साधक के भीतर भक्ति के विकास का उत्सव है गुरु पूर्णिमा

10 जुलाई गुरु पूर्णिमा पर विशेष

एक बार एक ज़ेन अध्यापक था, जिसे प्रतीत होता था कि वह ब्रह्म ज्ञान से प्रकाशित हो चुका है। जब वह अपने गुरु से मिला, तो गुरु ने उन्हें एक कोआन दिया—एक ऐसा परोक्ष व्याख्यामत्क प्रश्न जो सिर्फ तर्क से नहीं सुलझ सकता। उन्होंने कहा, ‘मूर्ति की आंखें हैं, और आंसू चुपचाप बह रहे हैं।’ यह सुन कर अध्यापक थर-थर कांप गया। ये आंसू क्या हैं? यह भक्ति के आंसू हैं। 
एक विद्यार्थी आंखों में आंसू लेकर गुरु के पास आता है। जब वह रवाना होता है तो पुन: आंसू बहने लग पड़ते हैं, परन्तु अब उनकी गुणवत्ता बदल चुकी होती है। नमकीन आंसू अब मीठे लगते हैं। रब्बी प्रेम में, भक्ति में रोना बहुत सुंदर होता है। जो एक बार भी प्रेम में रोया है, वह उसकी मिठास को जानता है, भक्ति के संवाद को। सारी सृष्टि उसमें रंगी जाती है, और उसकी ही हो जाती है।
‘गुरु पूर्णिमा’ एक साधक के भीतर भक्ति के विकास का उत्सव है। लोग कहते हैं कि यह गुरु का दिन है, परन्तु वास्तव में यह भक्त का दिन है। भक्त भीतरी यात्रा, मिली हुई कृपा तथा जीवन-मार्ग पर हुए विकास को याद करता है, अपने गुरु के प्रति अथाह श्रद्धा से।
एक विद्यार्थी जानकारी तथा शिक्षा की तलाश करता है, एक विद्यार्थी रूपांतरण या मोक्ष ढूंढता है, परन्तु एक भक्त तो ज्ञान के लिए भी नहीं आता। वह तो सिर्फ प्रेम में रम जाता है। वह अपने गुरु, अन्नदाता तथा परमात्मा से अथाह प्यार कर बैठता है। उसे परवाह नहीं कि उज्जीयता मिलेगी या नहीं। उसके लिए हर पल दिव्य प्रेम में लीन होना ही काफी है।
इसीलिए भक्ति बहुत ही दुर्लभ होती है। विद्यार्थी बहुत हैं, शिष्य कम हैं, परन्तु भक्त बहुत ही कम हैं।
‘सारीपुत्र’, जो कि बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में से एक था, ने प्रकाश पा लिया। बुद्ध ने उसे कहा कि दुनिया में जाकर मेरा काम कर, परन्तु सारीपुत्र फूट-फूट कर हो पड़ा। लोगों ने पूछा, ‘तुम तो ज्ञानवान हो गये हो, फिर इतना रोते क्यों हो?’ उसने कहा, ‘ज्ञान तो रुक सकता है। मुझे अपने गुरु के चरणों की चरण-सेवा की खुशी याद आ रही है। वह खुशी ज्ञान से भी अधिक थी।’ यही है भक्ति, जहां मोक्ष भी समर्पण की मिठास के आगे फीका पड़ जाता है।
‘देवता भी भक्ति से भावुक हो जाते हैं।’ जब श्री कृष्ण अपना शरीर छोड़ने की तैयारी कर रहे थे, उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे। उन्होंने उद्धव को कहा, ‘मेरे भक्तों को कहना, सिर्फ वही मुझे अपने प्रेम तथा ऋण से मुक्त कर सकते हैं। मैं स्वर्ग में नहीं, न ही मंदिरों में हूं। मैं वहां हूं, जहां मेरे भक्त गाते हैं।’
रब्ब बनना कोई बड़ी बात नहीं, क्योंकि सब कुछ पहले से ही दिव्य है, परन्तु किसी के हृदय में भक्ति का फूल खिलना—यही है वास्तविक चमत्कार। आप जितनी उत्सुकता से परमात्मा को ढूंढते हो, उतनी ही बेचैनी से दिव्यता भी आपकी तलाश करती है।
जब भक्ति खिलती है, तो सब कुछ रब्बी हो जाता है। आप संसार को प्रेमी की आंखों से देखने लगते हो। आप जो देखते हो, जो सुनते हो, जो बोलते हो—वह सारा रूहानियत में रंग जाता है। जब आप बोलते हो, वह आप नहीं, वह गुरु होते हैं, वह देवता होते हैं, जो अपके माध्यम से बोलते हैं।
‘यह गुरु पुर्णिमा’ एक स्वर्णिय अवसर है कि हम भक्त के हृदय में बस रही दिव्यता की मौजूदगी का जश्न मनाएं, क्योंकि जब भक्ति खिलती है, तो प्रकृति चुपचाप, मीठे ढंग से पूरी तरह आपको गले लगाने आ जाती है।

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