मर्यादाहीन बयानों से शर्मसार होता लोकतंत्र

देश को अमूमन हर साल कोई न कोई चुनाव का सामना करना ही पड़ता है। जैसे ही चुनाव आते हैं नेताओं की बांछे खिल जाती हैं। घटिया शब्दों से चुनावी बिसात बिछ जाती है। पिछले दो दशक से आपत्तिजनक और विवादित बोल बोले जा रहे हैं। नेताओं के बयानों से गाहे बगाहे राजनीति की मर्यादा भंग होती रहती है। मर्यादाहीन बयानों की जैसे झड़ी लग जाती है। राजनीति में बयानबाजी का स्तर इस तरह नीचे गिरता जा रहा है, उसे देखकर लगता है कि हमारा लोकतंत्र तार-तार हो रहा है। कहा जाता है अभी तो यह ट्रेलर है। 2024 के लोकसभा चुनाव में विवादित बयानबाजी की पिक्चर अभी बाकी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी नफरत फैलाने वाले भाषण को देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को प्रभावित करने वाला गंभीर अपराध करार दिया है। देश की सर्वोच्च अदालत ने गत दिवस सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की पुलिस को निर्देश दिया कि वे स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करें। शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसे भाषण देने वालों के खिलाफ  मामला दर्ज करें, भले ही उनका धर्म कुछ भी हो। सुप्रीम कोर्ट ने साफ  कहा कि राज्य सरकारें नफरत भरे भाषणों के खिलाफ  कार्रवाई करने के लिए बाध्य हैं।
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के दृष्टिगत नेताओं के बीच विवादित बयानबाजी का दौर जारी है। जिस तरह से राजनीतिक नेता विवादित बयान दे रहे हैं, उसकी वजह से चुनावी माहौल में सरगर्मी बढ़ गई है। विवादित बयान देने में कांग्रेस और भाजपा सहित कोई भी नेता पीछे नहीं है, मगर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना ज़हरीले सांप से कर दी। हालाँकि बाद में वे अपने बयान से पलट गए और कहा मैंने मोदी को नहीं भाजपा विचारधारा को ज़हरीला बताया था। मगर तब तक देर हो चुकी थी, खड़गे का बयान वायरल हो गया जिसमें भाजपा विचारधारा को नहीं अपितु मोदी को ज़हरीला सांप बताया था। इससे पूर्व भी प्रधानमंत्री मोदी को निशाना बनाकर आपत्तिजनक और विवादस्पद बयान देकर कांग्रेस अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार चुकी है। नतीजतन 2007 से अब तक हुए विभिन्न चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।
सियासत में विवादास्पद बयान को नेता भले अपने प्रसिद्ध होने का जरिया मानें, लेकिन ऐसे बयान राजनीति की स्वस्थ परम्परा के लिए ठीक नहीं होते। हमारे माननीय नेता आजकल अक्सर ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। देश के नामी-गिरामी नेता और मंत्री भी मौके-बेमौके कुछ न कुछ ऐसा बोल ही देते हैं, जिसे सुनकर कान बंद करने का मन करता है।  
आम आदमी से जुड़े मुद्दों जैसे बेहतर आधारभूत सुविधाएं, सामाजिक न्याय, सब के लिए शिक्षा और रोज़गार, भ्रष्टाचार से मुक्ति, शासन प्रशासन में पारदर्शिता इत्यादि के वायदे प्रत्येक पार्टी लोगों से करती है। वास्तव में आम आदमी की परेशानियों से किसी को कोई मतलब नहीं है। महंगाई से आम आदमी को जूझना पड़ता है। चुनाव में करोड़ों-अरबों की धनराशि स्वाहा हो जाती है। चुनाव लोकतंत्र की परीक्षा होती है और इस परीक्षा में राजनीतिक दलों को यह  साबित करना होता है कि जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता और लोकप्रियता कितनी है। लोकतंत्र की परीक्षा पास करने के लिए राजनीतिक दल चुनाव में जनता के बीच जाते हैं। अपने मुद्दे रखते हैं और बताते हैं कि चुनाव जीतने के बाद वे जनता की भलाई के लिए क्या कदम उठाएंगे। मगर वास्तविकता इससे ठीक विपरीत होती है। चुनाव जीतने के बाद नेता अपनी झोली भरने में लग जाते हैं। जितने पैसे चुनाव में लगाए हैं उनके पुनर्भरण की जुगत लगाते हैं। गरीब की भलाई के स्थान पर अपने कुनबे को आगे बढ़ाने में लग जाते हैं। असल में चुनाव ही नेताओं की अग्नि परीक्षा होते हैं। जनता को गम्भीर सोच समझ कर अपने मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए अन्यथा पांच साल के लिए फिर भैंस गई पानी में। नेता जाति, धर्म और पैसे की राजनीति से खेलते हैं मगर मतदाता को इन प्रलोभनों से हट कर मतदान करना है। उसे उसी को चुनना है जो उसका सही मददगार है अन्यथा फिर पांच साल पछताना पड़ेगा और इसके लिए कोई दूसरा दोषी नहीं होगा।


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