संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की पाक को अध्यक्षता मिलना आश्चर्यजनक नहीं
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की पाकिस्तान को अध्यक्षता मिलना जहां कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है, क्योंकि यह अस्थाई होती है और इसकी मीयाद सिर्फ एक महीने ही होती है, भारत में कई लोगों को इससे निराशा हुई है। वैसे तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता मोटे तौर पर प्रतीकात्मक ही होती है और इसका कोई खास असर नहीं होता है। पाकिस्तान के यूएनएसी के अध्यक्ष बनने से भारत को तकनीकी रूप से किसी तरह की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि अध्यक्ष देश कोई फैसला अकेले नहीं ले सकता। मगर हां, राजनीतिक और कूटनीतिक रूप से वो कई गड़बड़ियां कर सकता है। जिसका उदाहरण सामने आ भी चुका है क्योंकि यूएनएससी में पाकिस्तान के राजदूत असीम इफ्तिखार अहमद ने कश्मीर मामले पर चर्चा भी शुरू कर दी, जबकि सबको पता है कि ये भारत और पाकिस्तान के बीच का मसला है। पाकिस्तान के पास एजेंडा कंट्रोल करने की पावर है। वो तय कर सकता है कि किस मुद्दे पर ज्यादा चर्चा हो और किस पर नहीं। ऐसे में भारत को उसकी एक माह की अध्यक्षता पर नज़र रखनी होगी। वैश्विक राजनीति में जहां कूटनीतिक स्तर पर भारत अलग-थलग पड़ता नज़र आ रहा है, वहीं इस मोर्चे पर पाकिस्तान की अहमियत बढ़ती नज़र आ रही है। ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद भारतीय प्रतिनिधियों के कूटनीतिक विश्व भ्रमण के दौरान तमाम देशों को यह समझाने के बावजूद कि पाकिस्तान आतंक का केंद्र और आतंकवादियों की शरणस्थली बना हुआ है, पाकिस्तान के चीन, रूस और अमरीका के साथ रिश्तों में हाल के महीनों के दौरान नाटकीय गर्मजोशी देखने को मिल रही है। अगर वोटिंग की बात करे तो वोटिंग में भी भारत के प्रति अन्य देशों का रूझान ठीक नही रहा।
बहरहाल ये भी हो सकता है कि अध्यक्ष बनने के बाद पाकिस्तान चाहे तो खुद को पीड़ित बता सकता है। इसके साथ ही वह सिंधु जल संधि पर भी अपना दुखड़ा रो सकता है कि भारत ने पानी बंद कर दिया है और जैसा कि ये दुनिया का बड़ा मंच है और उसे मौका मिला है तो वो अपना दुखड़ा पूरी दुनिया को पूरी ताकत से सुना सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि वो ऑपरेशन सिंदूर को लेकर भी उल्टे सीधे बयान दे लेकिन इससे भारत को कोई नहीं पड़ेगा। आतंकियों का पनाहगार और दुनिया के हर मंच पर कश्मीर का राग अलापने वाला पाकिस्तान एक जुलाई से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष बनाया गया है और एक महीने तक अध्यक्ष के तौर पर काम करेगा। पाकिस्तान इसी साल जनवरी में दो साल के लिए अस्थायी सदस्य चुना गया था, जिसे वोटिंग के दौरान 193 में से 182 वोट मिले थे। अब नए नवेले सदस्य बने पाकिस्तान को एक जुलाई से 31 जुलाई तक अध्यक्ष पद की भूमिका निभानी है और अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने के बाद उसके पास कई पॉवर्स होंगे। जैसे पाकिस्तान सुरक्षा परिषद की सभी औपचारिक और अनौपचारिक बैठकों की अध्यक्षता करेगा।
परिषद के एजेंडे को तय करने और प्राथमिकताओं को तय करने में खास भूमिका निभाएगा। अध्यक्ष परिषद द्वारा प्रेस स्टेटमेंट व सार्वजनिक घोषणाएं जारी करेगा और परिषद के सदस्यों के बीच संवाद और समन्वय तय करेगा, जिससे परिषद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले। इसके साथ ही अगर अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को तत्काल खतरा हो, तो अध्यक्ष देश आपातकालीन बैठक बुला सकता है। इसके साथ ही अध्यक्ष देश को परिषद की बैठकों की कार्यवाही को कंट्रोल करने, वक्ताओं को बुलाने और चर्चा को दिशा देने की शक्ति होती है। हालांकि संभावना तो नहीं है, लेकिन इस एक महीने की अध्यक्षता के दौरान पाकिस्तान कुछ खुराफात कर सकता है।
भारत में इस बात को लेकर चिंता है, जो सही भी है कि पाकिस्तान इस मौके का फायदा कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के लिए न कर ले और वैश्विक दक्षिण के नेता के रूप में भारत की स्थिति को कोई नुकसान न हो। ध्यान रहे कि ईरान, तुर्की और इस्लामिक देशों के संगठन-ओआईसी जैसे मध्यपूर्व के देशों के साथ भारत के रिश्ते कोई खास अच्छे नहीं हैं और आने वाले दिनों में इनमें कुछ और तनाव जैसी स्थितियां बन सकती हैं। वैसे भी जिस पर आतंकियों को पालने-पोसने और अलग-अलग देशों में अस्थिरता फैलाने की कोशिश जैसे गंभीर आरोप लगते हैं, बावजूद इसके वह इतना जिम्मेदार पद कैसे पा गया? पहलगाम में हमला हुआ। बाकी देशों ने पाकिस्तान का साथ दिया। लेकिन भारत का साथ किस देश ने दिया? हमारे पड़ोसी देश भी साथ देने नहीं आए। यूपीए सरकार के समय पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध थे। श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल से अच्छे संबंध थे। तब वे सहयोग करते थे लेकिन पहलगाम हमले के समय कोई समर्थन करने नहीं आया। इन प्रश्नों और अपनी विदेश नीति पर मोदी सरकार को विचार अवश्य करना चाहिए।