भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश का जन्म  बेहद ज़रूरी है सैनिकों की ज़रूरतों का ध्यान रखना

दिसम्बर का महीना दो विशेष घटनाओं—एक तेरह तारीख को संसद पर हुए हमले और दूसरी सोलह दिसम्बर को भारत की पाकिस्तान पर जीत और बांग्लादेश के जन्म के लिये जाना जाता है। लड़ाई चाहे किसी भी स्तर की हो, कुछ पक्षों को छोड़कर अधिकतर देशों के लिए नुकसानदायक ही होती है। फिर भी कई बार लड़ना ज़रूरी हो जाता है क्योंकि आज़ादी, संप्रभुता से लेकर अस्तित्व तक जब खतरे में हो तो इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता। विश्लेषण यह करना चाहिए कि कोई देश किस तरह बातचीत के ज़रिये इस विभीषिका से बचा रह सकता है?
वर्तमान के संदर्भ में
इतिहास गवाह है कि जब दो देश किसी बात पर लड़ते हैं और दोनों ही को अपना पक्ष न्यायसंगत दिखाई दे रहा हो तो वे यह सोचने लगते हैं कि कोई तीसरा आकर बीच बचाव यानी मध्यस्थता कर दे तो लड़ाई बंद हो सकती है। अब जो बीच में पड़ेगा तो वह यह तो देखेगा कि इनकी लड़ाई सुलझाने में उसका क्या फायदा है। बस गड़बड़ यहीं से शुरू होती है। दुनिया में जितने भी संघर्ष हुए या हो रहे हैं, उनमें जब किसी चौधरी का हस्तक्षेप हुआ तो लड़ाई लम्बी खिंच गई। उल्लेखनीय है कि दो चौधरियों अमरीका और रूस का ही हर युद्ध से फायदा होता रहा है। उनकी आर्थिक स्थिति मज़बूत होती है और सोच यह होती है कि कैसे उनके हथियारों के ज़खीरे को उन देशों को सहायता देकर या सीधे बेच कर मुनाफा कमाया जाए। यह उनकी मज़र्ी पर हो जाता है कि वे कब संघर्ष खत्म करने की पहल के लिए अपना रुख स्पष्ट करेंगे और तब तक लड़ रहे देश बर्बादी की तरफ  बढ़ते जाते हैं।
वर्तमान में रुस और यूक्रेन के बीच युद्ध इसलिए समाप्त नहीं हो रहा क्योंकि उसमें एक चौधरी है और दूसरा वह जो कभी उसके अधीन था। कोई ऐसे ही तो किसी को अपने चंगुल से निकलने नहीं देता, इसलिए यह युद्ध जल्दी समाप्त होने वाला नहीं। दूसरी लड़ाई इज़रायल और आतंकी संगठन हमास के बीच की है, यह भी उनकी अंदरूनी लड़ाई है, लेकिन अमरीका की दखलंदाज़ी के कारण वहां भी जल्दी शांति स्थापित होने की उम्मीद नहीं है। एक घटना अपने देश की भी है। अच्छे खासे ढंग से पाकिस्तान को धूल चटाकर हम कश्मीर को अपने देश का अभिन्न अंग बना चुके थे, लेकिन इस मामले को अमरीका के प्रभाव वाले संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने के बाद से आज तक जनमत संग्रह की दलील दी जाती रही है, जो असंभव है। यही हश्र होता है जब अपनी शक्ति को कम आंक कर दूसरों को अपने पर हावी होने का मौका दिया जाता है। अगर अपने ही देश में किसी व्यक्ति को नीचा दिखाने के लिए विदेशी ताकतों के साथ हाथ मिलाने की कोशिश हो तो यह सरासर देशद्रोह है। विजय दिवस मनाते समय तब के हालात सामने तैरने लगते हैं तो निष्कर्ष यही निकलता है कि यदि तत्कालीन प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष ने दूरदर्शिता से काम नहीं लिया होता और किसी भी विदेशी ताकत के चौधरी बन जाने के मंसूबों पर लगाम नहीं लगाई होती तो क्या होता?
भारत-पाक युद्ध
बांग्लादेश के जन्म पर प्रमाणित तथ्यों पर आधारित पुस्तक ‘यूँ जन्मा बांग्लादेश’ के लेखक बीएसएफ  से रिटायर्ड वी. के. गौड़ जो उस समय महा निरीक्षक थे और इस युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाह रहे थे, ने तब की स्थितियों का वर्णन किया है।
जब भारत ने मुक्तिवाहिनी की सहायता करने का निश्चय किया तो सबसे पहले मुक्ति योद्धाओं को संगठित, प्रशिक्षित करने और उन्हें गुरिल्ला ऑपरेशन चलाने में सक्षम बनाने के लिए साजो-सामान उपलब्ध कराने का निर्णय लिया गया। इससे पाकिस्तानी सेना के हौसले पस्त करने में मदद मिली। शुरुआत बीस हज़ार सैनिकों से हुई जो एक लाख तक हो गई। नवम्बर तक भारतीय सेना और बीएसएफ  ने अनेक चौकियों पर कब्जा कर लिया, मुक्ति योद्धाओं ने एक हज़ार से अधिक हमलों व छापों में रेल पुलों, रोड ट्रैक सेक्शनों को तबाह कर दिया। तीस नवम्बर तक भीषण युद्ध हुआ तीन दिसम्बर को बौखलाहट में पाकिस्तान ने भारत से युद्ध की घोषणा की और उसकी समाप्ति सोलह दिसम्बर को बांग्लादेश के जन्म के साथ हुई। पाकिस्तानी सेना ने बड़े नाटकीय ढंग से भारतीय सेना, बीएसएफ  और मुक्ति संग्राम के अभियान दलों के आगे समर्पण कर दिया। राष्ट्रीय स्तर पर विशाल समारोह हुआ। हमारे लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा और पाकिस्तान के नियाजी ने संधि पर हस्ताक्षर किए और दुनिया ने पहली बार किसी देश के दो टुकड़े होते हुए और उसके सैनिकों को भारत के सामने आत्म-समर्पण करते हुए देखा।
पाकिस्तान की हार और भारत की जीत के कारणों पर जायें तो पता चलता है कि पाकिस्तानी सैनिक तो वीर थे, लेकिन उनके अफसर भ्रष्ट और दुष्कर्मी थे। जब कोई अफसर सैनिक की बजाय प्रशासक बन जाता है तो यही होता है। जहां तक भारत की बात है, उसके सैनिक तो वीर थे ही और अफसर कर्तव्यनिष्ठ, चरित्रवान, साहसी और देश की आन बान पर सब कुछ न्योछावर करने वाले थे। उन्हें स्वयम् से अधिक अपनी वर्दी के सम्मान की चिंता थी।
सोचना यह चाहिए
विजय दिवस पर चिंतन यह करना चाहिए कि किस प्रकार अपने देश को युद्ध के खतरों से बचाते हुए कूटनीति से चीन और पाकिस्तान के गलत इरादों को मिट्टी में मिलाया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारी सीमाओं पर पर्याप्त सुरक्षा है, लेकिन शत्रु इसमें सेंध लगाने में कामयाब नहीं होगा, इसकी गारंटी होनी चाहिए। इसके बाद सशस्त्र सेनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए कदम उठाने होंगे। पिछले दस वर्षों में ही गंभीर भ्रष्टाचार के एक हज़ार से अधिक मामले हुए हैं। जनरल विपिन रावत ने सेना में भ्रष्टाचार को स्वयं स्वीकारा है।
इसका कारण यही है कि जब सैनिक के हाथ में प्रशासन थमा दिया जाता है और वह सीधे ठेकेदारों के सम्पर्क में आता है तो भ्रष्ट होने के अवसर मिल ही जाते हैं। यही नहीं अफसर अपनी सुख-सुविधाएं सुनिश्चित कर लेते हैं और जो सैनिक है, वह मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित रहता है। व्यक्तिगत अनुभव है क्योंकि सेना और अर्ध सैनिक बलों के लिए फिल्में बनाते समय देखा है कि कैसे अधिकारी के पास तो मौसम की मार का सामना करने के सभी साधन हैं, लेकिन सीमा पर तैनात सैनिक के पास न के बराबर हैं। माइनस तापमान में अपने को ज़िंदा रख पाना और अपनी चौकी की रक्षा भी कर लेना, यह उनका अदम्य साहस है।
लड़ते हुए शहीद हो जाना गौरव की बात है, लेकिन उचित सुविधाओं के अभाव के कारण गंभीर बीमारियों का शिकार होकर एक अपंग का जीवन बिताना एक सच्चाई है। अवसाद के कारण आत्महत्या कर लेना, अपने ही साथी को मामूली-सी बात पर गोली मार देना भी सच है। कोई भी सेना या बल हो, केवल साहसी कहलाने के लिए नहीं हैं, बल्कि उनकी भी सुरक्षा और आवश्यक सुविधाओं का ध्यान रखा जाना आवश्यक है। उनमें निराशा या घबराहट न हो, इसकी तरफ  सरकार का ध्यान ही नहीं जाता, उनसे केवल त्याग की अपेक्षा रहती है। यह कैसे संभव है कि उनकी मानवीय ज़रूरतों को समझे और पूरा किए बिना उनसे सर्वोच्च बलिदान की उम्मीद रखी जाये? केवल कुछ अवसरों पर उनके साथ फोटोशूट करा लेना ही काफी नहीं है, सैनिक के मन को समझना भी आवश्यक है। विडम्बना यह है कि जब कोई सेना नायक राजनीति में आकर और अपने हाथ में शक्ति होते हुए उसका इस्तेमाल नहीं करता, सैनिकों की दशा सुधारने और उन्हें सही दिशा दिये जाने की व्यवस्था करने से चूक जाता है तो क्या कहा जाए?