प्रशंसनीय है पंजाब के हितों के लिए पंजाबी सांसदों की पहलकदमी 

गुलिस्तां को लहू की ज़रूरत पड़ी
सब से पहले ही गर्दन हमारी कटी,
फिर भी कहते हैं हम से ये अहल-ए-चमन
ये चमन है हमारा तुम्हारा नहीं।
कमर जलालवी का यह शे’अर भारत सरकार के 2024 के बजट को देख कर स्वत: ही याद आ गया, क्योंकि इस बजट का पहला प्रभाव यह पड़ता है कि नरेन्द्र मोदी ने स्पष्ट रूप में अपनी सरकार बचाने की रणनीति पर चलते ही बिहार को 60 हज़ार करोड़ रुपये तथा आंध्र प्रदेश को 15000 करोड़ रुपये प्रत्यक्ष तथा अप्रत्क्ष रूप में इससे भी अधिक प्रोजैक्ट देने की घोषणा की है, परन्तु पंजाब जो सदैव देश की प्रत्येक लड़ाई में अग्रणी रहा, चाहे वह देश की आज़ादी की लड़ाई थी या देश की सीमाओं की रक्षा की लड़ाई और चाहे वह देश में भुखमरी समाप्त करने की लड़ाई, जिसे लड़ते हुए पंजाब की धरती रेगिस्तान बनने के कगार पर पहुंच गई है, को स्पष्ट रूप में कुछ भी देने की घोषणा नहीं की गई। बेशक केन्द्र की आम योजनाओं के अनुसार पंजाब के हिस्से जो आएगा, सो आएगा, परन्तु कृषि के लिए रखे पैसों में से पंजाब को क्या तथा कितना मिलना है, कुछ स्पष्ट नहीं। पंजाब को रेगिस्तान बनने से बचाने के लिए और पंजाब को गेहूं-धान के फसली चक्कर से निकालने तथा कृषि विभिन्नता के लिए कुछ भी नहीं रखा गया। पंजाब के उद्योग जो लगातार अवसान की ओर जा रहे हैं, के लिए भी कुछ नहीं है। चलो मान लिया जाए कि केन्द्र के पास पंजाब को ‘देते समय’ या उसकी आर्थिक मांगें मानते समय ‘हाथ तंग’ था, तो भी यदि केन्द्र सरकार पंजाब के प्रति थोड़ा भी उदार-चित होती तो पंजाब तथा समूचे उत्तर भारत क्षेत्र में व्यापारिक वृद्धि के लिए तथा इन राज्यों के आर्थिक विकास के लिए पंजाब की हुसैनीवाला तथा अटारी सीमाओं के माध्यम से पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान तथा आगे तुर्की तथा योरुप तक सस्ता सड़की मार्ग खोलने के लिए संजीदा प्रयास करने का आश्वासन तो दे ही सकती थी। इस पर तो कोई खास खर्च भी नहीं होना था। अकेले पाकिस्तान के साथ ही व्यापार खुलने से पंजाब की कृषि को काफी लाभ हो सकता है जबकि यह व्यापार गुजरात तथा महाराष्ट्र की बंदरगाहों से अब भी हो रहा है। रही बात इस बहाने की कि पाकिस्तान की सीमा से तस्करी होती है, तो क्या यह तस्करी अब नहीं हो रही? वैसे यदि आंकड़ों पर दृष्टिपात किया जाए तो नशे की बड़ी खेपें तो गुजरात के रास्ते ही आती हैं, पंजाब के रास्ते नहीं। 
खैर, हमने इस कॉलम में बजट पेश होने से लगभग एक माह पहले ही पंजाब के सभी सांसदों को अपील की थी कि वे पार्टी कतारों से ऊपर उठ कर अपनी-अपनी पार्टी के प्रति वफादार रहते हुए पंजाब की मांगों के लिए एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाएं तथा प्रधानमंत्री सहित सरकार के संबंधित उच्चाधिकारियों एवं मंत्रियों को एकजुट होकर मिलें और बजट संबंधी पंजाब की ज़रूरतों के बारे तर्कपूर्ण ढंग से उनके समक्ष अपनी बात रखें, परन्तु तब कुछ नहीं हुआ था। 
परन्तु अब यह खुशी की बात है कि देर से ही सही, पंजाब के सांसद नींद से जगे हैं। विगत दिवस राज्यसभा सदस्य विक्रमजीत सिंह साहनी के घर पंजाब के सांसदों की एक बैठक हुई, जिसमें चाहे भाजपा के राज्यसभा सदस्य सतनाम सिंह संधू, अकाली दल की बीबा हरसिमरत कौर बादल, आज़ाद सदस्य भाई सरबजीत सिंह तथा दो कांग्रेस सांसद नहीं पहुंचे और छठे भाई अमृतपाल सिंह तो जेल में हैं, परन्तु फिर भी यह खुशी की बात है कि इन न पहुंचने वाले सदस्यों द्वारा भी इकट्ठे होने की पहल का विरोध नहीं किया गया। वे सिर्फ निजी कारणों से ही नहीं पहुंचे। इस बैठक के सूत्रधार के रूप में पूर्व सांसद तरलोचन सिंह तथा भाजपा के एक पंजाबी नेता तथा अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन इकबाल सिंह लालपुरा का शामिल होना भी अच्छा संकेत है, परन्तु और भी खुशी की बात यह है कि पंजाबी सांसदों की इस बैठक में चंडीगढ़ से लोकसभा सांसद मनीष तिवारी भी पहुंचे और उन्होंने बड़े ज़ोरदार ढंग से पंजाब के पक्ष में एकजुट होकर आवाज़ उठाने की बात कही। 
नि:संदेह यह एक शुरुआत है परन्तु हम आशा करते हैं कि इसका अंजाम भी बहुत अच्छा होगा। यदि ये सांसद एकजुट होकर इस बजट सत्र में कुछ उपलब्धि हासिल कर लेते हैं तो फिर यह पंजाब के लिए एक अच्छा शगुन ही होगा। यह पंजाबी सांसदों की पंजाब के साथ दोस्ती तथा प्रतिबद्धता का तकाज़ा भी है। शकील बदायूनी के शब्दों में :
मुझे दोस्त कहने वाले ज़रा दोस्ती निभा दे, 
ये मुतालबा है हक का, कोई इल्तिज़ा नहीं है। 
बादल की श्री अकाल तख्त पर पेशी 
इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में 2007 से 2017 तक 10 वर्ष चली अंतिम सरकार के कई कार्यों से सिखों में सख्त नाराज़गी पैदा हुई थी। यह नाराज़गी गलत भी नहीं थी। सिख हृदय सरकार की कई कार्रवाइयों से आहत हुए थे। इनमें कुछ धार्मिक गलतियां थीं, कुछ प्रशासनिक तथा कुछ राजनीतिक भी थीं, परन्तु इन गलतियों के लिए अकेले प्रकाश सिंह बादल या सुखबीर सिंह बादल ही ज़िम्मेदार नहीं थे, अपितु उनके मंत्री साथी, पार्टी के बड़े नेता, शिरोमणि कमेटी के पदाधिकारी एवं सदस्य तथा कुछ मामलों पर जत्थेदार साहिबान भी बराबर के ज़िम्मेदार थे। 
इसके बाद शिरोमणि अकाली दल की लगातार राजनीतिक साख गिरने के कारण पंथक गलियारों में यह चर्चा बार-बार चलती रही कि शिरोमणि अकाली दल की पुन: बहाली कैसे हो, तो यह राय उभर कर सामने आती थी कि श्री अकाल तख्त साहिब पर जाकर विधिवत माफी मांगी जाए, परन्तु यह मामला हर बार स्थगित हो जाता रहा, क्योंकि कई अकाली नेता इससे सहमत नहीं थे। हालांकि इस मध्य सुखबीर सिंह बादल ने दो बार स्पष्ट रूप में माफी तो मांगी, लेकिन वह विधिवत नहीं थी, परन्तु अब जब अकाली दल लगातार चुनाव हारता गया और हालात सीमा से अधिक खराब हो गए तो सुखबीर सिंह बादल को अध्यक्षता से हटाने के समर्थक, जिनमें बड़ी संख्या में वे नेता भी शामिल हैं, जो इन गलतियों पर पर्दा डालते रहे या सरेआम समर्थन करते रहे तथा कई तो स्वयं इन गलतियों में बराबर के भागीदार भी थे, श्री अकाल तख्त साहिब पर पेश हो गए। जहां उन्होंने अपने लिए माफी मांगी, वहीं उन्होंने सुखबीर सिंह बादल के खिलाफ एक प्रकार से चार मुख्य आरोपों पर आधारित आरोप-पत्र भी पेश कर दिया। 
यह अच्छी बात है कि ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ के कथन के अनुसार सुखबीर सिंह बादल गले में पल्ला डाल कर श्री अकाल तख्त साहिब पर पेश हो गए। वह अपने कुछ चुनिंदा साथियों के साथ पेश हो गए और लाव-लश्कर साथ लेकर जाने से गुरेज़ किया। उनका यह कहना कि बागी अकालियों के लगाए आरोपों के अतिरिक्त अन्य हुई गलतियों के लिए भी वह माफी के प्रार्थी हैं, सही था। हम कोई सलाह नहीं दे सकते कि सिंह साहिबान सुखबीर सिंह बादल तथा अन्य अकाली नेताओं को क्या सज़ा दें, यह सिर्फ और सिर्फ उनका अधिकार है। हमें यह भी नहीं पता कि इस सज़ा के बाद अकाली दल धार्मिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में किस स्थिति में पहुंचेगा? परन्तु जिस प्रकार सुखबीर सिंह बादल, शिरोमणि कमेटी के अध्यक्ष हरजिन्दर सिंह धामी श्री अकाल तख्त साहिब पर पेश हुए हैं, इससे सिख परम्पराओं तथा श्री अकाल तख्त साहिब की सर्वोच्चता को अवश्य बल मिला है। 

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