अमरीकी कृषि उत्पाद बेचने से बचे भारत
भारत और अमरीका के बीच 9 जुलाई से पहले व्यापार समझौता होने उम्मीद है। यदि भारत अमरीका की शर्तें नहीं माना है तो 9 जुलाई से टैरिफ यानी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में लगाया जाने वाला कर 10 से बढ़ाकर 26 प्रतिशत हो जाएगा। भारत चाहता है कि जल्द अंतरिम व्यापार समझौता हो जाए, लेकिन अमरीका अपने हितों को प्राथमिकता देते हुए चाहता है कि भारत में उसे कृशि और डेयरी उत्पाद बचने की अनुमति दी जाए। चीन ने अमरीकी उत्पात खरीदने से मना कर दिया है। भारत अमरीका प्रशासन के दबाव के बावजूद अमरीका के लिए कृषि उत्पाद का बाज़ार खोलने के पक्ष में नहीं है। दरअसल भारत की 70 करोड़ से भी अधिक आबादी कृषि, दूध और मछली व अन्य समुद्री उत्पादन पर आश्रित है। इन उत्पादों से जुड़े लोग आत्मनिर्भर रहते हुए अपनी आजीविका चलाते हैं। हालांकि भारत सरकार इनकी आर्थिक स्थिति को और मज़बूत बनाए रखने की दृष्टि से मुफ्त अनाज, खाद्य सब्सिडी और किसानों को छह हज़ार रुपए प्रतिवर्ष अनुदान के रूप में देती है।
भारत की 70 प्रतिशत अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि और उससे जुड़े उत्पाद हैं। अब अमरीका इस परिप्रेक्ष्य में भारत पर व्यापक दबाव बनाकर द्विपक्षीय बातचीत करने का दबाव बना रहा है। अमरीका चाहता है कृषि उत्पादों के लिए भारतीय बाज़ार तो खुले ही, उत्पादों पर शुल्क भी कम करे। यदि भारत कोई समझौता करता है तो ब्रिटेन और यूरोपीय संघ भी मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के लिए दबाव बनाएंगे। यूरोपीय संघ पनीर व अन्य दुग्ध उत्पादों पर शुल्क कटौती की इच्छा जता चुका है। अमरीका के वाणिज्य मंत्री हावर्ड लुटनिक और अमरीकी व्यापार प्रतिनिधि जेमीसन ग्रीर ने भारत के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल से बातचीत में इन मुद्दों को द्विपक्षीय वार्ता में शामिल करने की बात कही है, किंतु भारत के लिए कृषि में बाहरी दखल एक संवेदनशील मसला है, क्योंकि हमारे किसान विदेशी पूंजीपतियों से प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं हैं।
भारत में कृषि केवल आर्थिक गतिविधि नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने का एक सांस्कृतिक तरीका भी है जबकि अमरीका व यूरोपीय देश कृषि को मुनाफे का उद्योग मानते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 2024 में अमरीका का कृषि निर्यात 176 अरब डॉलर था, जो उसके कुल व्यापारिक निर्यात का लगभग 10 प्रतिशत हैं। बड़े पैमाने पर मशीनीकृत खेती और भारी सरकारी सब्सिडी के साथ अमरीका और अन्य विकसित देश भारत को अपने निर्यात का विस्तार करने के लिए आकर्षक बाज़ार के रूप में देखते हैं जबकि भारत अपने कृषि क्षेत्र को मध्यम से उच्च शुल्क की कल्याणकारी योजनाओं के द्वारा संरक्षित किए हुए है ताकि अपने किसानों को अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचाया जा सके। कृषि क्षेत्र को मुक्त बाज़ार बनाने का मतलब है कि आयात प्रतिबंधों और शुल्क को कम करना। कृषि को बाहरी सब्सिडी वाले विदेशी आयात के लिए खोलने का अर्थ होगा सस्ते खाद्य उत्पादों का भारत में आना, यह खुलापन भारतीय किसानों की आय और आजीविका को गंभीर रूप से प्रभावित करेगी।
ऐसा ही दबाव भारत पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने जेनेवा में 2022 में हुई बैठक में बनाया था। यहां तक कि अमरीका और अन्य यूरोपीय देशों ने भारतीय किसानों को दी जाने वाली कृषि अनुवृत्ति सब्सिडी का जबरदस्त विरोध किया था। ये देश चाहते हैं कि किसानों को जो सालाना छह हज़ार रुपये की आर्थिक मदद और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदनें की सुविधा दी जा रही है, भारत उसे तत्काल बंद करे। यही नहीं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश भर के 81 करोड़ लोगों को जो मुफ्त अनाज दिया जा रहा है, उस पर भी आपत्ति जताई थी। देश की करीब 67 फीसदी आबादी को मुफ्त अनाज मिलता है। इस कल्याणकारी योजना पर 1 लाख 40 हजार करोड़ रुपये का खर्च सब्सिडी के रूप में प्रति वर्ष होता है, परंतु भारत ने अपने किसान और गरीब आबादी के हितों से समझौता करने से साफ इंकार कर दिया था।
इसे डब्ल्यूटीओ के तय नियमों का खुला उल्लंघन करार दिया गया था, क्योंकि नियमानुसार अनाज के उत्पादन मूल्य पर 10 प्रतिशत से ज्यादा सब्सिडी नहीं दी जा सकती है जबकि भारत इससे कई गुना ज्यादा सब्सिडी देता है। दरअसल इन देशों का मानना है कि सब्सिडी की वजह से ही भारतीय किसान चावल और गेहूं का भरपूर उत्पादन करने में सक्षम हुए हैं। इसी का परिणाम है कि भारत गेहूं व चावल के निर्यात में अग्रणी देश बन गया है। बांग्लादेश, श्रीलंका, संयुक्त अरब अमीरात, इंडोनेशिया, फिलीपींस और नेपाल के अलावा 68 देश भारत से गेहूं आयात करते हैं। भारत दुनिया के कुल 150 देशों को चावल का निर्यात करता है। अमरीका को भारत की यह समृद्धि फूटी आंख नहीं सुहा रही है। किसी भी देश की प्रतिबद्धता विदेशी हितों से कहीं ज्यादा देश के किसान, गरीब व वंचित तबकों की खाद्य उत्पादन और सुरक्षा के प्रति ही होनी चाहिए।
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