प्रेम और मित्रता के अनुपम प्रतीक हैं श्रीकृष्ण

भाद्रपक्ष कृष्ण अष्टमी को सम्पूर्ण भारतवर्ष में भारतीय जनमानस के नायक योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र एवं वृष राशि की मध्य रात्रि में मथुरा के कारागार में वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से शोड्ष कलावतार भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था। इस वर्ष भगवान श्रीकृष्ण की 5250वीं जन्माष्टमी मनाई जा रही है। ज्योतिषाचार्यों के मुताबिक इस बार जन्माष्टमी का त्योहार 6 और 7 सितम्बर को मनाया जाएगा। जन्माष्टमी के अवसर पर कई वर्षों के बाद ऐसा संयोग बन रहा है, जो कि बहुत दुर्लभ है। हिन्दू पंचांग के अनुसार इस साल अष्टमी तिथि बुधवार 6 सितम्बर को दोपहर 3:37 बजे शुरू होगी, जिसका समापन 7 सितम्बर की शाम 4 बजकर 14 मिनट पर होगा। वैसे जन्माष्टमी का त्योहार आम तौर पर दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन (स्मार्त) गृहस्थियों द्वारा तथा दूसरे दिन वैष्णव सम्प्रदाय द्वारा। गृहस्थ लोग इस बार 6 सितम्बर को जन्माष्टमी मनाएंगे जबकि वैष्णव सम्प्रदाय में 7 सितम्बर को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी उत्सव मनाया जाएगा।
हमारे वेद और पुराणों से पांच तरह के सम्प्रदायों वैष्णव, शैव, शाक्त, स्मार्त और वैदिक सम्प्रदाय की उत्पत्ति मानी जाती है। विष्णु को परमेश्वर मानने वाले वैष्णव, शिव को परमेश्वर मानने वाले शैव, देवी (दुर्गा) को परमशक्ति मानने वाले शाक्त, परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक समान मानने वाले स्मार्त और ब्रह्म को निराकार रूप जानकर उसे ही सर्वोपरि मानने वाले वैदिक माने जाते हैं। ये पांचों सम्प्रदाय वैदिक धर्म के अंतर्गत ही आते हैं। चूंकि सभी सम्प्रदायों का धर्मग्रंथ वेद ही है। हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार श्रुति स्मृति में विश्वास रखने वाले सभी आस्तिक, वेद-पुराणों के पाठक और पंच देवों ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, उमा के उपासक ‘स्मार्त’ कहलाते हैं। वैष्णव सम्प्रदाय के लोग वे व्यक्ति हैं, जो किसी विशेष सम्प्रदाय के धर्माचार्य या गुरु से दीक्षा लेते हैं, उनसे कंठी या तुलसी माला गले में धारण करते हैं और तिलक आदि धारण कर तप्त मुद्रा से शंख-चक्र का निशान अंकित करवाते हैं। सरल शब्दों में कहें तो वैष्णव वे लोग हैं, जो गृहस्थ जीवन से दूर होते हैं।
जन्माष्टमी के दिन देशभर में मंदिरों को सजाया जाता है। लोग रात्रि के 12 बजे तक व्रत रखते हैं और रात्रि 12 बजे शंख और घंटों की ध्वनि के जरिये भगवान श्रीकृष्ण के जन्म की खबर चारों दिशाओं में गूंज उठती है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बाल्याकाल में अनेक लीलाएं कीं। जन्माष्टमी के अवसर पर ऐसी ही अनेक लीलाओं का मंचन किया जाता है। सही मायनों में श्रीकृष्ण हमारे इतिहास के अभिन्न अंग हैं, जिनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व जितना मोहक था, उतना ही रहस्यमयी भी और उतनी ही अनोखी थीं उनकी लीलाएं। बाल्यावस्था से लेकर जीवनपर्यन्त लीलाएं करते रहे श्रीकृष्ण में कभी भगवान के दर्शन होते हैं तो कभी वह एक साधारण मानव सरीखे प्रतीत होते हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि मानव के रूप में भी श्रीकृष्ण उतना ही आकर्षित करते हैं, जितना कि भगवान के रूप में। उनका एक-एक कार्य मन में गहरा स्थान बना जाता है। उनके आदर्श, उनके जीवन की विद्वत्ता, वीरता, कूटनीति, योगी सदृश उज्जवल, निर्मल एवं प्रेरणादायक पक्ष, सब हमारे लिए अनुकरणीय हैं। श्रीकृष्ण को प्रेम एवं मित्रता के अनुपम प्रतीक के रूप में भी जाना जाता है। बचपन के निर्धन मित्र सुदामा को उन्होंने अपने राज्य में जो मान-सम्मान दिया, वह मित्रता का अनुकरणीय उदाकरण बना।
श्रीकृष्ण की लीलाओं को समझना जहां पहुंचे हुए ऋषि-मुनियों और बड़े-बड़े विद्वानों के बूते से भी बाहर था, वहीं अनपढ़, गंवार माने जाते रहे निरक्षर और भोले-भाले ग्वाले और गोपियां उनका सान्निध्य पाते हुए उनकी दिव्यता का सुख पाते रहे। उन्हें कन्हैया कहें या कृष्ण, पीताम्बर कहें या वासुदेव या फिर देवकीनंदन अथवा यशोदानंदन, वास्तव में श्रीकृष्ण का भारतीय संस्कृति में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। वह महाभारत काल के ऐसे आध्यात्मिक एवं राजनीतिक दृष्टा रहे, जिन्होंने धर्म, सत्य और न्याय की रक्षा के लिए दुर्जनों का संहार किया। वह शांति, प्रेम एवं करूणा के साकार रूप थे। महाभारत युद्ध के समय शांति के सभी प्रयास असफल होने पर उन्होंने संशयग्रस्त धनुर्धारी अर्जुन को ज्ञान का उपदेश देकर कर्त्तव्य मार्ग पर अग्रसर किया और अन्याय की सत्ता को उखाड़ने के लिए अपने ही कौरव भाइयों के साथ युद्ध करते हुए उन्हें अपने कर्मों का पालन करने के लिए गीता का उपदेश दिया। युद्ध के समय वह हर पल धर्म की रक्षा करने के लिए अधर्म करने वालों के खिलाफ खड़े नज़र आए, इसीलिए उन्हें अधर्म पर धर्म की विजय के प्रतीक के रूप में भी जाना जाता है। गीता में उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण ने कहा था:.
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।।
अर्थात् हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूं।
बाल्याकाल से लेकर बड़े होने तक श्रीकृष्ण की अनेक लीलाएं विख्यात हैं। श्रीकृष्ण ने नररकासुर नामक असुर के बंदीगृह से 16100 बंदी महिलाओं को मुक्त कराया और उनको उच्च दर्जा देकर सम्मान दिया।
श्रीकृष्ण का स्वरूप कितना दिव्य था, इसकी अनुभूति इसी से हो जाती है कि एक ओर जहां विष लेप कर मां का रूप धारण कर दूध पिलाने आई राक्षसी पूतना का दूध पीकर श्रीकृष्ण उसे मां का सम्मान देते हैं, तो दूसरी ओर उसकी दुष्टता के लिए उसका वध भी करते हैं। श्रीकृष्ण ने लंबे समय तक द्वारका पर शासन किया, इसीलिए उन्हें द्वारकाधीश नाम से भी जाना जाता है। 36 वर्षों तक द्वारका पर शासन करने के बाद वह परम धाम को प्राप्त हुए थे। पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, सत्य-असत्य से परे पूर्ण पुरूष की अवधारणा को साकार करते श्रीकृष्ण भारतीय परम्परा के ऐसे प्रतीक हैं, जो जीवन का प्रतिबिम्ब हैं और सम्पूर्ण जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं। उनका चित्र जनमानस के हृदय पटल पर एक कुशल नेतृत्वकर्ता, योद्धा, गृहस्थी, सारथी, योगीराज, देवता इत्यादि विविध रूपों में अंकित है। श्रीकृष्ण बंधन भी हैं और मुक्ति भी, एक ओर जहां वे अपने भक्तों को अपने आकर्षण में बांधते हैं तो उन्हीं भक्तों को मोह-माया के बंधन से मुक्त भी करते हैं। मो-9416740584