‘बदलते रथों के सारथी’

जो आदमी ज़िन्दगी में अपना एक भी केंचुल न बदल पाये, समझ लीजिये सफलता उसके कभी अंगसंग नहीं हो सकेगी। छक्कन ने हमें जीवन का सूत्र बताया था।  हम इससे कैसे सहमत होते? हमारा टूटा-फूटा ज्ञान तो यही कहता है कि बन्धु, सांप केंचुल बदलते हैं, यह आदमी के केंचुल बदलने की बात कैसे होने लगी? नहीं पता था कि दुनिया बदल गई है। पहले पेड़-पौधों से फूल-पत्तियों से प्यार करने की बात होती थी। सर जगदीश चन्द्र बसु ने तो कह भी दिया, कि पौधों में भी जीवन होता है। उन्हें अपने आत्मीय और स्वजनों की तरह पालना चाहिये।
लेकिन इस तेज़ी से बदलती हुई दुनिया में तरक्की की सड़क निकालनी है, तो उसके लिए पेड़-पौधों को अपना जीवन त्यागना ही होगा। अरे हमने तो दुर्गम पहाड़ों पर चौड़ी सड़कें बना दीं। चाहे उनके निर्माण के धमाकों ने न जाने कितनी हरीतिमा बर्बाद कर दी। पहाड़ रिसने लगे वहां घरों में दरारें पड़ गईं। लोग अब धार्मिक पर्यटन बचाने के लिए प्रभु कृपा का आसरा ढूंढने लगे। मानवकृपा के कारण तो पहाड़ भूकम्प पीड़ित होते हैं। मैदानी इलाकों में भी एक बार जन-मार्ग उखड़ते हैं तो उखड़ते ही चले जाते हैं। नई सड़क बनाने के नाम पर अब आजकल उनकी मुरम्मत को शुरू करने की घोषणा भी बैंड-बाजे से होती है। भ्रष्ट भाग्य नियंता मूछों पर ताव देते हैं। सड़क के मुरम्मत करने की तिथि घोषित हो जाती है, लेकिन पूरी होने के स्थान पर अधर में लटकी और बहुत-सी घोषित परियोजनाओं की तरह पूर्णता की तिथि बीच में लटकी रह जाती है। केवल यही पता चलता है कि फिलहाल इनके लागत अनुमान बढ़ गये हैं। काम पूरा न होने के कारण। 
अधूरी सड़कें, अध बीच रह गये फ्लाई ओवर, और काम पूरा न कर पाने के कारण भगौड़े हो गये ठेकेदार बस तरक्की के ये प्रमाण हैं, कि जिनकी विकास दर के आशावादी आंकड़ों का मुलम्मा आम आदमी के साथ-साथ चलता है। बताता है देश दुनिया की महा-शक्ति बन गया, और इस समय इनकी विकास दर दुनिया के बाहुबलियों से कहीं अधिक है?
जी हां, हरीतिमा नष्ट कर जीव-जन्तुओं से प्रेम करने की बात हो रही थी। बन्धु, यहां सांपनुमा आदमी ही केचुल नहीं बदलते, आंकड़े भी केंचुल बदल लेते हैं। आंकड़ा शास्त्री बताते हैं कि महामारी और निकट आर्थिक परिस्थितियों में भी दुनिया के खरब पतियों की संख्या घट गई, लेकिन भारत में खरब पतियों की संख्या सबसे अधिक बढ़ी है। यहां समर्थ के पास धन और सम्पदा अधिक एकत्र हो गई है, लेकिन किसी ने नहीं बताया कि इस देश का ़गरीब और ़गरीब, उसकी भूख और बेकारी और बढ़ गई है।
भ्रष्टाचार के ज़ीरो टालरैंस के नारों के बीच आज सत्तारूढ़ हो या सत्ताच्युत सबके नकाब के पीछे बहुत से चेहरे भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार सूचकांक में हमारी पायदान को फालिज मार गया है। यहां सब चलता है, आज के जन-जीवन का सूत्रवाक्य बन गया है। मध्यजनों की संस्कृति बल पकड़ कर सर्व-स्वीकार्य सच बन गई है। सुविधा केन्द्रों में अगर आपको उनके चोर दरवाज़े खोलने नहीं आते, तो वे इतने ही असुविधा केन्द्र बन गए हैं, जितने कि इनसे पहले के लालफीताशाह करिन्दे थे। लो, समय वे केंचुल बदली, तरक्की के नाम पर धन कुबेरों के लिए सब बन्द दरवाज़े खुलने लगे, और बेकारी की दर पर स्वरोज़गार का संदेश, और महंगाई के दर पर थोक और परचून कीमतों का विरोधाभास नज़र आने लगा। थोक सूचकांक बताता है, हम फिर शून्य से नीचे चले गये, और परचून सूचकांक रिज़र्व बैंक द्वारा बताई छ: प्रतिशत की दर से कहीं नीचे चला गया, लेकिन दूध, पनीर और अनाज की बढ़ती कीमतें क्यों कहती हैं, हमें हाथ न लगाओ? और हाथ लगाएं भी क्यों जब अस्सी करोड़ जनता को तो कौड़ियों के भाव रियायती अनाज मिल रहा है, और हर चुनावी एजेंडा बेकार और निठल्ले नौजवानों में बढ़-चढ़ कर रियायत की रेवड़ियां बांटने की घोषणा करता है।
यह केंचुल बदल लेने की संस्कृति अब किसी को चौंकाती नहीं। कभी नेता लोगों की सत्ता के लिए एक दल से दूसरे दल में कूदफांद ‘आया राम गया राम’ संस्कृति कहलाती थी। अब ऐसा पासा पलट लेना नये ज़माने का तेवर हो गया है। आज के नेता के काम जन-सेवा नहीं, लोगों के गलत या सही काम करवा देने की सामर्थ्य है। इसीलिए जब चुनावी संघर्ष में टिकट नहीं मिलती, तो नेता आराम से दल-बदल कर टिकट की सुविधा देने वाले दल में चले जाते हैं, और इसे राजनीति का जन्म सिद्ध अधिकार कह देते हैं। पलटूराम कहना आजकल कोई निंदा का शब्द नहीं रह गया, बल्कि उसे ज़माने के तेवर के साथ बदल जाने का गुण कहा जाता है। सरकार बन भी जाये, तो भी इसके सिपहसालार बाज़ी पलटने के लिए तैयारी में पाये जा सकते हैं। बदलाव के सभी फैसले उनके साथी सदस्यों के लिए पंचतारा होटलों में कमरे बुक करवा कर और चार्टर्ड प्लेनों की उड़ान बुक करवा के किये जाते हैं।
नई संस्कृति आजकल इसी हवा में तैरती है। कभी भी रुख बदल कर राजा को रंक और रंक को राजा बना सकती है। शार्टकट संस्कृति, अपनी हथेली पर सरसों जमा कर दिखा देना है। ये लोग आजकल सत्ता के सिद्धहस्त खिलाड़ी कहलाते हैं, उसके बाजीगर नहीं। यह दीगर बात है कि अपनी इस हथेली पर जमी सरसों को वे अपने लोगों में बांटने की उदारता दिखाने में कोई कमी नहीं करते, और उत्तर में जय-जयकार बटोरते हैं।