देश में कृषि क्रांति के जन्मदाता थे स्वामीनाथन 

जीवन में कुछ पल ऐसे होते हैं जो हमेशा के लिए यादगार बन जाते हैं। यह किसी व्यक्ति से मुलाकात हो सकती है, गंभीर विषय पर चर्चा हो सकती है, नये दृष्टिकोण का सूत्रपात हो सकता है या फिर समस्या का समाधान हो सकता है और अनेक प्रश्नों का उत्तर भी हो सकता है।
यादों के झरोखे से
दूरदर्शन से कुछ वर्ष पहले मेघालय और नागालैंड में हो रहे ‘वन विनाश और वन संरक्षण’ पर चार एपिसोड की सीरीज़ बनाने का आदेश मिला तो उसके लिए रिसर्च शुरू की। मेरे मित्र शरद दत्त ने इसके लिए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में कार्यरत श्री आर.डी. शर्मा का नाम सुझाया, जो कि अब स्वर्गवास हो चुके हैं। वह इसके लिए सहर्ष राज़ी हो गए क्योंकि इस विषय में उनकी रुचि थी और उन्होंने इसका गहन अध्ययन किया था। वे विस्तार से बातचीत करने के लिए डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन से समय तय कर उनके पास ले गये। मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण क्षण था।
स्वामीनाथन जी तब अस्सी वर्ष की आयु के आसपास रहे होंगे। उनसे मिलने का उत्साह तो था ही लेकिन जब उन्हें देखा तो वह युवा जैसे लग रहे थे। एकदम शांत स्वभाव, अद्भुत उर्जा, सौम्य व्यक्तित्व और चेहरे पर दूसरे को मोहित कर देने वाली मुस्कान। पहली भेंट और ऐसा अनुभव कि मानो जानते पहले से थे, परन्तु मिले अब हैं। सरल वेशभूषा, बैठने और बोलने के अन्दाज़ ने वातावरण को सहज बना दिया। लगा ही नहीं कि विश्व भर में सम्मानित और भारत की कृषि में क्रांतिकारी परिवर्तन करने वाले महान वैज्ञानिक के सामने बैठे हैं, बल्कि अनुभव हुआ कि जैसे गुरु के सामने कुछ सीखने के लिए उपस्थित हुए हैं।
विषय पर चर्चा हुई और उन्होंने इस सीरीज़ के लिए परामर्शदाता बनना स्वीकार कर लिया। उसके बाद उन्होंने पूरे विस्तार से समझाना शुरू किया कि असली समस्या क्या है? इन राज्यों में जंगल क्यों नष्ट हो रहे हैं और यह जानते हुए भी कि इससे कभी पूरा न होने वाला नुकसान हो रहा है, इन क्षेत्रों के निवासी इसके लिए विवश क्यों हैं? कहने लगे कि इस समस्या से निपटने के लिए उन्होंने सरकार को एक अच्छी योजना दी है लेकिन उसे बिना स्थानीय आबादी के सहयोग के पूरा नहीं किया जा सकता।
परम्परा यह थी कि सदियों से कृषि के लिए जंगल काटकर मैदान तैयार करने का काम होता था। इसके लिए आग लगाई जाती थी और इस तरह ज़मीन को समतल कर कृषि की जाती थी। पहले जंगल काटने की ज़रूरत चालीस पचास साल बाद पड़ती थी और तब तक वे फिर से पनप जाते थे। जनसंख्या बढ़ने से कृषि पर असर पड़ा और वन विनाश की अवधि दो-तीन साल की हो गई। परिणाम यह हुआ कि ज़मीन बंजर, कम उपज देने वाली होती गई और किसान के लिए कृषि करना नुकसानदायक होने लगा। अधिकतर आबादी आदिवासी होने और दूरदराज बसी होने से उन तक सरकारी योजनाओं और कृषि के नए तरीकों की जानकारी पहुंचना तथा उन्हें समझाना बहुत कठिन काम था।
स्वामीनाथन जी ने इसके लिये जो योजना बनाई थी उसमें अधिक उपज देने वाले बीजों, रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल, जैविक और सीढ़ीदार कृषि करना और इन क्षेत्रों की महिलाओं का कृषि करने में अपना योगदान देना प्रमुख था। सरकार की उदासीनता और यहां के किसानों द्वारा उपज जल्दी प्राप्त करने की इच्छा और आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों को अपनाने के प्रति संकोच होने तथा पहाड़ी और दुर्गम इलाकों में आवश्यक संसाधनों न होने से उनकी योजना उतनी सफल नहीं हो पायी जितनी ज़रूरत थी। यही कारण है कि आज भी वहां लगभग सभी राज्यों में जंगल जलाए जाते हैं। इससे कृषि के लिए ज़रूरी तत्व नष्ट होते हैं और बंजरपन बढ़ता जाता है।
मेरी सीरीज़ के सफल निर्माण में उनकी सलाह और मार्गदर्शन का बहुत बड़ा योगदान रहा और जब यह उन्होंने देखी तो बहुत प्रसन्न थे। दूरदर्शन पर इसका प्रसारण बहुत सराहा गया और फिल्में काफी चर्चित हुईं।
कृषि क्रांति के जन्मदाता
डॉ. स्वामीनाथन का सबसे बड़ा योगदान देश में हरित क्रांति की शुरुआत करना था। उनसे इसके बारे में चर्चा हुई और यह सुनकर अचंभा-सा हुआ कि देश को भुखमरी के दलदल से निकालने में उनकी कितनी बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका थी। देश पर अनाज की कमी का संकट था। तब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के आह्वान पर नागरिक उपवास भी कर रहे थे। ऐसे में नोबल पुरस्कार से सम्मानित डॉक्टर बोरलॉग के साथ मिलकर डॉ. स्वामीनाथन ने कृषि में जो आमूलचूल परिवर्तन किया, उससे देश न केवल आत्मनिर्भर हुआ, बल्कि इतना अधिक उत्पादन होने लगा कि देश निर्यात भी करने लगा। उन्होंने नये बीजों और रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से किसान को खुशहाल बना दिया। पंजाब में तो इन तकनीकों के इस्तेमाल से जो सम्पन्नता की लहर चली वह आज तक कायम है।
उनसे इस बात की भी चर्चा हुई कि केमिकल फर्टिलाइजर से ज़मीन की उपजाउ शक्ति कम हो जाती है और कुछ समय बाद इसके दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं। इस पर उनका कहना था कि तब अपने देशवासियों को अकाल और भूख से बचाना ज़रूरी था। यहां तक कि मेक्सिकन किस्म से लाल रंग का गेहूं पैदा होता था जो देखने और सेवन करने में नापसंद था। इस लिए ऐसी किस्म विकसित की जो हमारे देसी सुनहरे रंग की उपज देती थी और पौष्टिक गुणों से भरपूर थी। पंजाब और आसपास के राज्य इससे बहुत लाभान्वित हुए। कहने लगे कि यह उस समय की आवश्यकता थी, लेकिन अब उन्होंने आर्गेनिक खेती को प्राथमिकता दी। इसके लिए उनके द्वारा स्थापित फाउंडेशन बहुत प्रशंसनीय कार्य कर रही है। उनकी पुत्री सौम्या इसके माध्यम से उनके सपनों को पूरा कर रही हैं।आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने जो विरासत छोड़ी है वह अनंत काल तक जीवित रहेगी। इसका एक उदाहरण यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर स्वामीनाथन रिपोर्ट का ही हवाला दिया जाता है। उनका बनाया फार्मूला पुर्ण रूप में अपनाया जाए तो कृषि संबंधित बहुत-सी समस्याओं का हल तुरंत हो सकता है। उनके मन में हमेशा किसान के प्रति सम्मान रहता था। उनका मानना था कि खेतिहर तब ही सुखी रह सकता है जब उसे उसकी फसल के सही दाम मिलें, वह आधुनिक तकनीक अपनाने को तैयार है, लेकिन उस तक उसका पहुंचना आसान हो, कज़र् से राहत मिलना उसका अधिकार है और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा देना सरकार का कर्त्तव्य है। यदि इतनी-सी बात किसान और सरकार की समझ में आ जाये तो फिर किसी आंदोलन की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।
महिलाओं को खेतीबाड़ी करने और आवश्यक संसाधन जुटाने का प्रशिक्षण देने में हमेशा प्रयासरत रहे। उनके बनाए अनेक महिला स्व-सहायता समूह इसका प्रमाण है। उनके द्वारा किए गए प्रयोग महिलाओं की रुचि के अनुसार होते हैं। डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन का निधन अपूरणीय क्षति है, लेकिन उन्होंने जिन सपनों को संजोया, उन्हें पूरा करने के लिए प्रयत्य करते रहना उन्हें वास्तविक श्रद्धांजलि होगी। उनकी स्मृति को शत-शत नमन।

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