लोगों को साक्षर बनाने के लिए सरकारों ने गम्भीरता से काम नहीं किया
अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस पर कटु सत्य यह है कि स्वतंत्रता प्राप्त करने से लेकर अब तक जितने भी दलों की सरकारें आई हैं और प्रधानमंत्री बने हैं, किसी की भी पूरे मन से इस बात में रुचि नहीं रही कि भारत सम्पूर्ण साक्षरता का लक्ष्य हासिल कर सके। यही नहीं, चाहे कोई भी विपक्षी पार्टी हो, किसी ने भी इस बात की न तो गंभीरता समझी और न ही इसके लिए ईमानदारी से प्रयास किया कि देश विश्व में अपनी वास्तविक पहचान तब ही बना सकता है जब पूरा देश शिक्षित हो। यही विडम्बना है। आज इसे जानना आवश्यक है।
सच से सामना
हमारे देश की लगभग एक चौथाई से अधिक आबादी को पढ़ना-लिखना नहीं आता। महिलाओं की स्थिति तो यह है कि आधी से अधिक आज भी निरक्षर हैं। यह बात गांव-देहात और दूर-दराज के क्षेत्र ही नहीं, नगर और महानगरों में भी सच है कि बहुत बड़ी आबादी के लिए काला अक्षर भैंस बराबर है। वे मामूली हिसाब-किताब के लिए दूसरों का मुंह ताकते हैं, अपने शोषण को कृपा मानते हैं और फटकार से लेकर अपने साथ मारपीट होने तक को नसीहत समझते हैं। बिना अपनी गलती जाने अमानवीय व्यवहार झेलते हैं और अगर कहीं ज़ुबान से चूं भी निकल गई तो कहर का सामना करते हैं। कुछ नहीं कर सकते क्योंकि कोई चाहता ही नहीं कि वे निरक्षरता के दलदल से बाहर निकलें। इसके अतिरिक्त जब स्थिति यह हो कि नेतागीरी शुरू करने से लेकर विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री तक बिना किसी प्रकार की शैक्षणिक योग्यताओं के बना जा सकता है तो फिर कौन पढ़ने लिखने में अपना वक्त बर्बाद करे। त्रासदी यह कि उच्च शिक्षित अधिकारी से लेकर पुलिस बल तक इनके सामने सिर झुकाए खड़े रहते हैं और इनकी हर उस आज्ञा का पालन करते नज़र आते हैं जिसका न तो तर्क होता है, न ही सिर पैर, बस हुक्म बजाना होता है।
कुछ उदाहरण हैं, यह एक नहीं कई स्थानों पर लेखन के लिये सामग्री जुटाने और फिल्म बनाते समय पाया कि सरपंच या मुखिया के यहां पुस्तकों, पत्रिकाओं और दूसरी पठन सामग्री बड़े करीने से अलमारियों में सजाकर कर रखी गई है। पूछने पर जवाब था कि यह सब सरकार ने भेजी हैं और हम पूरा ध्यान रखते हैं कि ज़रा भी खराब न हों, किसी को हाथ तक नहीं लगाने देते। जैसे बंडल आते हैं, हम सम्भाल कर रख देते हैं। यह वह सामग्री है जो केंद्र और राज्य सरकारें लाखों रुपये खर्च करके छपवाती हैं और पंचायतों तथा दूसरे विभागों को भेजती हैं ताकि लोगों को उनके भले के लिए बनी योजनाओं के बारे में पता चले और वे गरीबी से बाहर आ सकें।
अब कोई भी नेता, चाहे किसी भी दल का हो, कभी नहीं चाहता कि उन लोगों की गरीबी दूर हो, जो उनका वोट बैंक हैं। उन्हें नासमझ बनाये रखने में ही उसकी भलाई है, क्योंकि उनका इस्तेमाल तोड़फोड़, दंगा फसाद, नारेबाज़ी, बेमतलब आंदोलन और अफरा-तफरी फैलाने में जो करना होता है। रैलियों में जुटाई गई भीड़ में किसी से भी पूछ लीजिए कि वे किस बात पर धरना प्रदर्शन, पोस्टरबाज़ी कर रहे हैं तो अधिकांश यही कहते मिलेंगे कि नेताजी की खातिर आये हैं।
पक्ष/विपक्ष की चालबाज़ी
चलिए एक और वास्तविकता से परिचित कराते हैं। देश के विपक्ष में बैठे नेता कहते हैं कि जिस जाति की जितनी संख्या होगी, उसकी देश के संसाधनों पर उतनी ही भागीदारी होगी। वे जानते हैं कि जिस तबके की बात कर रहे हैं, वह तो अधिकतर निरक्षर हैं या मामूली पढ़ा लिखा है, निर्धन और साधनहीन है, परन्तु यदि उनकी चाल कामयाब हो गई तो विभिन्न जातियों के नाम पर मिले संसाधनों को स्वयं और अपने दल द्वारा भोगे जाने की पूरी छूट मिल जाएगी। वे कभी नहीं कहते कि जातियों की संख्या के आधार पर शिक्षा सुविधाओं का बंटवारा हो, स्वास्थ्य सेवाओं का मिलना सुनिश्चित हो, व्यापार और रोज़गार की नीतियां उनकी जाति की विशेषताओं और कार्यकुशलता को ध्यान में रख कर बनें और अमल में लाई जायें। वे यह भी नहीं कहते कि इन जातियों की गरीबी और साधनों के न होने के कारण उपजी समस्याओं को समाप्त करने के लिए उनकी गणना होनी चाहिए। हंसी आती है जब कोई यह कहता है कि सरकारी पदों पर बैठे लोगों में कौन-सी जाति के कितने लोग हैं।
उनकी नज़र में योग्यता नहीं बल्कि अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जातपात महत्वपूर्ण है। उदाहरण से समझि कि जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी, बहुजन समाज पार्टी या भारतीय जनता पार्टी की सरकारें बनती रही हैं तो सबसे पहला काम यह होता है कि अपने परिवारों और दलों से उन लोगों को नियुक्त किया जाए जो उनके इशारों पर काम करें, पैसा जुटायें और सरकारी खज़ाने में सेंध लगाने में माहिर हों। इसी तरह दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में भी कमोबेश यही स्थिति है और ये ही राज्य क्यों, सभी प्रदेशों में अलग-अलग रूपों में भाई भतीजावाद अपने चरम पर है। इसका सबसे बड़ा कारण विशाल जनसंख्या को निरक्षर बनाये रखने की नीतियों का पालन करना है। शिक्षा सुविधाओं को इतना सीमित कर देना है कि अंग्रेज़ी शिक्षा प्रणाली की भांति केवल सरकारी बाबू बनते रहें, उनकी बौद्धिक क्षमता, मानसिक कार्य कुशलता और शारीरिक शक्ति का उपयोग जी-हुज़ूरी तक सीमित रहे।
यह हमारी साक्षरता नीति की विफलता का ही कमाल है जो देश में अमीर और गरीब के लिए स्कूल, कॉलेज, उच्च शिक्षा संस्थानों में ज़मीन आसमान का अंतर दिखाई देता है। अंग्रेज़ी का प्रभुत्व और हिन्दी हो या प्रादेशिक भाषा, वे उसकी दासी की तरह हाथ जोड़े खड़ी हैं, ज़रा कल्पना कीजिए इस चित्र की और अनुमान लगा लीजिए कि वर्तमान पीढ़ी का भविष्य क्या है?
बहुसंख्यक आबादी चाहे ग्रामीण हो या शहरी, निरक्षरता या साधारण पढ़ाई-लिखाई से आगे नहीं बढ़ सकी है। शिक्षा का बजट हर साल कम हो जाता है, जो बढ़ती आबादी के अनुकूल नहीं होता। परिणाम यह होता है कि शिक्षा का बाज़ारीकरण होता है जो निजीकरण के पर्दे में छिपाकर किया जाता है। एक तो महंगे शिक्षा संस्थान जो किसी सजी हुई दुकान की तरह होते हैं, उनमें प्रवेश की हिम्मत जुटा पाना आसान नहीं होता। प्रतियोगी परीक्षाओं का कारोबार करने वालों की असलियत कौन नहीं जानता। नकल और रिश्वत का बोलबाला इसीलिए है कि सम्पूर्ण साक्षरता की कोई व्यावहारिक नीति ही नहीं है।
अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस पर उन छोटे-बड़े देशों के बारे में जान सुनकर हैरानी होती है कि वे भी हमारी तरह के हालात से जूझने के बावजूद आज शत-प्रतिशत साक्षर हैं। हम उनकी शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन करने जाते हैं और गर्व से उनकी उपलब्धि का गुणगान करते हैं, लेकिन अफसोस यह है कि भारत की धरती पर पैर रखते ही सब ज्ञान बिखर जाता है। इसका कारण यह है कि भारत की अपनी विशेषताएं हैं और प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की चुनौतियों हैं। हम जिस डेमोग्राफिक डिविडेंड की चर्चा करते हैं, क्या कभी उसकी आकांक्षाओं और सपनों को पूरा करने के बारे में देशव्यापी सार्थक बहस छेड़ी है, कभी नहीं। हर देश अपनी ज़रूरतों के हिसाब से शिक्षा नीति बनाकर ही आगे बढ़ सकता है।