कांग्रेस की स्थिति सुधरी लेकिन दिल्ली अभी भी दूर

यह बात अक्सर पूछी जाती है कि क्या कांग्रेस  भारतीय जनता पार्टी और उसके शक्तिशाली नेता नरेंद्र मोदी को 2024 के चुनाव में मज़बूत चुनौती देने की स्थिति में है? इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस राज्यों में भाजपा को कई बार हरा देती है। 2018 में उसने राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे अहम क्षेत्रों में सरकार बनाई थी लेकिन  2019 में वह लोकसभा के मोर्चे पर इन्हीं राज्यों में बुरी तरह से पराजित हो गई थी। तभी से यह भावना बन गई है कि भाजपा और मोदी को लोकसभा में हराना कांग्रेस के बस की बात नहीं है। क्षेत्रीय शक्तियों के भाजपा विरोधी प्रदर्शन के दम पर यह नहीं माना जा सकता कि मोदी के रथ को रोका जा सकता है। क्षेत्रीय शक्तियां तो 2019 में भी भाजपा से आगे थीं। दरअसल चुनाव तो कांग्रेस को जीतना होगा। कांग्रेस को अपने प्रभाव-क्षेत्र में भाजपा से पचास प्रतिशत सीटें छीननी होंगी। अगर वह ऐसा नहीं कर पाएगी तो राज्यों में उसकी जीत राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने में धीरे-धीरे असमर्थ होती चली जाएगी। 
उस वोटर को यह य़कीन कांग्रेस को ही दिलाना होगा कि वह न केवल राज्य विधानसभा चुनाव में ही नहीं बल्कि लोकसभा के संदर्भ में भाजपा से बेहतर सरकार देने में सक्षम होगी। मोदी सरकार को दस साल हो चुके हैं। अब उसकी नवीनता ़खत्म हो चुकी है। उसके काम करने की शैली और ़खामियां लोगों के सामने स्पष्ट हैं। लेकिन इतना समय बीत जाने के बावजूद ऊपर से देखने में भाजपा के खिलाफ कोई स्पष्ट एंटीइनकम्बेंसी (सत्ता विरोधी भावना) नहीं दिख रही है। ज़ाहिर है कि यह परिस्थिति कांग्रेस की चुनौती और बढ़ा देती है। भारतीय राजनीति का मिजाज़ बहुत नाज़ुक है। ऊपर से कांग्रेस के मुकाबले खड़ी भाजपा अनूठी राजनीतिक इच्छाशक्ति से सम्पन्न है। उसके आधार में संघ का विशाल संगठन खड़ा है, जो अपनी राजनीति को समाजनीति के लहज़े में करता है। इतने शक्तिशाली प्रतियोगी से कांग्रेस पहली बार म़ुकाबला कर रही है।    
दरअसल, किसी भी लोकतंत्र के राजनीतिक स्वास्थ का पता उसकी उन पार्टियों की तंदरुस्ती से लगाया जा सकता है, जो राष्ट्रीय स्तर की होती हैं। भारतीय जनता पार्टी हमारे यहां की सबसे त़ाकतवर और प्रभावी राष्ट्रीय पार्टी है। लेकिन क्या भाजपा का विस्तार दूसरी राष्ट्रीय पार्टियों, खासकर कांग्रेस की कीमत पर हो रहा है? अगर ऐसा है तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है। खास तौर से 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत के बाद से ही कांग्रेस के सांगठनिक और राजनीतिक प्रभाव में आई चौतरफा गिरावट संदेश देती है कि हमारी राजनीतिक प्रणाली असंतुलन की शिकार होती जा रही है। इस बीच में आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय हैसियत ज़रूर मिली है, लेकिन इस दल की उम्र अभी बहुत कम है और आकार तथा विस्तार के लिहाज़ से वह भाजपा और कांग्रेस की श्रेणी में नहीं रखी जा सकती। जब तक कांग्रेस अपने हुलिये को दुरुस्त नहीं करती, तब तक यह असंतुलन राजनीतिक प्रतियोगिता की संरचना को एकतरफा बनाता रहेगा। 
इस लिहाज़ से देखने पर पिछले 14 महीने कुछ भरोसा थमाते हुए लगते हैं। यही है वह अवधि जब कांग्रेस अपने आप को उस गर्त से उठाते हुए दिखती है, जिसमें वह 2019 के चुनाव की पराजय के बाद गिर गई थी। एक बार तो ऐसा लगा था कि कांग्रेस एक मरी हुई पार्टी बन गई जिसका भविष्य पूरी तरह से अंधकारमय है। कांग्रेस की यह दुर्गति भाजपा को प्रभुत्व से वर्चस्व की स्थिति की तरफ ले जाती हुई दिखने लगी थी। लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जैसे ही पिछले साल सितम्बर में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू की, वैसे ही इस पार्टी और उसके नेतृत्व में जीवन के चिन्ह दिखाई देने लगे। दरअसल, इस प्रकरण को केवल एक यात्रा की तरह देखना उचित नहीं होगा। 
मेरे विचार से 136 दिन लम्बा यह जनसम्पर्क अभियान एक बहुमुखी रणनीति का पहला आयाम था। इसका दूसरा आयाम था मल्लिकार्जुन खड़गे (संगठन) और राहुल गांधी (जनगोलबंदी) के बीच काम का कारगर बंटवारा। इसका तीसरा आयाम था कांग्रेस द्वारा अपनी रणनीति के दो पहलुओं पर खास तौर से करना। इनमें पहला था अल्पसंख्यक वोटों को अपनी ओर खींचने के लिए मतदाताओं को एक नयी कहानी सुनाना। यह काम राहुल गांधी ने यात्रा के दौरान ‘मुहब्बत की दूकान’ वाले ़िफकरे के ज़रिये ब़खूबी किया। दूसरा था ़़गैर-भाजपा विपक्ष की एकता के प्रयासों को नियोजित गतिशीलता प्रदान करना। यह काम करने की ज़िम्मेदारी खड़गे और सोनिया गांधी ने निभाई। इन दोनों ने नितीश कुमार, शरद पवार, ममता बनर्जी और बहुत हद तक अरविंद केजरीवाल के साथ मिल कर एक ऐसे गठजोड़ को जन्म दिया, जो पिछले दो लोकसभा चुनावों में नदारद था।
इसका चौथा आयाम था कांग्रेस के सांगठनिक जीवन में उसके प्रादेशिक नेताओं (कर्नाटक में सिद्धरमैया, हिमाचल प्रदेश में सुखू, मध्य-प्रदेश में कमलनाथ, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल, तेलंगाना में रेवंत रेड्डी, राजस्थान में अशोक गहलोत) के महत्व की प्रतिष्ठा। इसका पांचवां आयाम था जातिगत जनगणना और ओ.बी.सी. राजनीति को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने का आग्रह। इस पंचमुखी रणनीति को जिसे पिछले साल भर में त़करीबन एक साथ धरती पर उतारा गया है। इसका चुनावी ़फोकस पिछड़ी जातियों और मुसलमान वोटरों के बीच लोकप्रिय होना है। 
पहले कांग्रेस के निरंतर प्रभाव पर ताज्जुब होता था, अब समीक्षकों को उसके इस तरह खड़े होते चले जाने और भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में आते जाने पर आश्चर्य होने लगा। कांग्रेस की इस साल भर पुरानी यात्रा के जो भी सुखद परिणाम निकल हों, उनकी एक ऐसी ़खास बात थी जिस पर अक्सर चर्चा नहीं होती है। यह है देश की सबसे पुरानी पार्टी को मिले नवजीवन में भाजपा की भूमिका। 
भाजपा ने हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में चुनाव के पहले और लड़ने के दौरान कई तरह की गलतियां कीं। उसके आलाकमान ने अपनी कर्नाटक सरकार की अलोकप्रियता को समझने से इन्कार कर दिया। इसी तरह वह दोनों प्रदेशों में चल रही ज़बरदस्त गुटबाज़ी के नकारात्मक पहलुओं को दूर नहीं कर सका। दूसरे, प्रधानमंत्री की करिश्माई हस्ती पर हद से ज्यादा भरोसा ने भाजपा की तरफ से वे गुंजाइशें पैदा कीं, जिनमें कांग्रेस ़खुद को पनपा सकी। कांग्रेस को लगातार नीचा दिखाने, राहुल गांधी का लगातार मज़ाक उड़ाने और समग्र विपक्ष को ़खत्म कर देने के राजनीतिक मुहावरे की अति हो जाने कारण भी आम लोगों ने कांग्रेस की तरफ कुछ-कुछ हमदर्दी से देखना शुरू किया। 
इसका मतलब यह नहीं निकला जाना चाहिए कि कांग्रेस की इस कहानी का अंत अगले साल उसके सत्तारूढ़ होने में निकलने वाला है। अभी तो कांग्रेस केवल स्वयं को भाजपा की टक्कर के लिए तैयार करने की स्थिति में आ पाई है। उसे बहुत कुछ साबित करना है। उसे राज्यों के चुनावों में प्रभावी जीत हासिल करनी है। उसे चार राज्यों में से तीन को तो जीतना ही होगा। फिर उसे यह साबित करना है कि वह 2024 में 2019 का दोहराव नहीं होने देगी। पिछली बार 2018 में कांग्रेस राज्यों का चुनाव जीत कर मुगालते में आ गई थी। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तो यह है कि कांग्रेस को अपना प्रदर्शन सुधारने के साथ-साथ गठजोड़ राजनीति के बेहतरीन रणनीतिकार के रूप में उभरना होगा। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।