मानवता के पुजारी थे सुनील दत्त

यह साल 1985 की बात है। मैं अपने एक दोस्त के साथ साकीनाका (मुंबई) के एक सस्ते से ईरानी होटल में बैठकर वड़ा पाव व चाय से दिनभर के लिए पेट भरने का प्रयास कर रहा था। उन दिनों हम दोनों ही स्कूली छात्र थे और पैसे की जबरदस्त तंगी से गुज़र रहे थे। तभी एक स्थानीय अखबार में ‘गुर्दे की ज़रूरत है’ का विज्ञापन देखा, जो उस समय प्रकाशित कराना वैध था। हमने कहीं सुन रखा था कि ‘गुर्दा दान’ करने की बात तो वैसे ही लिख दी जाती है, असल में गुर्दे खरीदे जाते हैं और एक लाख रूपये तक की कीमत मिल जाती है। अब चूंकि व्यक्ति एक गुर्दे पर भी जीवित रह सकता है, इसलिए हमने सोचा कि अपना एक-एक गुर्दा बेच देते हैं और उससे जो पैसे आयेंगे ‘अंडा, मुर्गी, मुर्गीफार्म...’ टाइप के कारोबार की योजना बना ली। फिर एक पब्लिक टेलीफोन बूथ पर जाकर, जहां से एक रूपये का सिक्का डालने पर कॉल हो जाती थी, हमने विज्ञापन में दिया गया नंबर मिलाया। विज्ञापन में नंबर गलत छपा था या हमसे ही मिलाने में कोई चूक हुई, इसका अंदाज़ा तो कठिन है, लेकिन कॉल सुनील दत्त के बांद्रा ऑफिस में मिल गई और हमने अपने लड़कपन में सीधा कह दिया कि हमें अपना-अपना गुर्दा बेचना है। आश्चर्य यह हुआ कि हमें सुनील दत्त के ऑफिस में बुला लिया गया और हम वहां पहुंच भी गये।
ऑफिस के गेट पर हमने अपना परिचय दिया व उद्देश्य बताया। वहां शायद सबको हमारे ही आने का इंतज़ार था। हमें अंदर बुलाकर एक जगह बैठा दिया गया, पानी व चाय भी पिलायी गई। फिर थोड़ी देर बाद सुनील दत्त हमारे सामने प्रकट हुए और गुस्से के लहजे में हमसे सवाल किया, ‘तुम अपने गुर्दे क्यों बेचना चाहते हो?’ हमने अपनी आर्थिक मज़बूरी व्यक्त की तो सुनील दत्त ने हमें डांटते हुए एक चांटा भी मारा और फिर एक पिता की तरह गले लगाकर हमें प्यार किया और समझाया कि हमें अपने जीवन से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए, ‘तुम्हें पढ़ लिखकर कुछ बनने की कोशिश करनी चाहिए’ और अगर ‘पैसे की इतनी तंगी है तो 5-10 हज़ार रूपये से मैं मदद कर सकता हूं’। हमारी बेवकूफी को सुनील दत्त ने आईना दिखा दिया था, हमने उनसे माफी मांगी। इसके बाद उनकी बेटी प्रिया दत्त ने हमें खाना खिलाकर विदा किया। उस दिन हमने सुनील दत्त व उनके परिवार का मानवीय चेहरा देखा और हमारी समझ में आया कि वह केवल एक फिल्म एक्टर ही नहीं थे बल्कि सामाजिक व राजनीतिक संत थे और इसलिए लोग उनसे बेइंतिहा प्रेम करते थे। मुंबई की जनता ने उन्हें व उनके बाद उनकी बेटी को संसद में भेजा।
एक्टर, निर्माता निर्देशक, समाज सेवी व राजनीतिज्ञ सुनील दत्त का जन्म बलराज दत्त के रूप में 6 जून 1929 को ज़िला झेलम के नक्का खुर्द (जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है) में एक हुसैनी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जब वह पांच वर्ष के थे, तो उनके पिता दीवान रघुनाथ दत्त का निधन हो गया और उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उनकी मां कुलवंती देवी दत्त के ज़िम्मे आ गई। जब वह 18 बरस के हुए तो भारत के विभाजन के कारण सांप्रदायिक दंगे आरंभ हो गये। उनके पिता के एक मुस्लिम मित्र याकूब ने उनके पूरे परिवार की जान बचाई और वह ज़िला यमुनानगर (अब हरियाणा में) के गांव मंडौली में आकर रहने लगे, जोकि यमुना के किनारे है। बाद में सुनील दत्त अपनी मां के साथ लखनऊ के अमीनाबाद बाज़ार में रहने लगे। यहां से उनका परिवार बॉम्बे (अब मुंबई) आ गया और सुनील दत्त ने जय हिंद कॉलेज से इतिहास में बीए (ऑनर्स) करने के बाद बेस्ट ट्रांसपोर्टेशन इंजीनियरिंग डिवीज़न में नौकरी कर ली।
दुनियाभर में शायद गिनती के ही फिल्मी अदाकार होंगे जिनके बारे में यह यकीन से कहा जा सकता है कि उनके वास्तविक किरदार की झलक उनके द्वारा पर्दे पर अभिनीत कुछ चरित्रों में काफी हद तक दिखायी देती है। सुनील दत्त एक ऐसे ही महान कलाकारों में से एक थे। नर्गिस एक तवायफ जद्दन बाई की बेटी थीं। सुनील दत्त का जन्म एक सम्मानित परिवार में हुआ था। इस सामाजिक अंतर के बावजूद सुनील दत्त ने न सिर्फ नर्गिस से शादी की बल्कि इस तरह एक समर्पित पारिवारिक जीवन व्यतीत किया कि विख्यात अभिनेत्री आशा पारिख सहित अनेक गुज़रे ज़माने की अदाकाराओं ने ऑन-रिकॉर्ड कहा है कि सुनील दत्त एक ऐसे आदर्श पति थे कि हर महिला ऐसे ही पति की तमन्ना करती है, जो हर स्थिति में अपनी पत्नी के साथ रक्षक व मित्र बनकर खड़ा रहे। दिलचस्प यह है कि अपने इस रियल रूप का अक्स सुनील दत्त ने कम से कम अपनी छह फिल्मों - ‘साधना’ (1958), ‘नर्तकी’ (1963), ‘दर्पण’ (1970), ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’ (1972), ‘चिऱाग’ (1969) व ‘सुजाता’ (1959) - में भी दिखाया है। इन फिल्मों में उन्होंने महिला उत्थान, सशक्तिकरण और समता के मुद्दों को बहुत ही खूबी व प्रभावी ढंग से उठाया।
 राजनीति व समाज सेवा को समय देने के लिए सुनील दत्त ने 1990 के दशक में एक्टिंग से सन्यास ले लिया था, लेकिन दोस्तों की कुछ फिल्मों में फिर भी काम किया। उनकी अंतिम फिल्म ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ (2003) जिसमें वह अपने बेटे संजय के ‘पिता’ की भूमिका में थे। अपने 76वें जन्मदिन से दो सप्ताह पहले सुनील दत्त का 25 मई 2005 को हार्ट अटैक से अपने बांद्रा स्थित निवास पर निधन हो गया।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर