दीपक की रोशनी

दीपावली के दिन ज्यों-ज्यों नजदीक आ रहे थे, त्यों-त्यों सड़क के किनारे माटी के दीपक, सुराही, खिलौने बेचने वाले कुम्हारों की दुकाने सजने लगी। रविवार का दिन था। चेतन दीपावली की रोशनी के लिए दीपक लेने निकल पड़ा। रास्ते में उसे सुनील, गोपाल, शशिधर भी मिल गये और वे भी चेतन के साथ हो गये।  महामंदिर चौराहे पर उन्होंने एक दीपक बेचने वाले से दीपक के दाम पूछे, दुकानदार बोला दस के ग्यारह। तभी शशिधर ने कहा कि दस के बीस देते हो तो सारे के सारे माटी के दीपक दे दीजिए। यह सुनकर दुकानदार ने कहा, बाबूजी! सुबह-सुबह मजाक क्यों करते हो।
इस पर शशिधर ने कहा, भैयाजी मजाक नहीं कर रहा हूं। सही कह रहा हूं। सामने जो कच्ची बस्ती देख रहे हो उसे इस दीपावली पर माटी के दीपकों की रोशनी से जगमग कर इन बच्चों के दिलों में भी रोशनी करनी है ताकि इन्हें भी पता चल सके कि हम भी रोशनी से नहा सकते हैं। अगर कोई मददगार के दिल में दूसरों की सेवा का भी भाव हो।
यह सुनकर वह दुकानदार दस रूपए में बीस मिट्टी के दीपक देने को तैयार हो गया। यह सुनकर सुनील बोला, भैया, फिर आपने क्या कमाया। 
यह सुनकर वह दुकानदार बोला, भैयाजी! परोपकार के कार्य में नफा-नुकसान नहीं देखा जाता है। शशिधर ने दुकानदार से माटी के दीपक खरीद कर चेतन, सुनील, गोपाल को साथ लेकर दीपावली के दिन कच्ची बस्ती में पहुंच गए। उसी समय डॉक्टर आरुषि पटाके, मिठाई, बच्चों के लिए गर्म कपड़े लेकर कच्ची बस्ती पहुंची।
कुछ ही देर में कच्ची बस्ती रोशनी से जगमगा उठी और गर्म कपड़े, मिठाई एवं पटाके पाकर बच्चों के चेहरे खिल उठे। उन बच्चों को आज पता चला कि दीपावली खुशियों का त्यौहार है। जहां प्यार, स्नेह, ममता, वात्सल्य, त्याग, सहनशीलता, धैर्य और संयम होता हैं उस घर परिवार व मित्र मंडली में हर रोज दीपावली ही दीपावली है। दीपावली मात्र रोशनी का दिन ही नहीं है अपितु यह हमें एक-दूसरे के संग मेल मिलाप बढ़ाने की सीख देता हैं। अत: हर रोज दीपावली मनाइएं। सेवा ही कर्म हैं, सेवा ही धर्म है और परोपकार ही दीपोत्सव हैं। (सुमन सागर)