आस्था (क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

उन्होंने आपको पाल-पोसकर आपको सारी सुविधायें देकर यहाँ तक पहुँचने में आपकी सहायता तो की ही है न?’ शिवानी ने तर्क दिया।
‘जब उन्होंने मुझे पैदा किया था तो इतना तो उन्हें करना ही था।’ शिवानी आश्चर्य से उसकी बेतुकी बातें सुन रही थी, पर अब उसे कुछ आनन्द भी आने लगा था।
‘अच्छा अंकल! मैं कुछ पूछूँ?’ सौम्या फिर बोल पड़ी।
‘हाँ.हाँ बेटा अवश्य पूछो।’
सौम्या बेंच से उतर कर उसके सामने आ गई। उसने सामने आकर उस अजनबी व्यक्ति का हाथ पकड़ लिया और उसे उलट-पलटकर गौर से देखने लगी। तो वह व्यक्ति थोड़ा
अचकचाया। तभी सौम्या ने कहा, ‘अंकल  आपके हाथ तो बहुत नर्म हैं।’
‘तो?’ उसे और अधिक हैरानी हो रही थी। वह उलझने लगा था तभी सौम्या की आवाज़ सुनाई दी, ‘ये आपने कैसे बनाए अंकल’
‘बेटा, मैं अपने हाथ कैसे बना सकता हूँ? क्या तुम बना सकती हो अपने हाथ?’
‘मैं तो नहीं बना सकती। अच्छा! तो फिर ये आपकी आँखें तो जरूर आप ही ने बनाई होंगी न।’
‘यह कैसा सवाल है?’ वह कुनमुनाया।
‘यह नाक, कान और यह माथा?’ शिवानी अब मंद-मंद मुस्कुरा रही थी।
‘नहीं बेटाए यह कैसे हो सकता है? इन्सान अपना शरीर कैसे बना सकता है?’
‘तो आपका यह शरीर किसने बनाया? आप तो कह रहे थे कि आप जो कुछ हैं अपने आप बने हैं।‘
‘बेटा! यह... ये सब तो ...हर इन्सान का माँ के पेट में बनता है अपने आप।’
‘क्या आपकी माता जी ने बनाया है आपका यह शरीर?’ अबकी बार प्रश्न शिवानी ने किया था।
‘कैसे-कैसे प्रश्न करती हैं आप दोनों?’ वह हँसने लगा।
‘चलिए जैसा भी है, प्रश्न तो है ही। प्लीज़ बताइए ना। हम भी तो कुछ अपना ज्ञान बढ़ाएं। लखनऊ से कुछ नया लेकर जाएँ तो फिर आना अच्छा लगेगा।’
‘माँ के पेट में तो यह अपने आप बनता है, आप भी जानती हैं। पढ़ी-लिखी हैं।’
‘अपने आप तो कुछ भी नहीं होता। क्या अपने आप लिखा जाता रहा है प्रश्न पत्रों में?’ अब उस अजनबी के पास कोई उत्तर नहीं था।
‘सुबह से लेकर रात तक आप कुछ न कुछ तो करते ही रहते हैं। मत करिए न, अपने आप ही हो जाएगा गर्भ के बालक की तरह।’
‘पेट में तो... सचमुच भगवान...’  उसके मुख से अचानक ही निकला। फिर वह अपनी ही बात से बुरी तरह चौंक पड़ा। अब उस व्यक्ति ने घुटनों के बल बैठकर सौम्या के दोनों हाथ पकड़ लिए। फिर वह तुरन्त ही एक झटके से उठ खड़ा हुआ, ‘अपना टिकट तो दिखाइए बहन। मैं शायद कुछ कर सकूँ।’ उसने शिवानी से कहा।
शिवानी ने टिकट पर्स में से निकालकर उसे दिखाया तो वह टिकट लेकर लगभग दौड़ता हुआ एक कमरे में घुस गया। अब शिवानी सचमुच घबरा गई थी। गाड़ी दस मिनट और लेट हो गई थी पर यह आदमी उसका टिकट लेकर गया कहाँ? यदि वह नहीं आया तो? दोनों मां-बेटी उसी कमरे की तरफ देख रही थीं जिसके भीतर वह आदमी गया था। तभी वह कमरे से बाहर निकला, वह मुस्कुरा रहा था।
उसने टिकट शिवानी के हाथ में देते हुए कहा, ‘लीजिए, आपका टिकट कन्फर्म हो गया। आप ने पूछा नहीं पर मुझे बताना तो चाहिए। मैं रेलवे में यहीं पर कार्यरत हूँ। अपने रेलवे स्टाफ  के रिजर्व कोटे से मैंने यह टिकट कन्फर्म किया है। पता नहीं क्यों मैं आपसे उलझ गया। असल में मुझे आपकी बिटिया बहुत अच्छी लगी और मैं इधर आ गया। आम तौर पर मैं किसी से इस तरह बहस नहीं करता। आज काम कुछ ज्यादा था नहीं और आज कोई साथी भी कमरे में नहीं है। मैं यूँ ही अन्दर बैठे बोर हो रहा था। देर से प्लेटफार्म पर घूमते हुए यहाँ आ गया और फिर आपके पास बैठने का मन किया तो यहाँ बैठ गया।’ फिर वह सौम्या की ओर घूम गया उसे गोद में उठाकर बोला, ‘अब आप हमें अपना नाम तो बता दीजिए गुड़िया रानी। पल भर में आपने हमारी विचारधारा ही बदल दी।’
‘सौम्या!’ उसने गोद से उतरने का प्रयास किया तो उसने सौम्या को नीचे उतार दिया। न तो उसने शिवानी से कुछ और पूछा और न ही शिवानी ने कुछ कहा। दोनों ही मौन थे। फिर वह कहने लगा, ‘आप यहीं रुकिएगा। एस थ्री में आपकी सीट है और वह कम्पार्टमेंट यहीं लगता है। मैं अभी आता हूँ।’ वह प्लेटफार्म पर एक तरफ को चला गया और थोड़ी ही देर बाद लौट आया और बोला, ‘अब हम आपको ट्रेन में बैठाकर ही जायेंगे।’ अब तक गाड़ी आने का संकेत भी हो चुका था। उस अजनबी ने एक हाथ से शिवानी का अटैची और दूसरे हाथ से सौम्या को पकड़ लिया।
‘एक बात पूछूँ?’ वह शिवानी की ओर मुड़ा।
‘पूछिए न!’
‘आप कह रहीं थीं, ईश्वर जो करता है...भले के लिए करता है।’ शिवानी हँस पड़ी।
‘तो...?’
‘...तो यह कि उसने ही आप को भेजा हमारे पास। मैं उस समय बिल्कुल नहीं चाहती थी कि आप यहाँ हमारे पास बैठें। पर यह ईश्वर की इच्छा ही तो थी न।’
‘चलिए मान लिया, पर इसमें भले वाली बात कहाँ से आ गई? क्या भला हुआ और किसका...?’
‘क्यों नहीं हुआ भला? आपके साथ बात करने से आपका दृष्टिकोण बदला?’
‘हाँ...वो तो है। माँ भी हमेशा यही कहती है जो आप दोनों ने कहा, पर मैं मानता ही नहीं था। आज घर लौटकर सबसे पहले उससे क्षमा मागूँगा। और...?’
‘और यह कि यदि आप यहाँ न आते तो हमें रात के सफर में कितनी परेशानी होती। आप आए, हमारी बहस हुई और हमें रिजर्वेशन की सुविधा मिल गई। आपने देखा भाई साहब, ईश्वर जो करता है भले के लिए ही करता है।’
‘मानना पड़ेगा। चलिए गाड़ी आ गई है। आप लोगों को बैठा दिया जाए।’
गाड़ी स्टेश्न पर लग चुकी थी। शिवानी ने सीट सँभाल कर उस अनजान व्यक्ति को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘आपका नाम जान सकती हूँ। मेरा नाम शिवानी है।’
‘क्या करेंगी जानकर। बस भटका हुआ मुसाफिर समझिए जिसे आपने रास्ता दिखा दिया। फिर उसने पैंट की जेब से चॉकलेट निकालकर सौम्या के हाथ पर रखी और हाथ जोड़कर नीचे उतर गया। गाड़ी व्हिसल दे चुकी थी।   (समाप्त)