जीवाश्म ईंधन पर नियंत्रण के उपायों तक सिमटा दुबई सम्मेलन

धरती पर रहने वाले जीव-जगत पर करीब तीन दशक से जलवायु परिवर्तन के वर्तमान और भविष्य में होने वाले संकटों की तलवार लटकी हुई है। मनुष्य और जलवायु बदलाव के बीच की दूरी निरन्तर कम हो रही है। अतएव इस संकट से निपटने के उपायों को तलाशने की दृष्टि से 198 देश पिछले दिनों दुबई जलवायु सम्मेलन कॉप-28 में एकत्रित हुए। परिचर्चाओं और वाद विवाद से निकले निष्कर्ष के तहत कोयले, तेल और गैस अर्थात जीवाश्म ईंधन का उपयोग धीरे-धीरे खत्म करना है, लेकिन विकासशील देश इस बात को लेकर थोड़े असहमत रहे कि इस समझौते की जो शर्ते हैं, एक तो वे पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं। दूसरा, उन्हें अमीर देशों की आर्थिक मदद के बिना पूरी करना आसान नहीं होगा। इस सम्मेलन का एक ही प्रमुख लक्ष्य था कि दुनिया उस रास्ते पर लौटे, जिससे बढ़ते वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक केंद्रीत किया जा सके। 100 से ज्यादा देश 2030 तक दुनिया की नवीनीकरण योग्य ऊर्जा को बढ़ाकर तीन गुणा करने पर सहमत भी हो गए। इसके अंतर्गत अक्षय ऊर्जा के प्रमुख  स्रोत सूर्य, हवा और पानी से बिजली बनाने के उपाय सुझाए गए हैं। इस सिलसिले में प्रेरणा लेने के लिए ऊरुग्वे जैसे देश का उदाहरण दिया गया, जो अपनी ज़रूरत की 98 फीसदी ऊर्जा इन्हीं स्रोतों से प्राप्त करता है, लेकिन यह एक अपवाद हैं, हकीकत यह है कि यूक्रेन और रूस तथा इज़रायल और हमास के बीच चल रहे भीषण युद्ध के कारण कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन का प्रयोग बड़ा है और बिजली उत्पादन के जिन कोयला संयंत्रों को बंद कर दिया गया था, उनका उपयोग फिर से शुरू हो गया है।
पर्यावरण विज्ञानियों ने बहुत पहले जान लिया था कि औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन और शहरी विकास से घटते जंगल से वायुमंडल का तपमान बढ़ रहा है, जो पृथ्वी के लिए घातक है। इस सदी के अंत तक पृथ्वी का तापमान 2.7 प्रतिशत बढ़ जाएगा। नतीजतन पृथ्वीवासियों को भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा। इस मानव निर्मित वैश्विक आपदा से निपटने के लिए प्रतिवर्ष एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन जिसे कांफ्रैंस ऑफ  पार्टीज (सीओपी यानी कॉप) के नाम से भी जाना जाता है। इस बार सीओपी की 28वीं बैठक दुबई में सम्पन्न हुई। सम्मेलन में बहुत कुछ नया नहीं हुआ। लगभग पुरानी बातें हीं दोहराई गईं। पेरिस समझौते के तहत वायुमंडल का तापमान औसतन 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के प्रयास के प्रति भागीदार देशों ने वचनबद्धता भी जताई, लेकिन वास्तव में अभी तक 56 देशों ने संयुक्त राष्ट्र के मानदंडों के अनुसार पर्यावरण सुधार की घोषणा की है। इनमें यूरोपीय संघ, अमरीका, चीन, जापान और भारत भी शामिल है, लेकिन रूस और यूक्रेन तथा इज़रायल और फिलिस्तीन युद्ध के चलते नहीं लगता कि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण नवीकरणीय ऊर्जा को जो बढ़ावा दिया जा रहा है, वह स्थिर रह पाएगा, क्योंकि जिन देशों ने वचनबद्धता निभाते हुए कोयला से ऊर्जा उत्सर्जन के जो संयंत्र बंद कर दिए थे, उन्हें रूस द्वारा गैस देना बंद कर दिए जाने के बाद फिर से चालू करने की तैयारियां हो रही हैं। 
2018 ऐसा वर्ष था जब भारत और चीन में कोयले से बिजली उत्पादन में कमी दर्ज की गई थी। नतीजतन भारत पहली बार इस वर्ष के ‘जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक’ में शीर्ष दस देशों में शामिल हुआ था। वहीं अमरीका सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में शामिल हुआ था। स्पेन की राजधानी मैड्रिड में कॉप-25 जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यह रिपोर्ट जारी की गई थी। रिपोर्ट के अनुसार 57 उच्च कार्बन उत्सर्जन वाले देशों में से 31 में उत्सर्जन का स्तर कम होने के रुझान इस रिपोर्ट में दर्ज थे। इन्हीं देशों से 90 प्रतिशत कॉर्बन का उत्सर्जन होता रहा है। इस सूचकांक ने तय किया था कि कोयले की खपत में कमी सहित कार्बन उत्सर्जन में वैश्विक बदलाव दिखाई देने लगे हैं। इस सूचकांक में चीन में भी मामूली सुधार हुआ था। नतीजतन वह तीसवें स्थान पर रहा था। जी-20 देशों में ब्रिटेन 7वें और भारत को 9वीं उच्च श्रेणी हासिल हुई है जबकि आस्ट्रेलिया 61 और सऊदी अरब 56वें क्रम पर हैं।  
इन बदलते हालातों में जिंदा रहना है तो जीवनशैली को भी बदलना होगा। हर हाल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी। यदि तापमान में वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो कार्बन उत्सर्जन में 43 प्रतिशत कमी लानी होगी। आईपीसीसी ने 1850-1900 की अवधि को पूर्व औद्योगिक वर्ष के रूप में रेखांकित किया हुआ है। इसे ही बढ़ते औसत वैश्विक तापमान की तुलना के आधार के रूप में लिया जाता है। गोया, कार्बन उत्सर्जन की दर नहीं घटी और तापमान में 1.5 डिग्री से ऊपर चला जाता है तो असमय अकाल, सूखा, बाढ़ और जंगल में आग की घटनाओं का सामना निरन्तर करते रहना पड़ेगा। बढ़ते तापमान का असर केवल धरती पर होगा, ऐसा नहीं है। समुद्र का तापमान भी इससे बढ़ेगा और कई शहरों के अस्तित्व के लिए समुद्र संकट बन जाएगा। इसी सिलसिले में जलवायु परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्र की अंतर-सरकारी समिति की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार सभी देश यदि जलवायु बदलाव के सिलसिले में हुई क्योटो संधि का पालन करते हैं, तब भी वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 2010 के स्तर की तुलना में 2030 तक 10.6 प्रतिशत तक की वृद्धि होगी। नतीजतन तापमान भी 1.5 से ऊपर जाने की आशंका बढ़ गई है। चूंकि विकासशील देश ऊर्जा उत्पादन के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं, इसलिए उन्हें कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए विकसित देशों से आर्थिक मदद की ज़रूरत है। यदि कॉप-28 सम्मेलन के ठीक पहले आई ‘एडॉप्टेशन गैस रिपोर्ट-2023 अंडर फायनेंस’ में कहा गया है कि वर्तमान में वैश्विक स्तर पर एडॉप्टेशन अर्थात अनुकूलन के लिए जितनी वित्तीय मदद की जा रही है, उससे कहीं अधिक दस से 18 गुना आर्थिक मदद की ज़रूरत है। यह मदद नहीं मिलती है तो ज्यादातर विकासशील देश हाथ पर हाथ धरे अगले सम्मेलन तक बैठे रहेंगे।


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