हिंदी और भारतीय भाषाओं के संबंध

भारत के सामाजिक भाषाशास्त्र का यह एक स्थापित तथ्य है कि हिंदी के मौजूदा रूप की रचना एक राष्ट्रीय-सांस्कृतिक उद्देश्य से की गई थी। यह था एक महादेश की अत्यंत समृद्ध भाषिक विविधता को परस्पर जोड़ने के लिए हिंदी नाम का रेलवे जंक्शन बनाना जिसके विशाल प्लेटफॉर्म पर सभी भाषाओं की ट्रेनें रुक सकें और उनके मुसाफिरों की एक-दूसरे से मुलाकात हो सके। 60 के दशक में ही बलदेव राज नैय्यर ने अपने अद्भुत लेख ‘हिंदी एज़ लिंक लेंगवेज’ में यह कालजयी सूत्रीकरण किया था। नायर ने अकाट्य प्रमाणों के ज़रिये यह दिखाया कि सरकारी सेक्टर के बाहर हिंदी एक अखिल भारतीय सम्पर्क-भाषा के रूप में विकसित हो सकती है। नायर ने देखा कि हिंदी की साहित्यिक प्रतिष्ठा को भाव न देने वाले ़़गैर-हिंदी साहित्यकार भी अपनी रचनाओं का हिंदी में प्रकाशन करने के लिए साहित्य अकादमी पर दबाव डाल रहे हैं, क्योंकि वे हिंदी में बिकना चाहते हैं। अगर कोई मलयालम का एक उपन्यास पंजाबी में छपना चाहता है, तो वह उसके हिंदी अनुवाद का पंजाबीकरण करके वहां के पाठकों तक पहुंच सकता है। कोई बंगाली अगर तमिल कविता के बारे में जानना चाहता है तो वह हिंदी के माध्यम से यह काम आसानी से कर सकता है। इस तरह नायर ने देखा कि हिंदी विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच साहित्यिक विनिमय की एजेंसी बनती जा रही है। नायर ने यह भी पाया कि हिंदी-विरोध का गढ़ बन चुके तमिलनाडु में कोई 30-40 लाख लोग हिंदी बोल-समझ लेते हैं। वे हिंदी में प्रवीण नहीं हैं, पर उससे अपरिचित भी नहीं हैं। 
अगर मैं यह सवाल पूंछूं कि क्या महाराष्ट्र में हिंदी के विरोध में आंदोलन हो सकता है, तो लोगों को मेरे सामान्य ज्ञान पर आश्चर्य होगा। क्यों न हो, कुछ दिन पहले ही तो ठाकरे बंधुओं द्वारा दी गई आंदोलन की धमकी के कारण राज्य सरकार ने अपना हिंदी संबंधी निर्णय वापिस लिया है लेकिन ज़रा सोचिये, अगर आज बाल गंगाधर तिलक होते तो क्या उन्हें यह देख-सुन कर अपनी आंखों और कानों पर यकीन होता? और, उनके द्वारा निकाले गये अ़खबार ‘हिंदी केसरी’ के सम्पादक माधवराव सप्रे इस बारे में क्या सोचते? सप्रेजी के अलावा बाबूराव विष्णु पराड़कर (जिन्होंने हिंदी को श्री, श्रीमती, राष्ट्रपति, मुद्रास्फीति जैसे शब्द दिये), लक्ष्मण नारायण गर्दे और राहुल बारपुते जैसे यशस्वी मराठी भाषी हिंदी सम्पादकों द्वारा तैयार की गई पत्रकारों की पीढ़ियां भी तो हिंदी-मराठी के उसी समीकरण द्वारा रची गई हैं जो 11वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी के बीच मराठी भाषी क्षेत्र के राजदरबारों के भीतर परवान चढ़ा था। यह मराठी-हिंदी समीकरण शाहजी भोंसले, उनके महान पुत्र छत्रपति शिवाजी (जिनके नाम पर शिव सेना राजनीति करती है), उनके बेटे शंभाजी और फिर दिल्ली पर अधिकार करने वाले पेशवाओं तक जाता है। इनके दरबार हिंदी के विख्यात कवियों से भरे पड़े थे जिनमें भूषण और मतिराम के नाम तो हिंदी के शुरुआती विद्यार्थी तक जानते हैं। कौन नहीं जानता कि हिंदी और मराठी के 80 प्रतिशत शब्द एक जैसे है। व्याकरण-व्यवस्था एक सी है। दोनों भाषाएं एक ही लिपि में लिखी जाती हैं। उत्तर भारत का समृद्ध भक्तिकालीन अध्याय महाराष्ट्र से आये नामदेव जैसे संत कवियों की देन है, और महाराष्ट्र की ‘विचारणा’ व उसके कारण चला ‘सुधारणा’ का आंदोलन कबीरपंथियों, नाथों और सिद्धों के अंशदान का परिणाम है। 
इस तरह के बहुत से तथ्य मैं तमिल-क्षेत्र के बारे में भी दे सकता हूं जो 1930 से ही हिंदी विरोध का गढ़ बना हुआ है। विरोधाभास यह है कि 30 के दशक में प्रेमचंद की कहानियों और उनके उपन्यास ‘सेवासदन’ के  अनूदित-संस्करणों ने वहां जो धूम मचायी, वह प्रसाद के महाकाव्य ‘कामायनी’, हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, शिवप्रसाद सिंह की रचना ‘नीला चांद’ और श्रीलाल शुक्ल के कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ की तमिल पाठकों के बीच असाधारण लोकप्रियता के रूप में आज भी जारी है। पूरा तमिल-प्रदेश गांधी द्वारा स्थापित दक्षिण भारतीय हिंदी प्रचारिणी सभाओं के दफ्तरों से भरा हुआ है। वहां दो उग्र हिंदी विरोधी आंदोलन हो चुके हैं, लेकिन इनकी प्रचुर हिंसा और आगज़नी के बावजूद इन कार्यालयों पर कभी एक पत्थर भी नहीं फेंका गया। 
नायर ने अपने लेख में दावा किया था कि देश के लगभग सभी हिस्सों में हिंदी की मौजूदगी किसी सरकारी आदेश का फल न होकर एक दीर्घकालीन ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है। ओडीशा के राउरकेला स्टील प्लांट में काम करने वाले अंग्रेज़ी न जानने वाले मज़दूर आपस में हिंदी में बातचीत करते हैं न कि ओड़िया में। बम्बई की सार्वदेशिकता ने एक भाषा के रूप में हिंदी को अपनाया है। अंडमान में रहने वाले हिंदी, मलयालम, बंगाली, तमिल और तेलुगुभाषी लोगों ने आपसी सम्पर्क के लिए हिंदी को ही अपनी भाषा बनाया है। नायर बताते हैं कि 1952 से 1959 के बीच 4,54,196 लोग मद्रास राज्य में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के इम्तहानों में बैठ चुके थे, पर जनगणना तमिल-हिंदी द्विभाषियों की संख्या केवल 29,818 ही बता रही थी। 
नायर ने मनोरंजन के क्षेत्र को विशेष रूप से चिन्हित किया कि वह हिंदी को सम्पर्क-भाषा बनाने की तरफ तेज़ी से ले जा रहा है। उन्हें दिखा कि मद्रासी फिल्म-उद्योग हिंदी-फिल्मों के बाज़ार में हिस्सा बंटाना चाहता है। हिंदी फिल्मों की दक्षिण में लोकप्रियता से उन्होंने नतीजा निकाला कि वहां हिंदी समझने वालों की ़खासी संख्या है और हिंदी फिल्मों की वजह से लोगों की हिंदी-जानकारी के स्तर में भी वृद्धि हो रही है। नायर ने फिल्मों से भी ज्यादा रेडियो सिलोन और विविध भारती द्वारा प्रसारित किये जाने वाले और भारतीय संगीत, अमरीकी जैज़ व लातीनी धुनों से घालमेल से तैयार किये गये हिंदी फिल्मों के गीत-संगीत को इस भाषा के प्रसार का श्रेय दिया। उनका ़खयाल था कि एक बाहरी भाषा का गीत गुनगुनाना एक सक्रिय कोशिश है, जबकि फिल्म निष्क्रिय तरीके से बैठ कर देखी जा सकती है। 
नायर ने हिंदी के प्रसार-प्रचार में किये जाने वाले ़़गैर-सरकारी स्वयंसेवी प्रयासों को भी रेखांकित किया। 1918 में गांधी द्वारा मद्रास से हिंदी प्रचारणी सभाओं की शुरुआत करने के बाद 1956 तक स्वयंसेवी प्रयासों से ़करीब सत्तर लाख ़़गैर-हिंदीभाषी हिंदी सीख चुके थे। हिंदी का प्रचार करने वाले संगठनों की खूबी यह थी कि इनके संचालक हिंदी प्रदेशों से भेजे गये लोग नहीं थे, बल्कि वे ़़गैर-हिंदी क्षेत्रों के ही थे। 1959 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा 1,350 केंद्रों पर हिंदी की परीक्षाएं आयोजित कर रही थी जिनमें सवा लाख से डेढ़ लाख लोग हर साल बैठते थे। इनमें से बीस प्रतिशत लोग बेहतर हिंदी सीखने के लिए आगे की परीक्षाएं भी देते थे। नायर ने पॉल फ्रेड्रिख के एक लेख के हवाले से यह भी कहा कि हिंदी सीखना इतना आसान है कि एक बच्चा अंग्रेज़ी के म़ुकाबले दोगुनी रफ्तार से उसे सीखता है, क्योंकि भाषाई और सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदी अंग्रेज़ी के म़ुकाबले अन्य भारतीय भाषाओं के बहुत नज़दीक है। नायर का ज़ोर हिंदी के सोशल सेक्टर पर था। दरअसल, राजभाषा और राष्ट्रभाषा की राजनीति के कारण हिंदी का जो भी विरोध होता रहे, सामाजिक क्षेत्र में वह तेज़ी से अखिल भारतीय सम्पर्क भाषा बनने की तरफ बढ़ चुकी है। इस हकीकत को नज़रअंदाज़ करके हम केवल अपना नुकसान ही कर सकते हैं।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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