आसमान का फर्क साफ तौर पर दिखाई देता है। वर्षों पूर्व प्रतिद्वंद्विता नहीं थी लेकिन अब तो गांव के हाट बाजार से लेकर वैश्विक बाजार तक सौ नहीं, हजार नहीं बल्कि लाखों प्रतिद्वंद्वी बाज़ार में हैं। 
ग्लोबलाइजेशन के इस युग में ढेरों प्रोडक्ट बाजार में उपलब्ध हैं और अब तो हर प्रोडक्ट की कई-कई रेंज देखने को मिल जायेंगी चाहे साबुन हो, पेस्ट हो, नैपकिन हो या पेय पदार्थों की रेंज। हां यह बात जाहिर सी है कि बाजारी प्रतिद्वंद्विता के दौर में कंपनियों के लिए प्रोडक्ट्स बेचना टेढ़ी खीर ही साबित हो रहा है। इसीलिए कंपनियां प्रचार के लिए नित नये तरीके व तकनीक खोज रहे हैं। परिवर्तन के दौर से गुजरता बाज़ार आज उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा देने हेतु प्रयासरत है। विज्ञापन की नई संस्कृति को दर्शाने के लिए निर्माता कंपनियां नए  माडल हाें या सिनेतारिकाओं के जरिये ऐसे शारीरिक प्रदर्शन करवाने में भी कोई गुरेज नहीं करती भले ही उसे समाज  भी स्वीकार्यता प्रदत्त न करता हो। 
 वर्तमान में विज्ञापन बड़े-बड़े दैनिकों की जीवन रेखा साबित हो चुके है तो इलेक्ट्रानिक मीडिया  में चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। इनमें प्राइवेट कंपनियों ही नहीं अपितु सरकारी योजनाएं हो अथवा सेवाएं हर क्षेत्र के लिए करोड़ों की धनराशि खर्च की जा रही है। विज्ञापनों की होड़ से आम उपभोक्ता अभी और कितना प्रभावित होगा, यह तो समय की रफ्तार ही बतायेगी लेकिन अब सोचना यह है कि विज्ञापनों से समाज में आ रहा बदलाव हमारे लिए कितना हितकारी साबित होगा? (युवराज)