मानवीय खिलवाड़ के कारण कुपित होती प्रकृति

विश्वभर में आधुनिकीकरण और औद्योगिकीकरण के चलते प्रकृति के साथ बड़े पैमाने पर खिलवाड़ हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन और प्रकृति के साथ निर्मम खिलवाड़ का ही नतीजा है कि पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ने के कारण मनुष्यों के स्वास्थ्य पर तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ ही रहा है, जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां भी लुप्त हो रही हैं। विश्वभर में मौसम चक्र में निरंतर आते बदलाव और बिगड़ते पर्यावरणीय संतुलन के कारण पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियों के अलावा जीव-जंतुओं की कई प्रजातियों के अस्तित्व पर भी अब संकट के बादल मंडरा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता परिषद, ‘इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज’ (आइ.पी.बी.ई.एस.) द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में करीब 10 लाख प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है क्योंकि जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं, जिससे दुनियाभर के लोगों के स्वास्थ्य और उनकी जीवन की गुणवत्ता को नुकसान पहुंच रहा है। 
मौसम के तेजी से बिगड़ते मिजाज का ही असर है कि इन दिनों अपेक्षाकृत ठंडे रहने वाले यूरोप और अमरीका जैसे इलाके भी ग्लोबल वार्मिंग के कारण बुरी तरह तप रहे हैं। उत्तरी ध्रुव से लेकर यूरोप, एशिया, अफ्रीका, हर कहीं जलवायु परिवर्तन के खौफनाक दुष्परिणाम नज़र आ रहे हैं। कहीं ठंडे इलाके भी भीषण गर्मी से झुलस रहे हैं तो कहीं सूखे इलाके बाढ़ से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, जंगल झुलस रहे हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि इंसानी गतिविधियों के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन की वजह से पृथ्वी का तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में इस सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है, जिससे विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी प्रजातियों के लिए 10 गुना खतरा बढ़ जाएगा। पर्यावरण के इस तेजी से बदलते दौर में भली-भांति यह समझ लेना होगा कि जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियों के लुप्त होने का सीधा असर समस्त मानव सभ्यता पर पड़ना अवश्वम्भावी है।
प्रदूषित हो रहे पर्यावरण के आज जो भयावह खतरे हमारे सामने आ रहे हैं, उनसे शायद ही कोई अनभिज्ञ हो और हमें यह स्वीकार करने से भी गुरेज नहीं करना चाहिए कि इन समस्याओं के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हम स्वयं भी हैं। प्रकृति के तीन प्रमुख तत्व हैं जल, जंगल और जमीन, जिनके बगैर प्रकृति अधूरी है और यह विड़म्बना ही है कि प्रकृति के इन तीनों ही तत्वों का इस कदर दोहन किया जा रहा है कि प्रकृति का संतुलन डगमगाने लगा है, जिसकी परिणति अब अक्सर भयावह प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आने लगी है। प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए जल, जंगल, वन्य जीव और वनस्पति, इन सभी का संरक्षण अत्यावश्यक है। दुनियाभर में पानी की कमी के गहराते संकट की बात हो या ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती के तपने की अथवा धरती से एक-एक कर वनस्पतियों या जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियों के लुप्त होने की, इस तरह की समस्याओं के लिए केवल सरकारों का मुंह ताकते रहने से ही हमें कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि प्रकृति संरक्षण के लिए हम सबको भी अपने-अपने स्तर पर अपना योगदान देना होगा।
प्रकृति के साथ बड़े पैमाने पर दुनियाभर में जो छेड़छाड़ हो रही है, उसी का नतीजा है कि पिछले कुछ समय में भयानक तूफानों, बाढ़, सूखा, भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला तेज़ी से बढ़ा है। पर्यावरण का संतुलन डगमगाने के चलते लोग अब तरह-तरह की भयानक बीमारियों के जाल में फंस रहे हैं, उनकी प्रजनन क्षमता पर इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है, उनकी कार्यक्षमता भी इससे प्रभावित हो रही है। कैंसर, हृदय रोग, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों का संक्रमण, न्यूमोनिया, लकवा इत्यादि के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और लोगों की कमाई का बड़ा हिस्सा इन बीमारियों के इलाज पर ही खर्च हो जाता है। जब भी कोई बड़ी प्राकृतिक आपदा सामने आती है तो हम प्रकृति को कोसना शुरू कर देते हैं लेकिन हम नहीं समझना चाहते कि प्रकृति तो रह-रहकर अपना रौद्र रूप दिखाकर हमें सचेत करने का प्रयास करती रही है कि यदि हम अभी भी नहीं संभले और हमने प्रकृति से साथ खिलवाड़ बंद नहीं किया तो हमें आने वाले समय में इसके खतरनाक परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। प्रकृति हमारी मां के समान है, जो हमें अपने प्राकृतिक खजाने से ढ़ेरों बहुमूल्य चीजें प्रदान करती है लेकिन अपने निहित स्वार्थों के चलते हम यदि प्रकृति के साथ निर्मम खिलवाड़ बंद नहीं करते तो फिर भला प्राकृतिक तबाही के लिए प्रकृति को कैसे दोषी ठहरा सकते हैं।
मानवीय क्रियाकलापों के ही कारण वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन तथा पार्टिक्यूलेट मैटर के प्रदूषण का मिश्रण इतना बढ़ गया है कि हमें वातावरण में इन्हीं प्रदूषित तत्वों की मौजूदगी के कारण सांस की बीमारियों के साथ-साथ टीबी, कैंसर जैसी कई और असाध्य बीमारियां जकड़ने लगी हैं। पैट्रोल, डीजल से पैदा होने वाले धुएं ने वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड और ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को बेहद खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है। पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं लेकिन विकास के नाम पर एक ही झटके में हजारों पेड़ों का सफाया कर दिया जाता है। पर्यावरणीय असंतुलन के बढ़ते खतरों के मद्देनज़र हमें स्वयं विचार करना होगा कि हम अपने स्तर पर प्रकृति संरक्षण के लिए क्या योगदान दे सकते हैं। हमें अपनी इस सोच को बदलना होगा कि यदि सामने वाला व्यक्ति कुछ नहीं कर रहा तो मैं ही क्यों करूं? हर बात के लिए सरकार से अपेक्षाएं करना ठीक नहीं। सरकारों का काम है किसी भी चीज के लिए कानून या नियम बनाना और जन-जागरूकता पैदा करना लेकिन ईमानदारी से उनका पालन करने की जिम्मेदारी तो हमारी है। यदि हम वाकई प्रकृति संरक्षण चाहते हैं तो हमें अपनी रोजमर्रा की कुछ आदतों में भी सुधार करना होगा, जिससे पानी, बिजली इत्यादि बचाने में मदद मिले। आज के डिजिटल युग में तमाम बिलों के ऑनलाइन भुगतान की व्यवस्था हो ताकि कागज की बचत की जा सके और कागज बनाने के लिए वृक्षों पर कम से कम कुल्हाड़ी चले। प्रकृति संरक्षण के लिए ज़रूरी है कि हम अपने-अपने स्तर पर वृक्षारोपण में भी दिलचस्पी लें और पौधारोपण के पश्चात् उन पौधों की अपने बच्चों की भांति देखभाल भी करें। हम प्रयास कर सकते हैं कि हमारे दैनिक क्रियाकलापों से हानिकारक कार्बन डाईऑक्साइड जैसी गैसों का वातावरण में उत्सर्जन कम से कम हो। इस तरह की छोटी-छोटी पहल से भी हम सब मिलकर प्रकृति संरक्षण के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं।


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