जल आतंक से होती भरी तबाही 

केरल से लेकर राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर सहित देश के उत्तरी राज्यों में हाल के दिनों में भारी बारिश के कारण जल आतंक जैसा नज़ारा दिखा। देश की राजधानी दिल्ली के ही कई इलाके कई दिनों में बाढ़ में डूबे रहे। अभी भी कई जगहों पर स्थिति काफी खराब है। कहीं उफनती नदियों में कारें बह रही हैं, सड़कें सैलाब में समा रही हैं, मंदिर डूब रहे हैं, तो कहीं बारिश के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त हो रहे हैं। दिल्ली में तो इस साल बारिश का 41 वर्षों का रिकॉर्ड टूट गया। 9 जुलाई को सुबह साढ़े आठ बजे तक ही दिल्ली में 24 घंटे में 153 मिमी बारिश दर्ज की गई, जो 1982 के बाद जुलाई में एक दिन में हुई सबसे ज्यादा बारिश थी। 1982 के बाद से जुलाई महीने में किसी एक दिन में दिल्ली में सर्वाधिक 153 मिमी बारिश हुई। उससे पहले 25 जुलाई 1982 को 169.9 मिमी बारिश दर्ज की गई थी जबकि 2003 में 24 घंटे में 133.4 मिमी, 2013 में दिल्ली में एक दिन में 123.4 मिमी बारिश हुई थी और 21 जुलाई 1958 को 266.2 मिमी बारिश हुई थी। भारी बारिश से जगह-जगह तबाही की भयानक तस्वीरें सामने आ रही हैं, भूस्खलन से पहाड़ी राज्यों में कई रास्ते बंद हैं। बारिश के कारण जम्मू-कश्मीर के पुंछ में सेना के दो जवान पोशाना नदी पार करते हुए डूब गए।
हालांकि मौसम विभाग के अनुसार अब तक देश में जितनी बारिश हुई है, वह सामान्य से करीब एक प्रतिशत कम है। जहां दक्षिण भारत में सामान्य से 23 प्रतिशत और पूर्वी तथा पूर्वोत्तर भारत में सामान्य से 16 प्रतिशत कम बारिश हुई है, वहीं मध्य भारत में सामान्य से 2 प्रतिशत ज्यादा और उत्तर भारत में तो सामान्य से 45 प्रतिशत ज्यादा बारिश हो चुकी है, जिसमें इन तमाम राज्यों का सिस्टम बह गया है और जगह-जगह जल प्रलय के तांडव में प्रकृति द्वारा तबाही की नई कहानी लिखी जा रही है। कहीं तेज़ बारिश, कहीं भू-स्खलन तो कहीं बादल फटने की घटनाएं स्थिति को और विकराल बना रही हैं। हालात ऐसे हैं कि भारत के कई इलाकों में जल आतंक का नजारा है। मानसून के दौरान अब हर साल देशभर में इसी तरह के हालात देखे जाने लगे हैं लेकिन विडम्बना यही है कि हम हर साल उत्पन्न होने वाली ऐसी परिस्थितियों को ‘प्राकृतिक आपदा’ के नाम का चोला पहनाकर ऐसे ‘जल प्रलय’ के लिए केवल प्रकृति को ही कोसते हैं लेकिन कड़वी सच्चाई यही है कि मानसून गुजर जाने के बाद भी पूरे साल हम ऐसे प्रबंध नहीं करते, जिससे आगामी वर्ष भारी बारिश से होने वाले नुकसान और परेशानियों को न्यूनतम किया जा सके। आपदा प्रबंधन कार्यों के लिए देश में धन की कोई बड़ी समस्या नहीं है लेकिन यदि फिर भी बारिश हर साल देश में कहर बरपाती हैं तो इसका सीधा सा अर्थ है कि आपदाओं से निपटने के नाम पर दीर्घकालीन रणनीतियां नहीं बनाई जाती। कई बार देखा जाता रहा है कि प्राकृतिक आपदाओं के लिए स्वीकृत फंड का इस्तेमाल राज्य सरकारों द्वारा दूसरे मदों में किया जाता है।
हालांकि बारिश प्रकृति की ऐसी नेमत है, जो लंबे समय के लिए धरती की प्यास बुझाती है, इसलिए होना तो यह चाहिए कि मानूसन के दौरान बहते पानी के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए जाएं ताकि संरक्षित और संग्रहीत यही वर्षा जल मानूसन गुजर जाने के बाद देशभर में पेयजल की कमी की पूर्ति कर सके और इससे आसानी से लोगों की प्यास बुझाई जा सके। ऐसे में गंभीर सवाल यही है कि प्रकृति की यही नेमत हर साल इस कदर आफत बनकर क्यों सामने आती है? यदि हम अपने आस-पास नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि मानूसन से पहले स्थानीय निकाय तेज बारिश होने पर बाढ़ के संभावित खतरों से निपटने को लेकर कभी मुस्तैद नहीं रहते, हर जगह नाले गंदगी से भरे पड़े रहते हैं, उनकी साफ-सफाई को लेकर कोई सक्रियता नहीं दिखती। विकास कार्यों के नाम पर सालभर जगह-जगह सड़कें खोद दी जाती हैं लेकिन मानसून से पहले उनकी मरम्मत नहीं होती और अक्सर ये टूटी सड़कें मानूसन के दौरान बड़े हादसों और अस्त-व्यस्त जीवन का कारण बनती हैं। प्रशासन तभी हरकत में आता है, जब कोई बड़ा हादसा हो जाता है।
चिंतनीय स्थिति यह है कि अब साल-दर-साल थोड़ी तेज़ बारिश होते ही पहाड़ों से लेकर मैदानों तक हर कहीं बाढ़ जैसे हालात नज़र आने लगते हैं, तो इसे ईश्वरीय प्रकोप या दैवीय आपदा की संज्ञा हरगिज नहीं दी सकती क्योंकि यह सब प्रकृति के साथ बड़े पैमाने पर की जा रही छेड़छाड़ का ही दुष्परिणाम है, जो हम हर साल कभी सूखे तो कभी बाढ़ के रूप में भुगतने को विवश हो रहे हैं। एक ओर जहां अब कुछ राज्य सामान्य वर्षा के लिए भी तरसते नज़र आते हैं, तो कहीं कुछ घंटों में ही इतना पानी बरस जाता है कि सबकुछ पानी में डूबा नज़र आता है। औसत से ज्यादा बारिश होना भी कोई ईश्वरीय प्रकोप नहीं है बल्कि यह पृथ्वी के बढ़ते तापमान अर्थात् जलवायु संकट का ही दुष्परिणाम है। अब यदि पर्वतीय इलाकों में भी हर साल बाढ़ या भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं विकराल रूप में सामने आने लगी हैं तो इसके कारणों की समीक्षा भी ज़रूरी है। मोटे तौर पर देखें तो हमने पर्यटन लाभ के लालच में पहाड़ों की सूरत और सीरत बिगाढ़ दी है। जंगलों का सफाया कर पहाड़ों पर बनते आलीशान होटलों और बहुमंजिला इमारतों के बोझ तले पहाड़ दबे जा रहे हैं और पहाड़ों पर बढ़ते इसी बोझ का नतीजा है कि वहां बारिश से भारी तबाही और भू-स्खलन का सिलसिला बहुत तेजी से बड़ रहा है लेकिन इसका सारा दोष हम प्रकृति के माथे पर मड़कर स्वयं की कमियां खोजने का प्रयास ही नहीं करते।
प्रकृति ने बारिश को समुद्रों तक पहुंचाने का जो रास्ता तैयार किया था, विकास के नाम पर या निजी स्वार्थों के चलते हमने उन रास्तों को ही अवरूद्ध कर दिया है। नदी-नाले बारिश के पानी को अपने भीतर सहेजकर शेष पानी को आसानी से समुद्रों तक पहुंचा देते थे, किन्तु नदी-नालों को ही हमने मिट्टी और गंदगी से भर दिया है, जिससे उनकी पानी सहेजने की क्षमता बहुत कम रह गई है, बहुत सारी जगहों पर नदियों के इन्हीं डूब क्षेत्रों को आलीशान इमारतों या संरचनाओं के तब्दील कर दिया गया है, जिससे नदी क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं। ऐसे में नदियों में भला बारिश का कितना पानी समाएगा और नदियों से जो अतिरिक्त पानी आसानी से अपने रास्ते समुद्रों में समा जाता था, उन रास्तों को भी अवरूद्ध कर देने के चलते बारिश का यही अतिरिक्त पानी आखिर कहां जाएगा? सीधा सा अर्थ है कि जरा सी ज्यादा बारिश होते ही यही पानी जगह-जगह बाढ़ का रूप लेकर तबाही ही मचाएगा। बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के चलते ही इस प्रकार की पारिस्थितिकीय त्रासदियां पैदा हो रही हैं।
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