खतरे में है दुनिया की कई नदियों का अस्तित्व

 

मानव सभ्यता के लिए नदियों को वरदान माना गया है क्योंकि यदि धरती पर नदियां नहीं होती तो जीवन भी नहीं होता। भारत में प्राचीन काल से ही नदियों को बहुत सम्मान दिया जाता रहा है। गंगा हो या सरस्वती अथवा यमुना हो या अन्य नदियां, हमारी भारतीय संस्कृति में नदियों को मां कहकर पुकारा जाता है। दरअसल धरती यदि हमारी मां है तो नदियां इसी धरती मां की नसें हैं और धरती पर यदि नदियां सुरक्षित हैं, तभी जीवन भी सुरक्षित है। जीवनदायिनी नदियां केवल जल मार्ग ही नहीं हैं बल्कि बारिश के पानी को सहेजकर धरती की नमी को भी बनाए रखती हैं। दुनिया में हर कोई चाहता है कि नदियां विश्वभर में लोगों के लिए मुक्त रहें और हमारा पोषण करने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकें ताकि हम आनंदपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकें लेकिन इसके लिए अनिवार्य है कि नदियां न सिर्फ हर तरह के बंधनों से मुक्त हों बल्कि प्रदूषण रहित भी हों और कॉरपोरेट नियंत्रण से भी आज़ाद हों। नदियों को बड़े पैमाने पर प्रदूषित करने में कॉरपोरेट का बड़ा योगदान रहता है, अवैध खनन ने भी कई जगहों पर नदियों की सूरत बिगाड़ दी है। हालांकि लगभग सभी देशों में उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषित जल और विषैले पदार्थों के निपटान के लिए कानून बने हैं किन्तु इन कानूनों पर सख्ती से अमल नहीं होने के कारण नदियों को प्रदूषित होने से बचाना मुश्किल हो गया है। नियम-कानूनों को ताक पर रखने और नदियों के उद्धार के लिए योजनाएं फाइलों तक ही सीमित रहने के कारण कुछ स्थानों पर तो नदियों का पानी हाथ लगाने लायक भी नहीं दिखता जबकि कुछ जगहों पर तो नदियां गंदे नालों में तब्दील होती नज़र आती हैं। यही कारण है कि नदियों के संरक्षण के लिए अब दुनियाभर में वैश्विक प्रयास हो रहे हैं।
इंगलैंड की यॉर्क यूनिवर्सिटी के शोधकर्त्ताओं द्वारा कुछ समय पहले नदियों में मनुष्य द्वारा उपयोग की जाने वाली रासायनिक दवाओं, कीटनाशकों इत्यादि से होने वाले प्रदूषण का पता लगाने के लिए दुनियाभर के 104 देशों की 258 नदियों पर व्यापक शोध किया गया था। 86 संस्थानों के 127 वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस शोध में अन्य देशों के अलावा भारत की नदियों में भी दवा से जुड़े तत्वों का स्तर काफी ज्यादा मिला। अमरीका की ‘प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज’ द्वारा प्रकाशित इस शोध रिपोर्ट के अनुसार पैरासिटामोल, निकोटिन, कैफीन के अलावा मिर्गी, मधुमेह इत्यादि की दवाएं भी नदियों के जल के लिए खतरा बनती जा रही हैं, जिनके अंश लापरवाही से नदियों के हवाले किए जा रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान के लाहौर, बोलिविया के ला पाज तथा इथियोपिया के आदिस अबाबा में नदियों के जल स्तर में एक्टिव फार्मास्यूटिकल्स इन्ग्रेडिएंट्स (ए.पी.आई.) का स्तर बहुत ज्यादा पाया गया। ब्रिटेन, स्कॉटलैंड के ग्लासगो तथा अमरीका के डलास में ए.पी.आई. का स्तर करीब बीस प्रतिशत पाया गया। नदी में सभी प्रकार की दवाओं के एपीआई का मिश्रण सर्वाधिक पाए जाने वाले स्थानों में स्पेन का मैड्रिड भी शीर्ष 10 स्थानों में शामिल है। लाहौर की नदियों में दवाओं की मात्रा सर्वाधिक 70700, दिल्ली में 46700 और लंदन में 3080 नैनोग्राम प्रति लीटर पाई गई। मजबूरीवश नदियों का जहरीला पानी पीने के कारण दुनियाभर में लाखों-करोड़ों लोग कैंसर तथा कई अन्य गंभीर बीमारियों के शिकार हो रहे हैं और अनेक लोग इसी कारण मौत के मुंह में भी समा जाते हैं।
प्लास्टिक कचरा भी नदियों को प्रदूषित करने का बहुत बड़ा कारण बन रहा है। एक अध्ययन के अनुसार दुनियाभर में बीस ऐसी नदियां हैं, जिनके जरिये बहुत बड़ी मात्रा में प्लास्टिक महासागरों में समा जाता है। इन नदियों में चीन की 6, इंडोनेशिया की 4, नाइजीरिया की 3 तथा भारत, ब्राजील, फिलीपींस, म्यांमार, थाईलैंड, कोलंबिया और ताइवान की एक-एक नदी शामिल हैं। महासागरों में प्लास्टिक उ?ेलने वाली नदियों में शीर्ष स्थान पर चीन की यांग्तजे नदी है, जिससे प्रतिवर्ष 3.33 लाख टन प्लास्टिक महासागरों तक पहुंचता है। दूसरे नंबर पर गंगा नदी है, जिससे 1.15 लाख टन प्लास्टिक महासागरों में जाता है। तीसरे स्थान पर चीन की क्सी नदी, चौथे पर चीन की हुंग्पू नदी तथा पांचवे पर नाइजीरिया तथा कैमरून में बहने वाली क्रॉस नदी है। करीब तीन साल पहले नेशनल जियोग्राफिक के सौजन्य से 18 सदस्यीय महिला वैज्ञानिकों के एक दल ने गंगा नदी में प्लास्टिक प्रदूषण के स्तर का विस्तृत अध्ययन करने के लिए गंगा नदी के आरंभ से अंत तक की यात्रा की थी और पाया था कि भारत की सबसे बड़ी गंगा नदी सर्वाधिक पूजनीय होने के साथ ही सबसे ज्यादा प्रदूषित भी है। गंगा नदी विश्व की उन 10 नदियों में शामिल है, जिनसे महासागरों में पहुंचने वाले कुल प्लास्टिक का 90 प्रतिशत हिस्सा जाता है।
हालांकि कुछ समय पहले बिहार तथा उत्तराखंड राज्य में गंगा नदी में प्रदूषण का स्तर कुछ कम होने का दावा किया गया था। बताया गया था कि जैविक ऑक्सीजन मांग (बी.ओ.डी.) में कमी आने के कारण गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। बी.ओ.डी. पानी की गुणवत्ता तय करने का महत्वपूर्ण मानक है, जिसका अभिप्राय जैविक जंतुओं द्वारा ऑक्सीजन के उपभोग से है। स्वच्छ गंगा के राष्ट्रीय मिशन के महानिदेशक जी अशोक कुमार के मुताबिक वर्ष 2015 के मुकाबले 2021 में गंगा के पानी की गुणवत्ता की तुलना करने पर उत्तराखंड में हरिद्वार से सुल्तानपुर तथा बिहार में बक्सर से भागलपुर तक गंगाजल में बी.ओ.डी. का स्तर तीन मिलीग्राम प्रति लीटर रहा, जो अप्रदूषित की श्रेणी में आता है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के कन्नौज से वाराणसी के बीच तथा पश्चिम बंगाल में त्रिवेणी से डायमंड हार्बर के बीच प्रदूषण का स्तर 1.3 से 4.3 मिलीग्राम प्रति लीटर रहा। न्यूनतम श्रेणी में बी.ओ.डी. का स्तर प्रति लीटर तीन से छह मिलीग्राम तक होता है। निम्न मूल्य होने का अभिप्राय पानी की बेहतर गुणवत्ता से है जबकि बी.ओ.डी. का स्तर छह मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक होने पर पानी को प्रदूषित माना जाता है, जिसके बाद उपचारात्मक कार्रवाई की ज़रूरत होती है। वैसे तमाम प्रयासों के बावजूद कई स्थानों पर गंगा की हालत आज भी दयनीय है और देशभर में जिस प्रकार विभिन्न नदियों की हत्या की जा रही है, ऐसे में यदि शीघ्र ही ठोस उपाय नहीं किए गए तो कई नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। हमें भली-भांति समझ लेना होगा कि नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए केवल भारी भरकम बजट आवंटित कर पानी की तरह पैसा बहाने से ही लक्ष्य हासिल नहीं होगा बल्कि गंगा सहित तमाम नदियों की दशा सुधारने के लिए गंभीर प्रयासों के साथ जन चेतना जागृत करने की सख्त ज़रूरत है।


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