..जाने चले जाते हैं कहां!

 

छेदी लाल जी उस दिन आए, तो जैसे बड़ी ़गमगीन मुद्रा में थे। छूटते ही बोले—एक बात पूछें बाबू जी! और बिना हमारी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किये बोले—सुना है, कि अपने देश में हर साल 3-4 लाख महिलाएं और इतने ही बच्चे-बच्चियां गायब हो जाते हैं...यानि लापता हो जाते हैं, या करवा दिये जाते हैं।
—ठीक सुना है आपने मियां! हमने उनकी वेदना को समझने जैसे अन्दाज़ में कहा।
—लेकिन भैया जी! नारी को गंगा और बच्चियों को कन्या-देवी की भांति पूजने वाले इस देश की ये गंगाएं और झरने आखिर चले कहा जाते हैं। छेदी लाल जी के शब्दों में नि:संदेह वेदना थी। पीड़ा भी थी।
—यह व्यापार है, कारोबार है मियां, गो यह कारोबार बड़ा घृणित है...पाप जैसा, धत्-कर्म जैसा, किन्तु करने वाले करते हैं, और इससे पैसा भी कमाते हैं। हमने उनकी हां में हां मिलाते हुए कहा—जैसे व्यापारी वस्तुओं का भंडार करके फिर उनकी कालाबाज़ारी करते हैं और फिर आम लोगों को लूट-पीट कर अपनी तिजोरियां भरते हैं, वैसे ही कुछ काला-बाज़ारी कारोबारी इन औरतों और बच्चों की खरीद-ओ-फरोख़्त का कारोबार करते हैं। बिल्कुल हमने बात को खत्म करके उनकी ओर देखा था। 
वैसे ही जैसे आजकल टमाटर की कालाबाज़ारी हो रही है... या कभी-कभी पहले चीनी, घी और प्याज़ की भी कालाबाज़ारी हुआ करती थी। 
—यह व्यापार और कारोबार का नियम है छेदी लाल जी! जिस चीज़ की बाज़ार में बहुतायत होती है, उसके दाम स्वत: कम हुआ करते हैं, किन्तु जिस शैअ की कमी होने लगती है, उसके दाम आकाश छूने लगते हैं...जैसे कुछ बड़े टमाटर का भंडार करके इसे बाज़ार से गायब कर दिया, और अब वही इसे मुंह-मांगे दामों पर बेच रहे हैं।
—ठीक है, किन्तु मुद्दा यह भी है कि यह टमाटर आखिर गया कहां! बाज़ार में बेशक टमाटर महंगा बिके हैं, किन्तु इसकी कमी का संकट भी तो है न भैया!
छेदी लाल जी ने अपनी उत्सुकता व्यक्त की थी।
—बड़े घाघ होते हैं ये कारोबारी लोग छेदी लाल जी,...किसी को भी बख्शते नहीं हैं। पैसा कमाने और गरीबों की झोंपड़ियों की कीमत पर अपनी अट्टालिकाएं खड़ी करने वालों की गरज़ सिर्फ अपने व्यापार तक होती है। हमने अपना ज्ञान बघारना चाहा था।
—हम तो भैया, इस बात को लेकर घर से भी परेशान, और बाहर से भी दुखी हुए जा रहे हैं। अभी हमारी ब़ेगम साहिबा ने आज बड़ी सुबह-सवेरे हमारी उम्र का सबसे बड़ा ताअना दे मारा, कि सारी उम्र आप लाल बुझक्कड़ ही बने रहोगे, किन्तु एक वो हैं जो टमाटर बेच-बेच कर दो ही महीने में पहले लखपति और फिर करोड़पति हो गये।
—उन्होंने वो ़खबर पढ़ ली होगी न मियां! अखबारों में छपी है। हमने उनकी बात को बीच में काटते हुए कहना चाहा था।
—कहां जी। उनके लिए तो काला अक्षर हमारे तबेले की भैंस के बराबरवा है... वो तो, वो है न हमारे पड़ोसवा की बी जमालो! उसकी बहू सुना है, पढ़ी-लिखी है। वो अपनी सासुवा को सुनाती है, और जो वही ससुरी हमारी ब़ेगमवा के कान भर-भर जाती है। छेदी लाल जी के चेहरे पर मुस्कराहट अब अपने आप तिरोहित हुई जाती दिखाई देने लगी थी...सावन-भादों की एक टुकड़ी बदरिया कै जेसी।
हम अभी किसी नई बात का सिर ढूंढने की कोशिश ही कर रहे थे, कि मियां छेदी लाल जी एकाएक बोले—भैया, चार पैसे अपने पास भी हैं, और चार-छह पैसे अपनी ब़ेगम के बटुये में भी हैं। हमने सोचा है, कि क्यों न हम भी कोई छोटा-मोटा कारोबार कर लें। किसी भी शैअ का भंडार करेंगे,...चाहे टमाटरवा का ही सही, और फिर उसे महंगे दामों बेच देंगे। छेदी लाल जैसे उत्साह से कुप्पा हुए जा रहे थे।
—यह मुंह और मसूर की दाल। हमने भी थोड़ा दिल-लगी करनी चाही थी—मियां छेदी लाल जी! ये जो कारोबारी होते हैं न...व्यापारी लोग। इनका रक्त ही भिन्न होता है। आप जैसे शाकाहारी साहित्यकार ...आप शब्दों के मोती तो कहीं से भी ढूंढ के ला सकते हैं, आप इन मोतियों की माला भी गूंथ सकते हैं, किन्तु आप दो दूनी पांच कभी नहीं बना सकते। हम अभी और बोलने के मूड में थे, कि मियां छेदी लाल जी बोले—अमा छोड़ो जी, आपने तो पहले ही झटके में दिल ही तोड़ दिया है।
छेदी लाल जी उठ खड़े हुए थे। फिल बोले—अच्छा यह बताइये, कि टमाटरवा का रंग लाल ही क्यों हुआ? हमारा मन कहता है, कि अगर टमाटर का रंग लाल नहीं हुआ होता, तो शायद यह लापता भी न हुआ होता, क्योंकि लाल रंग की नियति में यही बदा होता शायद... लाल झंडे को कभी बड़ा-बड़ा लाल सलाम मिला करता था। लाल झंडा गुम हुआ, तो लाल सलाम भी लापता हो गया। एक खास मार्का वाली लाल रंग की शराब का क्या जलवा होता था कभी किन्तु उसका रंग क्या बदला, कि उसकी सुर्ख-लाल गुलाब वाली हया भी गायब हो गई।
छेदी लाल जी अब चलने को उद्यत हो रहे थे। चलते-चलते बोले—भैया, आखिर ये लापता हो जाने वाले चले कहां जाते हैं। पता लगे, तो हमें भी बताइयेगा।
कह कर छेदी लाल जी उधर को मुड़ गये, और हम इधर को चल पड़े, मानो लौट के फिर अपने घर को आ गये।