पर्यावरण को प्लास्टिक के बढ़ते ़खतरे से बचाया जाए

पर्यावरण को इस समय यदि किसी से खतरा है तो वह है प्लास्टिक का बढ़ता ढेर, जो न तो गलता है और न मिट्टी में मिलता है। इसे नष्ट करने की प्रक्रिया भी पर्यावरण के अनुकूल नहीं है। फिर क्यों इसे अपनाया जा रहा है? पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले कारकों में प्लास्टिक का प्रमुख स्थान है। एक अनुमान के मुताबिक देश में इस्पात के बाद प्लास्टिक सर्वाधिक इस्तेमाल की जाने वाली वस्तु है। 
इससे निर्मित वस्तुएं पूरे भारतीय जनजीवन में रची-बसी हुई हैं। प्लास्टिक मुख्यत: हाइड्रोजन और पेट्रोलियम पदार्थों से बनता है, जो स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं। इसका इस्तेमाल खूब हो रहा है, लेकिन प्लास्टिक का कूड़ा हर जगह इकट्ठा होता जा रहा है। चिंता की बात यह है कि प्लास्टिक को नष्ट करना टेढ़ी खीर है। यह धरती से अगर संबद्ध है तो धरती को बंजर बना देगा और अगर इसे जलाया जाता है तो प्रदूषण पैदा करता है। सही अर्थों में पालीथीन मानव जीवन के साथ-साथ पर्यावरण को सीधे प्रभावित कर रहा है। प्लास्टिक सस्ता होने के कारण अत्यधिक प्रयोग में आता है। अरबों की पूंजी इस उद्योग में समाहित है। लोग धड़ल्ले से इसका इस्तेमाल करते हैं।
कोई भी सामान रखना हो, पॉलीथीन हाज़िर है। कूड़े में जब पॉलीथीन की मात्रा अधिक होती है तो वहां का पानी सही ढंग से रिचार्ज न होने के कारण जल स्तर काफी नीचे चला जाता है, जिससे जल संकट की आशंका बढ़ जाती है। प्लास्टिक चप्पलों व जूतों आदि के लगातार इस्तेमाल से चर्म रोग होने की आशंका बनी रहती है। दैनिक जीवन में तो इसका साम्राज्य व्यापक रूप से फैला हुआ है। लगभग सभी तरह के खाद्य पदार्थ पॉलीथीन के सीधे सम्पर्क में आने से रासायनिक क्रिया के जरिए रोगों को जन्म देते हैं। बच्चों को दिया जाने वाला टिफिन का भोजन भी ज़हरीला बन सकता है। अकसर देखा गया है कि लोग खुला अचार खरीद कर पॉलीथीन में ले जाते हैं। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है, अचार में ज्यादातर एसिड मिला होता है, जो पॉलीथीन के सम्पर्क में आने से ज़हरीला हो जाता है।
आज ज़रूरत है कि हम दृढ़-प्रतिज्ञ होकर पॉलीथीन का इस्तेमाल बंद कर दें। इससे पर्यावरण की व्यापक स्तर पर क्षति हो रही है। प्लास्टिक कचरा सबसे ज्यादा असुविधाजनक हो गया है। नगरों, महानगरों का कूड़ा जब सफाई कर्मी एकत्र करते हैं तो उसमें सबसे ज्यादा कचरा पॉलीथीन का ही मिलता है। पॉलीथीन नालियों, गटर आदि में फंसकर पानी के बहाव को अवरुद्ध करता है और सबसे बड़ी समस्या इसके नष्ट न होने से है। इसलिए आवश्यक है कि इसका इस्तेमाल न किया जाए। स्वयंसेवी संस्थाएं इस संबंध में जागरूकता अभियान चला कर इसके इस्तेमाल को काफी कम कर सकती हैं। ज़रूरत है दृढ़ इच्छाशक्ति की।