25 रुपये के वेतन पर रेडियों में नौकरी करते थे सुनील दत्त 

विख्यात अभिनेता, निर्माता-निर्देशक, राजनीतिज्ञ व समाज सेवी सुनील दत्त का जन्म बलराज दत्त के रूप में 6 जून 1929 को ब्रिटिश भारत में पंजाब राज्य के झेलम ज़िला स्थित खुर्दी नामक गांव में हुआ था। अब यह गांव पाकिस्तान में है। देश विभाजन के दौरान उनका परिवार बॉम्बे (अब मुंबई) में आकर बस गया था, जहां सुनील दत्त ने जय हिंद कॉलेज में प्रवेश लिया और चूंकि बंटवारे के कारण परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए वह साथ ही बेस्ट की बस में कंडक्टर की नौकरी भी करने लगे। उनकी आवाज़ अच्छी थी, जिसकी बिना पर उन्हें रेडियो सीलोन में 25 रुपये वेतन पर एनाउंसर की नौकरी मिल गई, जहां उनके दोस्त अमीन सयानी भी उनके साथ काम करते थे। बतौर एनाउंसर उन्हें बहुत लोकप्रियता मिली, जिससे उनके लिए फिल्मों में अभिनय करने के द्वार भी खुल गये। उनकी पहली फिल्म ‘रेलवे स्टेशन’ (1955) थी। बहरहाल, जब ‘मदर इंडिया’ (1957) में दिलीप कुमार ने नर्गिस के बेटे की भूमिका करने से इंकार कर दिया तो बिरजू की भूमिका सुनील दत्त के हिस्से में आ गई, जिससे वह न केवल स्टार बन गये बल्कि अमिताभ बच्चन के अनुसार हिंदी फिल्मों के पहले ‘एंग्री यंग मैन’ भी। ‘मदर इंडिया’ से सुनील दत्त के करियर व जीवन को नई दिशा मिली। इसी फिल्म के कारण उन्हें अपनी जीवन संगनी नर्गिस भी मिलीं।
दुनियाभर में शायद गिनती के ही फिल्मी अदाकार होंगे, जिनके बारे में यह यकीन से कहा जा सकता है कि उनके वास्तविक किरदार की झलक उनके द्वारा पर्दे पर अभिनीत कुछ चरित्रों में काफी हद तक दिखायी देती है। सुनील दत्त ऐसे ही महान् कलाकारों में से एक थे। वह एक अभिनेता और नेता के रूप में, खासकर जब वह सांसद चुने गये, हमेशा समाज सेवा व समाज सुधार कार्यक्रमों में सक्रिय रहे, जिससे जनता का उन्हें अपार प्रेम हासिल हुआ। देश विभाजन के दंगों में सुनील दत्त के परिवार की रक्षा याकूब नामक एक पारिवारिक मित्र ने की थी, शायद इसलिए उन्होंने कभी अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से समझौता नहीं किया और इसकी झलक उन्होंने अपनी फिल्म ‘मुझे जीने दो’ में भी दिखायी, जिसमें वह एक डाकू की भूमिका में थे, लेकिन इसके बावजूद धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं करते हैं बल्कि सभी धर्मों का सम्मान करते हैं। इसी तरह जब सुनील दत्त की पत्नी नर्गिस कैंसर पीड़ित हुईं और उन्हें इलाज के लिए अमरीका ले जाना पड़ा तो सुनील दत्त को एहसास हुआ कि भारत में कैंसर उपचार की उचित व्यवस्था नहीं है। इस समस्या को उजागर करने के लिए उन्होंने फिल्म ‘दर्द का रिश्ता’ (1982) बनायी और इससे पहले उन्होंने 1981 में नर्गिस दत्त कैंसर फाउंडेशन का गठन किया, जिसका मुख्यालय मुंबई में है और यह हेल्थकेयर, आपदा राहत, महिला सशक्तिकरण, शिक्षा व खेल के क्षेत्रों में काम करता है। 
गौरतलब है कि सुनील दत्त ने नर्गिस का अंतिम संस्कार मुस्लिम रीति से किया था, यानी शादी के बाद भी उन्होंने नर्गिस का धर्म परिवर्तन नहीं किया था। यह सांप्रदायिक सौहार्द की ज़बरदस्त मिसाल है कि अपने-अपने धर्मों पर रहते हुए भी दो व्यक्ति सफल व सुखी वैवाहिक जीवन व्यतीत कर सकते हैं। बहरहाल, इन सबसे बढ़कर भी एक अन्य बात है। नर्गिस एक तवाय़फ जद्दन बाई की बेटी थीं। सुनील दत्त का जन्म पंजाब प्रांत के नक्का खुर्द में (अब पाकिस्तान में) एक सम्मानित ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता रघुनाथ दत्त दीवान थे। इस सामाजिक अंतर के बावजूद सुनील दत्त ने न सिर्फ नर्गिस से शादी की बल्कि इस तरह एक समर्पित पारिवारिक जीवन व्यतीत किया कि विख्यात अभिनेत्री आशा पारिख सहित अनेक गुज़रे ज़माने की अदाकाराओं ने ऑन-रिकॉर्ड कहा है कि सुनील दत्त एक ऐसे आदर्श पति थे कि हर महिला ऐसे ही पति की तमन्ना करती है, जो हर स्थिति में अपनी पत्नी के साथ रक्षक व मित्र बनकर खड़े रहे। 
दिलचस्प यह है कि अपने इस रियल रूप का अक्स सुनील दत्त ने कम से कम अपनी छह फिल्मों में भी दिखाया है। इन फिल्मों में उन्होंने महिला उत्थान, सशक्तिकरण और समता के मुद्दों को बहुत ही खूबी व प्रभावी ढंग से उठाया। फिल्म ‘साधना’ (1958) में वैजयंती माला कोठे पर नाचने वाली एक तवाय़फ की भूमिका में थीं। सुनील दत्त एक आदर्शवादी प्रोफेसर की भूमिका में थे, जो अपनी बीमार मां की देखभाल के लिए वैजयंती माला को अपने घर ले आते हैं, अपनी पत्नी बनाकर। फिल्म के अंत में सुनील दत्त वैजयंती माला से ही शादी करने पर बल देते हैं, ताकि उन्हें एक सम्मानित जीवन मिल सके। लेकिन समाज को यह ज़िद है कि एक तवायफ को जीवन में सुधरने का दूसरा अवसर प्रदान नहीं किया जाना चाहिए। सुनील दत्त समाज की इस पितृसत्तात्मक वीभत्स प्रथा से सहमत नहीं हैं, वह इसे बदलना चाहते हैं। इस पृष्ठभूमि में साहिर लुधियानवी ने अपनी कालजयी नज़्म लिखी- ‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिए, जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।’ वैजयंती माला ने सुनील दत्त के साथ तीन फिल्में कीं और उनका कहना है, ‘वह वास्तव में जेंटलमैन और प्रगतिशील व्यक्ति व तार्किक कलाकार थे। उनका जो नर्गिस जी के साथ शानदार व्यवहार था, उसे देखकर भारत की हर महिला यह चाहती थी कि काश वह उसके पति होते।’ इसी संदर्भ में फिल्म ‘नर्तकी’ (1963), ‘दर्पण’ (1970), ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’ (1972), ‘चिऱाग’ (1969) और ‘सुजाता’ (1959) का भी ज़िक्र किया जा सकता है। 
बहरहाल, सुनील दत्त ने अपने आपको केवल फिल्मों तक सीमित नहीं रखा। 1987 में जब पंजाब आतंक का सामना कर रहा था, तो सुनील दत्त ने सद्भाव व भाईचारे के लिए मुंबई से स्वर्ण मंदिर (अमृतसर) तक 2000 किमी की महाशांति पदयात्रा की। उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर ‘अजंता आर्ट्स कल्चरल ट्रुप’ का गठन किया जिसके तहत फिल्म निर्माण के अतिरिक्त राष्ट्र व लोक कल्याण के कार्य निरंतर किये। 1981 में जब उनकी पत्नी का निधन हुआ तो उन्होंने ‘नर्गिस दत्त मेमोरियल कैंसर फाउंडेशन’ की स्थापना की और हर साल ‘नर्गिस अवार्ड’ देना भी शुरू किया। अब यह दोनों काम उनकी दो बेटियां व एक बेटा मिलकर करते हैं। मुंबई उत्तर पश्चिम से सुनील दत्त पांच बार कांग्रेस के टिकट पर सांसद चुने गये। मुंबई के शेरिफ रहे पद्मश्री (1968) सुनील दत्त का दिल का दौरा पड़ने से 25 मई 2005 को उनके पाली हिल बांद्रा स्थित बंगले पर निधन हो गया।

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