हमें किसी की परवाह नहीं !

पहले से ही लगातार पराली जलाने के समाचारों से उठे ज़हरीले धुएं से उत्तर भारत का पर्यावरण बेहद खराब हो चुका है। हर तरफ धुआं फैला दिखाई देता था। खेतों में लगाई गई आग स्पष्ट रूप से यह दर्शाती थी कि पंजाब में सरकार तथा प्रशासन नाम की कोई चीज़ नहीं है। धान की फसल की बुआई से लेकर उसकी कटाई तक सरकार प्रतिदिन इस ़फसल के संबंध में अनेक तरह की विज्ञापनबाज़ी करती रही थी। इस फसल के लिए भूमि के नीचे वाले पानी के लगातार किये जा रहे उपयोग से भूमि का गिरता जा रहा पानी का स्तर जो अब ़खतरनाक सीमा तक पहुंच गया है, की भी चर्चा होती रही है। पानी को बचाने संबंधी कई तरह के सुझाव दिये जाते रहे हैं परन्तु किसी ने इस की परवाह नहीं की। फसल की कटाई के बाद खेतों के अवशेषों को आग लगाने संबंधी भी बड़ी नसीहतें तथा निर्देश दिए जाते रहे, परन्तु इसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा, अपितु इसकी अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं ज़रूर देखने को मिलीं। सरकार इस मुहाज़ पर पूरी तरह विफल हो गई है।
खेतों को आग लगाने के समाचार हरियाणा से भी आते रहे परन्तु पंजाब के मुकाबले में वे बेहद कम थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धान की बुआई होती है परन्तु वहां ऐसा रुझान नाममात्र ही रहा। इसके साथ ही फैले  ऐसे प्रदूषण के समय ही दीवाली का त्यौहार भी आ गया। इस संबंध में पिछले कड़वे, कटु एवं ़खतरनाक अनुभवों के आधार पर देश के सर्वोच्च न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा नोटिस लेते हुए रिवायती पटाखे चलाने पर पूरी तरह पाबन्दी लगाने के आदेश दिए थे। ऐसी पाबन्दी सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित नहीं थी, अपितु यह सभी क्षेत्रों पर लागू करने के निर्देश दिए गए थे परन्तु दीवाली वाली रात सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे आदेश की जिस तरह दिल्ली तथा समूचे उत्तर भारत में धज्जियां उड़ाई गईं, उससे यह बात सुनिश्चित हो गई है कि देश में किसी तरह के अनुशासन के लिए कोई स्थान नहीं है। प्रतीत तो यह होता था कि ऐसे आदेशों की खिल्ली उड़ाते हुये लोगों ने इस बार लगातार और अधिक से अधिक पटाखे चला कर तथा आतिशबाज़ी करके यह बता दिया कि उन्हें अनुशासन के साथ-साथ समाज में विचरण करते लोगों की कोई भी चिन्ता नहीं है। खास तौर पर बच्चों की जिन पर ऐसे प्रदूषण का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। बच्चों में फैलती कैंसर जैसी नामुराद बीमारी का बड़ा कारण पर्यावरण में फैला प्रदूषण ही है। लोगों के स्वास्थ्य के साथ यह बड़ा खिलवाड़ है। कैंसर के अलावा खांसी, जुकाम, अस्थमा, जोड़ों के दर्द तथा दिल के रोगों जैसी बीमारियों को बढ़ाने में प्रदूषित पर्यावरण भारी योगदान डालता है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिये कोई ऐसे किये गये कार्यों को आर्थिकता के साथ जोड़ता है तथा कोई धर्म के साथ। हैरानी इस बात की भी है कि यदि कुछ लोग या वर्ग ऐसा करते हैं तो उनके विरुद्ध भी समाज द्वारा कोई कड़ी या बड़ी प्रतिक्रिया नहीं होती, अपितु सभी की ओर से इसका ठीकरा सरकार पर ही फोड़ा जाता है। पहले ही भारतीय समाज अनेक कारणों के दृष्टिगत बीमार हो चुका है। ऐसी लापरवाहियां इसे और भी बीमार तथा कमज़ोर कर रही हैं। इस संबंध में कोई प्रभावशाली योजनाबंदी करने तथा सामूहिक रूप में कड़े कदम उठाने में देश पूरी तरह पिछड़ गया प्रतीत होता है, जिसका अब परमात्मा ही रक्षक है। एक तरफ हम चांद-सितारों के अनुसंधान करने की डींगें हांक रहे हैं, दूसरी तरफ स्वयं ही देश को पाताल में धकेलने हेतु कोई झिझक नहीं दिखा रहे, जो हम सभी के लिए बेहद बेचैन करने वाला मंज़र है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द