देश में साल 2030 तक फिर लोकप्रिय होगी  सिद्ध चिकित्सा

सिद्ध एक सम्पूर्ण और असरकारी चिकित्सा प्रणाली होने के बावजूद यदि सर्व सुलभ और पूरे भारत में प्रचलित नहीं है तो यह व्यवस्था का ही दोष है जिसने एलोपैथी के विस्तार के लिये तो सब कुछ किया पर भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में से एक इस श्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति को अत्यंत सीमित रहने पर विवश कर दिया। आज दक्षिण भारत और देश के कुछ पढ़े लिखे लोग ही सिद्ध चिकित्सा प्रणाली की खूबियों से वाकिफ है या उसका इस्तेमाल करते हैं। कहते हैं कि 9 नाथों एवं 84 सिद्धों द्वारा विकसित की गयी इस चिकित्सा पद्धति का ज्ञान इन सिद्धों को सीधे शिव और पार्वती से प्राप्त हुआ था। यह एक पौराणिक आख्यान सही पर यह चिकित्सा पद्धति भारत की ही नहीं, विश्व की सर्वाधिक प्राचीन चिकित्सा-पद्धति मानी ही जा सकती है।
उत्तर भारत में ज्यादातर लोग आज भी इस 10 हजार साल से भी ज्यादा पुरानी चिकित्सा प्रणाली से आमतौर पर अंजान हैं। सिद्ध का इतिहास शानदार रहा है पर दो सौ साल से भी पहले जब अंग्रेजों ने पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों को पीछे कर एलोपैथी के लिये जगह बनाई और हमारी सरकारों ने भी इसे प्राथमिकता और सुविधा प्रदान की तो सिद्धा तो क्या देश में प्रचलित सभी आठ प्रमुख पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों का पराभव तय हो गया। आयुर्वेद, होमियो, यूनानी सरीखी तो बुरी स्थिति में पहुंची पर सिद्धा जैसी तो इतनी सीमित हो गयीं कि अस्तित्व पर ही संकट मंडराने लगा। अब आयुष जिसमें सिद्धा भी शामिल है, के चलते सिद्ध चिकित्सकों के लिए कुछ स्थितियां अनुकूल हुई हैं। अब यूनानी, योग, आयुर्वेद ही नहीं सिद्धा पद्धति को भी पर्याप्त बढ़ावा देने का मज़बूत खाका तैयार हो चुका है। केन्द्र सरकार हर राज्य में आयुष विश्वविद्यालय खोल रही है, इनमें सिद्ध का चिकित्सीय विभाग अनिवार्य रूप से होता है।
अगले कुछ सालों में हर प्राथमिक और केन्द्रीय स्वास्थ्य केन्द्र पर आयुष चिकित्सक उपलब्ध कराने की कोशिश है। जिससे सुदूर क्षेत्रों में जहां एलोपैथ डाक्टर नहीं जाते हैं, वहां आयुष के तहत होमियो, यूनानी, आयुर्वेद ही नहीं सिद्ध चिकित्सक अपनी सेवाएं भी दे सकेंगे। दिल्ली, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में अब आयुष की पढ़ाई और प्रैक्टिस में सिद्ध भी शामिल है। इससे उम्मीद बंधी है कि साल 2030 आते सिद्धा एक बार फिर इस देश में अपनी जड़े जमा लेगा। उसकी नयी कोंपलें फूट पडेंगी। पर यह इतना आसान भी नहीं है। सरकारी प्रतिबद्धता तो इसके लिये आवश्यक है ही जन जागरूकता भी बेहद ज़रूरी है। केरल से जन्मी सिद्ध चिकित्सा भारत के तमिलनाडु की एक पारम्परिक चिकित्सा पद्धति है। दक्षिण भारत में कभी इसकी धूम थी। आज भी दक्षिण भारत में सिद्ध के कुछ अस्पताल या केन्द्र हैं पर या तो वहां अमीरों, विशिष्ट व्यक्तियों की अथवा कतिपय विदेशियों की सीमित अवाजाही ही होती है। जनसामान्य में कभी जड़ जमा चुकी यह पद्धति आज जन से कट चुकी है।      
भारत में आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पद्धतियां सिद्ध से ज्यादा प्रचलित हैं। ये दोनो जड़ी बूटियों तथा खनिजों पर आधारित हैं। माना जाता है कि उत्तर भारत में सिद्ध काफी हद तक आयुर्वेद के समान है। ऐसा है भी और नहीं भी। सिद्धा में आयुर्वेद को लेकर बहुत सी समानताओं के साथ विभेद भी हैं। पारंपरिक चिकित्सा विधियों, पद्धतियों चाहे आयुर्वेद हो, सिद्धा हो अथवा यूनानी इनके बारे में यह मूढ़ अवधारणा या भ्रम है कि ये अवैज्ञानिक, पिछड़ी हुई और बस कुछ खास रोगों या शारीरिक विकारों को ही ठीक कर सकती हैं। वह भी वे रोग जिनकी चिकित्सा के लिये खूब समय हो। सच तो यह है कि एलोपैथी में भी हर मर्ज की दवा नहीं हैं और बहुत सी बीमारियों में उसकी दवाएं न सिर्फ बे असर हैं बल्कि घातक साइड इफैक्ट वाली भी हैं। हमारी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के बारे में यह हो सकता है कि किसी रोग की माकूल दवा यूनानी में हो तो किसी की होमियो या आयुर्वेद में किसी बीमारी के लिये सटीक दवा महज सिद्धा में ही हो यानी सभी में कुछ कमियां हो सकती हैं तो कुछ खूबियां भी।
निस्संदेह सिद्ध प्रणाली आकस्मिक मामलों के लिये बहुत प्रभावी नहीं है पर बाकी हर तरह के रोगों का इलाज करने में सक्षम है। त्वचा संबंधी समस्याओं के लिये तो इससे बेहतर कुछ भी नहीं। मूत्र के रास्ते में संक्रमण लीवर सोरियासिस, यौन संचारित संक्रमण, आंत और पेट के आंत के रास्ते के रोग, पोस्टपार्टम एनेमिया, डायरिया और गठिया अर्थराइटिस और एलर्जी, मधुमेह ही नहीं सामान्य बुखार के लिये भी यह रामबाण है। सिद्ध चिकित्सा प्रणाली कई तरह से अद्वितीय है, जो कई खतरनाक रोगों को ठीक कर सकती है। सिद्ध के चिकित्सक औपचारिक चिकित्सा शिक्षा लेकर ही बनते हैं। पूरे साढे पांच साल की पढ़ाई और छह महीने से लेकर एक साल तक की इंटर्नशिप। देश में कई सिद्ध चिकित्सा महाविद्यालय हैं जो अधिस्नातक डिग्री देते हैं, जैसे-सिद्ध औषधि एवं शल्य चिकित्सा स्नातक (बी.एस. एम.एस.)। इस पाठ्यक्रम को पूरा करने के बाद कोई भी व्यक्ति सिद्ध औषधि में स्नातकोत्तर डिग्री अर्थात एम.डी. (सिद्ध) कर सकता है, जो 3 वर्षीय पाठ्यक्रम है। बी.एस.एम.एस. पढ़ने वालों की भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव-विज्ञान, या वनस्पति विज्ञान तथा प्राणिविज्ञान विषयों की प्रवेशध्ययन परीक्षा होती है।
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