हिन्दी सिनेमा के शोमैन थे राज कपूर

राजकपूर हिंदी सिनेमा के पहले शोमैन थे। जिनकी नीली आंखों में सतरंगी सपने थे। वो आम आदमी के फिल्मकार थे और उन्होंने अपनी फिल्मों में आम आदमी के दु:ख-दर्द, उनकी आशा-निराशा, स्वप्न और संघर्ष को बड़े ही खूबसूरती से अभिव्यक्ति दी। ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘अनाड़ी’, ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘संगम’ और ‘मेरा नाम जोकर’ जैसी फिल्में उनकी बेहतरीन अदाकारी और कल्पनाशील डायरेक्शन की वजह से जानी जाती हैं। राजकपूर नेहरू युग के प्रतिनिधि फिल्मकार थे और उन्होंने अपनी फिल्मों के ज़रिये उस दौर की बेहतरीन तर्जुमानी की। खास तौर पर उनकी शुरुआती फिल्मों को देखने के बाद लगता है कि उस दौर में आम आदमी के संघर्ष, सपने और आकांक्षाएं क्या थीं? ख्वाजा अहमद अब्बास की इंकलाबी कलम से निकली दृष्टि सम्पन्न कहानियों को राजकपूर ने फिल्मों में इस अंदाज़ में पेश किया कि लोग उनकी फिल्मों के दीवाने हो गये। अदाकार दिलीप कुमार, देव आनंद उनके समकालीन थे और इनका फिल्मों में उस वक्त बेहद दबदबा था। इन दोनों की अदाकारी के लाखों शैदाई थे। बावजूद इसके राजकपूर ने अपने निर्देशन और शानदार अदाकारी से एक अलग पहचान बनाई। फिल्मों को नया विजन दिया। राजकपूर और उनकी फिल्मों की लोकप्रियता देश-दुनिया में असाधारण थी। दक्षिण एशिया से लेकर अरब मुल्कों, चीन, मॉरिशस और लेटिन अमरीका के लोग उनकी फिल्मों में एक अपनापन महसूस करते थे। जिसमें अविभाजित सोवियत संघ और उसके बाद अलग हुए देशों में आज भी उनकी फिल्मों के जानिब गज़ब की दीवानगी है। यहां तक कि पूंजीवादी देश भी राजकपूर की फिल्मों को पसंद करते हैं। 20वीं शताब्दी के 8वें दशक में अमरीका के कई शहरों में राजकपूर की फिल्में दिखाई गईं। जिन्हें देखने के लिए दर्शकों का सैलाब उमड़ पड़ा था।  
राजकपूर और उनकी फिल्मों की मकबूलियत का आलम यह है कि उनकी बनाई फिल्मों ने जितनी कमाई उनकी ज़िंदगी में नहीं की, उससे कहीं ज्यादा यह फिल्में आज उनके परिवार को कमा कर दे रही हैं। यही नहीं सभी फिल्मों की लागत से ज्यादा पैसा संगीत रॉयल्टी से मिला है और आज भी यह सिलसिला बंद नहीं हुआ है। मिसाल के तौर पर ‘मेरा नाम जोकर’ जब रिलीज़ हुई, बॉक्स ऑफिस पर यह नाकाम रही, मगर आज यह फिल्म खूब पसंद की जाती है। राजकपूर ने फिल्मी दुनिया में उस दौर में अपनी एक अलग पहचान बनाई, जब हिंदी सिनेमा में वी. शांताराम, मेहबूब खान, बिमल रॉय, गुरुदत्त, बी.आर. चोपड़ा जैसे दिग्गज निर्देशक एक साथ काम कर रहे थे। राजकपूर ने एक अलग ही फिल्मी मुहावरा अपनाया। मधुर गीत संगीत से सजी उनकी फिल्मों में अदाकारों के बीच एक जुदा केमिस्ट्री नज़र आती थी। उनकी फिल्मों से दर्शकों को सिर्फ मनोरंजन ही नहीं, बल्कि एक सशक्त सामाजिक संदेश भी मिलता था। भारतीयता उनकी फिल्मों की पहचान थी। ‘बूट पॉलिश’, ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘जागते रहो’, ‘फिर सुबह होगी’, ‘तीसरी कसम’ जैसी फिल्मों का तसव्वुर राजकपूर के बिना नामुमकिन है। उनकी फिल्म ‘आवारा’ को जो कामयाबी मिली, ऐसी कामयाबी बहुत कम फिल्मों को हासिल होती है। उस जमाने में समाजवादी देशों में यह फिल्म खूब पसंद की गई। पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस फिल्म की तारीफ की थी।  
14 दिसम्बर, 1924 को अविभाजित भारत के पेशावर में जन्मे रणबीर राजकपूर को अभिनय विरासत में मिला। उनके पिता पृथ्वीराज कपूर रंगमंच और सिनेमा की कद्दावर शख्सियत थे। फिल्मों में राजकपूर के रुजहान को देखते हुए, पिता पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें निर्देशक केदार शर्मा के सुपुर्द कर दिया। जिनके साथ उन्होंने क्लैपर बॉय से शुरू कर, सहायक निर्देशक की ज़िम्मेदारी भी संभाली। केदार शर्मा ने ही उन्हें अपनी फिल्म ‘नीलकमल’ में पहली बार हीरो का रोल दिया। फिल्म कोई ख़ास नहीं चली, मगर राजकपूर फिल्मी दुनिया में अपने आप को आज़माते रहे। यहां तक कि वो जब सिर्फ चौबीस साल के थे, तब उन्होंने पहली फिल्म ‘आग’ का निर्देशन किया। बेहतरीन कथानक पर बनी यह संवेदनशील फिल्म पर्दे पर भले ही कोई कमाल नहीं दिखा सकी, लेकिन फिल्मी दुनिया उनसे ज़रूर प्रभावित हुई। राजकपूर में उन्हें एक प्रतिभाशाली निर्देशक दिखाई दिया। उनके जिगरी दोस्त दिलीप कुमार की तरह राजकपूर की शुरुआती फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रहीं। फिल्मों में कामयाबी के लिए उन्हें छह साल इंतज़ार करना पड़ा। साल 1949 में आई फिल्म ‘अंदाज़’ और ‘बरसात’ ने राजकपूर को फिल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया।  
नाटक हो या फिर सिनेमा, यह तब बेहतर बनता है जब एक बेहतरीन टीम और इसमें टीम वर्क शामिल हो। राजकपूर इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ थे। लिहाज़ा वह लगातार यह कोशिश करते रहे कि यह टीम बने। बहरहाल, उनकी यह बेहतरीन टीम बनी साल 1951 में और फिल्म थी, ‘आवारा’। टीम क्या थी, गुणीजनों का जमघट था। जिसमें कहानीकार, पटकथा लेखक के तौर पर वामपंथी लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास, संगीतकार-शंकर जयकिशन की जोड़ी, गायक-गायिका मुकेश, मन्ना डे, लता मंगेशकर, कैमरामैन-राधू कर्माकर और संपादक जीजी मायेकर शामिल थे। इस टीम का जादू दो दशक तक चला। राजकपूर की इस प्रतिभाशाली टीम ने भारतीय सिनेमा को आधा दर्जन सुपर हिट फिल्में दीं। जिसमें फिल्म ‘बूट पॉलिश’, ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘संगम’ और ‘मेरा नाम जोकर’ शामिल हैं। 
राजकपूर ने यूं तो अपने दौर की हर बड़ी हीरोइन के साथ काम किया, लेकिन उनकी जोड़ी नरगिस के साथ खूब जमी। इन दोनों ने एक साथ सोलह फिल्में कीं और इनमें से ज्यादातर कामयाब रही। इस हिट जोड़ी की न भुलाये जाने वाली कुछ प्रमुख फिल्में हैं, ‘बरसात’, ‘अंदाज़’, ‘आवारा’, ‘श्री 420’, ‘चोरी-चोरी’। राजकपूर को गीत-संगीत की अच्छी समझ थी। साल 1969 में वह देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्म भूषण’ से नवाज़े गए, तो साल 1981 में उन्हें मॉस्को में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साल 1988 में भारत सरकार ने राजकपूर को हिंदोस्तानी सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘दादा साहब फालके पुरस्कार’ देने का ऐलान किया। इस पुरस्कार के मिलने से वे बेहद खुश थे। खुशी की वजह यह भी थी कि कुछ साल पहले इस सम्मान से उनके पिता पृथ्वीराज कपूर भी नवाज़े गए थे। उनके निधन उपरांत मिले इस सम्मान को राजकपूर ने ही लिया था। पृथ्वीराज कपूर यानी पापाजी को वो अपना आदर्श मानते थे। ज़िंदगी में उनका जैसा ही बनना चाहते थे। यह महज़ इत्तिफ़ाक भर है कि पृथ्वीराज कपूर और राजकपूर दोनों ही ‘पद्म भूषण’ सम्मान से सम्मानित किये गये, तो उन्हें ‘दादा साहब फालके पुरस्कार’ भी मिला। यह एक ऐसा कीर्तिमान है, जो शायद ही कभी टूटे।

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