राजनीति का अपराधीकरण

राजसत्ता की संरचना जनता की सुरक्षा, शांति, सुव्यवस्था और प्रगति के लिए की गई, लेकिन राजसत्ता एक ऐसा शिखर है जहां पर आसीन होने के बाद हर कोई हर प्रकार से निरंकुश, स्वेच्छाचारी और तानाशाह बनने की ओर उन्मुख होने लगता है। सत्ता पर काबिज़ रहने की प्रवृत्ति तथा सत्ता परिवर्तन के प्रयास दोनों ही कूट राजनीति के अन्तर्गत आते हैं। राजनीति जन कल्याणोन्मुखी, कुटिलताओं से मुक्त, भ्रष्टाचरण से परे और पारदर्शी हो तो ऐसी राजनीति श्रेष्ठ हो सकती है, परन्तु राजनीति जब षड्यंत्रों का जाल, अपराधियों की संरक्षक, हिंसा को बढ़ाने वाली, जाति विशेष और सम्प्रदाय विशेष का भला-बुरा चाहने वाली, देश को कमज़ोर और जनता को कंगाल व दुखी बनाने वाली हो जाए तो ऐसी राजनीति की ज़रूरत राष्ट्र व समाज को कतई नहीं हो सकती।
न्याय एक ऐसा सच है जो सार्वकालिक है। ‘दूध का दूध, पानी का पानी’ कर दिखाने का सामर्थ्य ही न्याय है। व्यवस्था चाहे राजतंत्र हो या प्रजातांत्रिक, पूंजीवादी हो या समाजवादी, व्यवस्था न्याय से ही बनी रह पाती है। आज की कलुषित राजनीति न्याय को अपने अनुकूल बना लेती है। धर्म, जाति, सम्प्रदाय के वोट बैंक से प्रभावित राजनीति न्याय की कसौटी पर कितना खरा उतर सकती है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है।आज की राजनीति में अपनों का बचाव सर्वप्रमुख उद्देश्य बन गया है। चाहे कितना ही बड़ा अपराधी क्यों न हो, अगर वह इसे राजनीतिक रूप देने में सफल हो जाता है तो बच निकलता है। अपराधों का राजनीतिकरण आम बात हो गई है। यही दुष्प्रवृत्ति राजनीति के अपराधीकरण का कारण बन जाती है। 
साफ -सुथरे राजनीतिज्ञों, सक्षम बुद्धिजीवियों को सचेत रह कर राजनीति को हर प्रकार की आपराधिक वृत्तियों से परे रखने में अपनी सक्रिय भूमिका अदा करनी चाहिए। यह काम राजनीति से अलग रह कर भी किया जा सकता है और राजनीति में रहते हुये भी, परन्तु राजनीति में रहते हुए अधिक सतर्क रहने की ज़रूरत होगी। (युवराज)