अब दुर्लभ हो चला है बारिश में नाचते हुए मोर देखना

 

शहरों में पैदा होने वाली नौजवान पीढ़ी में ज्यादातर ने मोर के खूबसूरत नृत्य की बात किताबों में ही पढ़ी है। उन्होंने किताबों से ही जाना है कि बारिश के मौसम में कुदरत इस सबसे खूबसूरत पक्षी का अद्भुत रूप से श्रृंगार करती है, उसके पुच्छल पंख इन दिनों बढ़ जाते हैं, ज्यादा हो जाते हैं और खूब चमकदार हो जाते हैं। कंठ बेहद सुरीला हो जाता है बाकी ऋतुओं में उसके कंठ से निकली आवाज 100 मीटर तक नहीं जाती तो बारिश के दिनों में उसके कंठ से ऐसी रिसमिसी लहराती हुई आवाज निकलती है, जो कई किलोमीटर तक गूंजती रहती है। इसीलिए बारिश के दिनों में मोर झूमकर नाचता है।  हमारी संस्कृति में मोर का एक धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष भी है इसे भगवान विष्णु का और माता लक्ष्मी का प्रिय पक्षी माना जाता है और मान्यता है कि सावन के महीने में मोर का दर्शन करने से बहुत पुण्य होता है। वैसे भी हिंदू धर्म के 10 सबसे पवित्र पक्षियों में दूसरे नंबर पर मोर आता है, क्योंकि यह शिव पुत्र कार्तिकेय का वाहन है। भगवान कृष्ण के मुकुट में अगर मोर का पंख न लगा हो तो उसकी कोई शोभा नहीं है और मोर भारत का राष्ट्रीय पक्षी भी है। इसी दो प्रमुख जातियां होती हैं। नीला मोर या कहें भारतीय मोर जिसका वैज्ञानिक नाम पैवो क्रिस्टैटस है। यह भारत और श्रीलंका में पाया जाता है, जबकि जावा और म्यांमार में पैवो यूटिकल्स यानी हरा मोर पाया जाता है। हिंदू धर्म में मोर को मारकर खाना महापाप समझा जाता है, इसलिए मोर का शिकार आजादी के बाद से गैरकानूनी कर दिया गया। 
हालांकि चोरी छुपे लोग मोर का शिकार उसका गोश्त खाने के लिए नहीं बल्कि उसका मांस, हड्डियां आदि विभिन्न औषधीय दवाओं के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। खासकर हर तरह के पशुओं को खाने वाले चीन में तस्करी में मोरों की भी बहुत मांग है, क्योंकि मोर के मांस से वह दूसरे कई और पशुओं के मांस की तरह यौन उत्तेजना हासिल करने का जरिया मानते हैं। भारत में मानसून सिर्फ एक प्राकृतिक घटना नहीं एक ऋतुजनित समारोह है, लगता है जिसकी पूरी तैयारी कुदरत द्वारा की जाती है। इसलिए भारत में न सिर्फ हर साल निश्चित महीनों में बारिश होती है बल्कि बारिश के दिनों के आते ही ़िफजा के सारे रंग बदल जाते हैं। मौसम सुहावना हो जाता है, हवा में हल्की ठंडक बढ़ जाती है, ऐसे में जब काली घटाएं घिर आती हैं तो मोर खुश होकर खूब जोर-जोर से गाने और नाचने लगता है। बारिश के दिनों में मोर की आवाज़ में खास लय होती है और वह बहुत दूर तक लहराते हुए प्रतिध्वनि बनाती है। शायद इसकी वजह यह है कि भारतीय पारिस्थितिकी में दूसरे तमाम जीवों की तरह मोर भी बारिश के दिनों में प्रणय करता है। बारिश के दिनों में ही मोर और मोरनी का मिलन होता है और उनकी वंश परंपरा आगे बढ़ती है।
शायद इसी प्रजननकाल की भूमिका होती है। मोर की सुरीली आवाज में दूर तक गूंजने वाली प्रतिध्वनि और उसका झूमकर नाचना भी। जैसे इंसान जब खुश होता है तो वह प्रबल और मुखरित हो जाता है, उसी तरह मोर भी घिर आयी घटाओं और हवा में घुली ठंडक से खुश होकर मचल उठता है। लेकिन ये सारे विवरण और ये सारी जानकारियां धीरे-धीरे किताबों तक ही सीमित होती जा रही हैं, क्योंकि हर गुजरते साल के साथ भारत का यह राष्ट्रीय पक्षी संख्या में लगातार कम होता जा रहा है। इसलिए आज की शहरी युवा पीढ़ी में से ज्यादातर ने मोरों के बारे में सिर्फ पढ़ा है या वीडियो देखें हैं अथवा चिड़ियाघरों में संयोग से कभी उन्हें नाचते देखा है। जबकि 70 के दशक तक दिल्ली जैसे शहर में भी बारिश के दिनों में हर तरफ मोरों को उड़ते, घूमते देखा जाता था। हालांकि किसी भी महानगर की हर जगह प्राकृतिक वनस्पतियों और पशु, पक्षियों का होना संभव नहीं है, लेकिन राजधानी के जो-जो हिस्से हरियाली से आच्छादित थे, वहां खासकर यमुना किनारे और रिज एरिया में मोर खूब दिखते थे। लेकिन 90 के दशक के बाद से धीरे-धीरे इनकी संख्या कम होने लगी। 
जब से शहर, दिन की तरह रात में भी रोशनी से जगमग हो रहे हैं, तब से मोर शहरों से दूर जा रहे हैं। लेकिन विंडबना यह है कि दूर भी जाने की संभावनाएं कम बची हैं। हरियाणा और पंजाब में एक समय मोरों की अच्छीखासी आबादी हुआ करती थी। लेकिन अब बहुत कम रह गई है। हालांकि सरकार बार-बार चिंता जताती है और मोरों के लिए अनुकूल वातावरण निर्मित करने की बात कहती है, लेकिन अरावली हिल्स की लंबी पट्टी में निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की कड़ी फटकार के बावजूद न तो इन पहाड़ियों में दबे पत्थरों और दूसरे संसाधनों को बचाया जा पा रहा है और न ही यहां के पशु, पक्षियों को। पहले अरावली पहाड़ी श्रृंखला में खूब मोर और मोरनियां दिखती थीं। लेकिन अब इक्का दुक्का ही कहीं कहीं दिखते हैं।  हमें अगर अपना जीवन सुंदर और संवेदनाओं से भरा बनाये रखना है तो प्रकृति को भी और पशु, पक्षियों को भी सुरक्षा और संरक्षण देना होगा। महाराष्ट्र में तो अब भी जंगली इलाकों में मोर काफी हैं, लेकिन गुजरात के खेती वाले इलाकों से मोर धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं। मोरों के गायब होने के पीछे एक कारण लगातार इनके भोजन की अनुपलब्धता भी है। दरअसल मोर छोटे-मोटे कीड़े मकोड़े विशेष तौर पर खाता है, जो फसलों में पैदा होते हैं, लेकिन आजकल फसलों के लिए अधिक से अधिक कैमिकलयुक्त उर्वर इस्तेमाल करने के कारण खेतों में कीड़े मकोड़े खत्म हो गये हैं, इसलिए मोर जैसे खूबसूरत पक्षी का भोजन भी खत्म हो गया है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर