मेरे हिस्से का एम.एस. स्वामीनाथन

मेरी तीन दशक की सरकारी नौकरी का संबंध केन्द्र के कृषि व ग्राम विकास मंत्रालय से रहा है। मैंने एम.एस. रंधावा, अमरीक सिंह चीमा तथा जी.एस. कालकट्ट जैसे कृषि वैज्ञानिकों के साथ काम किया है। इस अवधि में मेरा ऐसे महारथियों के साथ सम्पर्क हुआ जो देश की कृषि व्यवस्था को समर्पित थे। उनमें एम.एस. स्वामीनाथन प्रमुख हैं। मैडीकल डाक्टर की संतान होने के बावजूद उन्होंने कृषि विज्ञान को अपनाया। 18 वर्ष के युवा स्वामीनाथन को 1943 के बंगाल अकाल ने इतना झिंजोड़ा कि उनके मन पर देश को अनाज के मामले में आत्म-निर्भर बनाने की गहरी रेखा खिंच गई। 
जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनसे बात की तो उन्होंने अपने देश में गेहूं की उपज में क्रांति लाने के लिए नार्मन बोरलाग द्वारा मैक्सिको में अपनाए गये छोटे कद वाले गेहूं के माडल को अपने देश में लागू करके हैरान करने वाली सफलता हासिल की। तब स्वामीनाथन नई दिल्ली के पटेल नगर क्षेत्र में पड़ते पूसा इंस्टीच्यूट में तैनात थे। उन्होंने छोटे कद का गेहूं पैदा करके इसके बीजों की छोटी थैलियां पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहुंचा कर 1966-67 में गेहूं की उपज 1947 के 60 लाख टन के स्थान पर पौने दो सौ करोड़ टन तक पहुंचा दी। 
इन दिनों में ही मैं अपने पैतृक गांव (सूनी, तहसील गढ़शंकर, ज़िला होशियापुर) तथा निकटवर्ती गांव में छोटे कद के गेहूं के बीज का प्रचार करने का मन बनाया तो मुझे एम.एस. रंधावा ने स्वामीनाथन के पास भेज दिया। मैं अपने पुराने सहकर्मी मुत्थुस्वामी को साथ लेकर स्वामीनाथन से मिला। मुझे इस मुलाकात के समय स्वामीनाथन द्वारा कहे ये शब्द आज तक याद हैं कि ‘यह काम पंजाबी किसान कर सकते हैं, तामिलियन नहीं।’ फिर उन्होंने हमें बीज वितरण करने वाले अधिकारी के पास भेजते हुए उसे कहा कि इस पंजाबी युवक के दोबारा मेरे पास न आना पड़े। वह दिन तथा यह दिन मेरी स्वामीनाथन के साथ पुन: कोई मुलाकात नहीं हुई। 
मैं शनिवार को पूसा से बीज प्राप्त करके रात की गाड़ी में सवार होकर सुबह तक लुधियाना के रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाता था जिसकी पार्किंग लाट में मेरा स्कूटर मेरा इन्तज़ार कर रहा होता था। मैं पूसा से प्राप्त किए बीजों सहित स्कूटर पर सवार होकर फिल्लौर तथा बंगा से चालीस मील का रास्ता तय करते हुए सवेर की चाय के समय तक अपने गांव सूनी पहुंच जाता था। नये बीजों की चर्चा तो बहुत थी, परन्तु यह मेरे बापू जी को नहीं भाते थे।  
हुआ यह कि सभी खेतों में बिजाई हो गई। पूसा वालों से भी हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश वाले भी इतने ही बीज ले जा चुके थे कि उनका खज़ाना खाली हो गया। यह सबब की बात है कि सप्ताह के बाद मेरे हाथ 10 किलो बीज और लग गया जिसे लेकर मैं एक बार फिर रात की गाड़ी चढ़ गया। घर पहुंचा तो मेरे माता-पिता हैरान रह गए, क्योंकि हमारे खेतों में बिजाई हो चुकी थी। जो खेत नये बीजों की पहुंच बोये गए थे उनमें गेहूं की फसल कुछ ऊंची हो चुकी थी। मैंने अपने माता-पिता को मनाने की यत्न किया कि उस पर सुहागा फेर कर उसके स्थान पर मेरे द्वारा लाए गए बीज बोये जाएं। मेरी मां तो चुप रही परन्तु बापू जी नहीं मान रहे थे। वह इन्कार करके घर से गांव की ओर चले गए। मैंने इस अवसर का लाभ लेकर मां का तो विश्वास जीत कर बैल खोले और उगी हुई गेहूं पर सुहागा चलाना शुरू कर दिया। नया बीज पूरा न होने के कारण मैंने खेत का लगभग चौथा हिस्सा नहीं छेड़ा। उधर बापू जी भी गांव का चक्कर लगा कर घर पहुंचे तो उन्हें मेरी मां से पूरी खबर मिल गई। वह खेत में पहुंच कर  मेरा कृत्य देख कर थोड़ी देर तो चुप रहे, फिर मुझे सुहागे से उतार कर स्वयं सुहागे पर चढ़ते समय सिर्फ इतना ही बोले, ‘देख लेंगे पहले बीजे गये बीज के स्थान पर तेरे वालों के कौन से अंगूर लगेंगे। जो होना था हो चुका, तूं घर जाकर मेरे लिए चाय भिजवा दे।’
मैं घर जाने के बजाय पड़ोसी गांव के उस किसान के पास चला गया जिसके खेत का मुंडेर हमारे खेत से साझा था और जिसके खेत में ट्यूबवैल लगा हुआ था। मैं जानता था कि नई गेहूं को नई खाद तथा पानी की ज़रूरत थी। मैंने उस किसान को पैसे के पानी के लिए मना लिया। वह भी खुश, मैं भी। उधर चाय भी आ चुकी थी जो मैं तथा बापू जी ने चुपचाप पी। एक दूसरे से एक भी शब्द साझा किए बिना। 
मेरा गांव में आना जारी रहा। नये बीजों के लिए रासायनिक खाद भी चाहिए थी और कीट नाशक दवाइयां भी, जिनका प्रबंध मैं ही कर सकता था। कुछ दिनों के बाद बीज उग कर बढ़ने लगे तो पड़ोसी गांवों के लोग देखने आते। मेरे पिता के पास मेरी प्रशंसा भी करते और अगले वर्ष के लिए बीजों की मांग भी करते। बापू जी तन-मन से खुश होते परन्तु मुंह से कुछ न बोलते। रासायनिक खाद के कारण उगी छोटे कद की गेहूं की फसल को कीटनाशक दवाइयों के इस्तेमाल से कोई रोग नहीं लगा। अत: उपज इतनी अधिक हुई कि बापू जी रिश्तेदारों के पास इसकी बात करते नहीं थकते। यह सब स्वामीनाथन के साथ मेरी दस मिनट की मुलाकात का प्रताप था। स्वामीनाथन ने मेरे क्षेत्र में लोगों को नये बीज ही नहीं दिए, अपितु तत्कालीन सरकार को न्यूनतम खरीद मूल्य के लिए भी प्रेरित किया। 
मनमोहन सिंह का जन्म दिन
मनमोहन सिंह दस वर्ष देश के प्रधानमंत्री रहे। वह इससे पहले पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री थे। अपने कार्यकाल में उन्होंने देश की अर्थ-व्यवस्था को डगमगाने नहीं दिया। सितम्बर 2023 के अंतिम सप्ताह वह 91 वर्ष के हो गए हैं। मैं उन्हें सिर्फ एक बार मिला। अपनी ‘देश सेवक’ की सम्पादकी के समय लाजपत राय भवन, चंडीगढ़ में एक समारोह में, जहां वह मुख्य मेहमान थे।