राजनीति का अपराधीकरण

इस मास बिहार के पूर्व लोकसभा सदस्य प्रभुनाथ सिंह को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई है। इस सांसद का संबंध दोहरे हत्याकांड के मामले से जुड़ा रहा है। देश की राजनीति में अपराधीकरण की चर्चा देर से चलती आ रही है। विधानसभाओं में भी तथा संसद में भी ज्यादातर ऐसे व्यक्ति चुने जाते रहे हैं जो आपराधिक पृष्ठ-भूमि वाले होते हैं। इनका संबंध देश की भिन्न-भिन्न राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टियों के साथ जुड़ा होता है। ऐसे व्यक्तियों को टिकटें देकर चुनाव मैदान में उतारे जाने से पहले संबंधित पार्टियों को इनकी आपराधिक पृष्ठ-भूमि संबंधी जानकारी होती है। इसके बावजूद बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां ऐसे व्यक्तियों को टिकट देने से गुरेज़ नहीं करतीं। ऐसे आंकड़े लगातार मिलते रहते हैं।
 इस संबंध में चुनाव आयोग तथा देश के न्यायालय भी ज्यादातर अपना प्रभाव बनाने में असमर्थ रहते हैं। न्यायालय में इन चुने हुए आपराधिक पृष्ठ-भूमि वाले व्यक्तियों के मामले चलते रहते हैं तथा अनिश्चित समय तक इनके संबंध में कोई फैसला नहीं होता जिस कारण ज्यादातर ऐसे व्यक्ति चुने हुए प्रतिनिधि के रूप में अपना कार्यकाल भी पूरा कर लेते हैं। मौजूदा समय में ऐसी पृष्ठ-भूमि वाले सांसदों तथा विधायकों की संख्या पर दृष्टिपात करें तो यह लोकतंत्र के लिए शर्मसार होने वाली बात बन जाती है। इस समय 134 सांसदों या विधायकों पर तो महिलाओं के विरुद्ध अपराधों संबंधी मामले चल रहे हैं। इनमें 7 भाजपा सांसदों के विरुद्ध तो दुष्कर्म के आरोप लगे हुए हैं। संख्या के पक्ष से दूसरे स्थान पर कांग्रेस तथा तीसरे स्थान पर आम आदमी पार्टी आती है जिन पर महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के अनेक मामले दर्ज हैं। ऐसे मामले देश के ज्यादातर प्रदेशों के चुने हुए प्रतिनिधियों के साथ भी जुड़े हुए हैं। इस संबंध में वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को यह कहा था कि इन चुने हुये जन-प्रतिनिधियों पर चल रहे ऐसे मामलों के शीघ्र निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन किया जाए, परन्तु ऐसा कुछ अब तक सम्भव नहीं हो सका। 9 वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला किया था कि ऐसे मामलों को लटकाया नहीं जा सकता तथा इनका फैसला एक वर्ष में ज़रूर होना चाहिए। यदि निचली अदालतें ऐसा करने में असफल होती हैं तो उन्हें हाईकोर्ट  में स्पष्टीकरण देना पड़ेगा कि वे ऐसा क्यों नहीं कर सकीं, परन्तु हालात यह हैं कि अभी भी 5000 के लगभग मामले अदालतों में लम्बित पड़े हैं। 40 प्रतिशत मामले ऐसे हैं जिनका फैसला होने पर 5 वर्ष से अधिक का समय हो चुका है। विशेष अदालतों संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का आदेश अभी तक भी लागू नहीं किया जा सका।
 हम समझते हैं कि ऐसी स्थिति लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली है। ज्यादातर ऐसे व्यक्ति अपने प्रभाव-रुतबे से तथा उनके पास बड़े साधन होने के कारण इन मामलों को अदालतों में लटकाने में सफल हो जाते हैं। चाहे पिछले दशकों में चुनाव आयोग ने चुनाव प्रक्रिया में अनेक सुधार किए हैं परन्तु अभी तक ऐसे द़ागी व्यक्तियों को चुने जाने से रोकने में वह सफल नहीं हो सका। इस संबंध में बड़ी ज़िम्मेदारी राजनीतिक पार्टियों की भी बनती है, जिनके द्वारा ऐसे उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे जाते हैं। राजनीतिक पार्टियों को चुनाव मैदान में ऐसे उम्मीदवार ही उतारने चाहिएं, जिनकी पृष्ठ-भूमि सही तथा स्वच्छ हो। जब तक राजनीतिक पार्टियों पर ऐसे व्यक्तियों की चुनाव के प्रति कोई कानूनी पाबन्दी नहीं लगाई जाती, तब तक  ऐसा सिलसिला जारी रहेगा। इस संबंध में सभी पक्षों को कोई प्रभावशाली यत्न करने की ज़रूरत होगी, ताकि देश की लोकतांत्रिक प्रणाली की छवि को धूमिल होने से बचाया जा सके।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द