वैज्ञानिक सोच और अध्यात्म के संगम को ही प्रगति मानते थे अब्दुल कलाम

किसी व्यक्ति का साधारण, सीमित साधन और निर्धन परिवार में जन्म लेना उसे महान बनने से नहीं रोक सकता, यह भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने पर पूरी तरह सही लगता है। 27 जुलाई को उनकी पुण्यतिथि है, इसलिए इस अवसर पर यह याद आना स्वाभाविक है कि ऐसा क्या था जिससे वह भारत रत्न और प्रेरक व्यक्ति बने।
विज्ञान और अध्यात्म 
अक्सर कहा जाता है कि विज्ञान का धर्म, आध्यात्मिकता और ईश्वर में आस्था से कोई लेना देना नहीं है और केवल तर्क की कसौटी ही प्रमुख है। इसके विपरीत डॉ. कलाम ने वैज्ञानिक के रूप में देश को अपनी उपलब्धियों से गौरवान्वित करते हुए यह स्वीकार किया कि अध्यात्म मनुष्य को जीने की राह दिखाता है। वैज्ञानिक सोच की धारणा इससे ही पुष्ट होती है। 
उन्होंने हिंदू धर्म की आध्यात्मिक संस्था स्वामी नारायण के तत्कालीन प्रमुख स्वामी महाराज के जीवन, दर्शन और उनके माध्यम से अपने अंदर हुए परिवर्तन को लेकर प्रोफेसर अरुण तिवारी के साथ मिलकर एक ग्रंथ की रचना की। इसमें लिखा गया है कि वैज्ञानिक होने और वैज्ञानिक सोच रखने का यह अर्थ नहीं है कि धर्म या अध्यात्म नकार कर हम प्रगति कर सकते हैं। उन्होंने हज़ारों युवाओं और सभी वर्गों से आये श्रोताओं को संबोधित कर एक बार कहा था, ‘जिसका हृदय निर्मल है, उसका चरित्र सुंदर है, जिस घर में सत्य और सुंदर चरित्र है, वहां सद्भाव रहता है, सद्भावना से राष्ट्र संचालित होता है और विश्व में शांति की शुरुआत होती है। प्रमुख स्वामी में मैंने हृदय की सत्यता के दर्शन किए और अपार शांति का अनुभव किया।’
डॉ. कलाम को अपने भारतीय मुस्लिम होने पर गर्व था, उनके पिता एक मस्जिद में इमाम थे जो हर शाम की चाय पर प्रमुख हिंदू मंदिर और ईसाई गिरिजाघर के लोगों के साथ स्थानीय समस्याओं को सुलझाने के लिए चर्चा करते थे। बचपन में इस माहौल में परवरिश पाकर उन्होंने निर्णय किया कि वह वैज्ञानिक बनेंगे। इसके लिए उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अपने दृढ़ निश्चय और सब धर्मों में समानता को मूल में रख कर भारत के पहले वैज्ञानिक राष्ट्रपति बने। अपनी मूल भावना से प्रेरित होकर उन्होंने प्रमुख स्वामी को अपना गुरु बनाया और उनके सानिध्य और मार्गदर्शन में जीवन के अंतिम चौदह वर्ष व्यतीत किए। प्रमुख स्वामी के साथ हुए अपने आध्यात्मिक अनुभवों पर आधारित पुस्तक के प्रकाशन के बाद युवाओं की एक सभा में भाषण देते हुए उन्होंने अंतिम सांस ली। 
विज्ञान की आत्मा 
ऐसा नहीं है कि वह पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने विज्ञान और अध्यात्म की एकता को सिद्ध और प्रचारित किया, बल्कि पायथागोरस, गैलीलियो, आइंस्टाइन, रामानुजम, जगदीश चंद्र बोस, चंद्रशेखर, फ्रांसिस कॉलिन्स जैसे विचारकों और विज्ञानियों ने भी इसी सिद्धांत को स्वीकार किया और इसे मानव जीवन का अनिवार्य अंग माना। इन दोनों तत्वों का संगम ही मानवीयता है। विज्ञान ने हमें बहुत कुछ दिया है लेकिन उसकी आत्मा अध्यात्म है। एक उदाहरण है जब डॉ. कलाम अपनी पुस्तक लिखने से पहले उसके पांच अध्यायों की चर्चा स्वामी महाराज से कर रहे थे तो गुरु ने कहा कि इसमें छठा अध्याय ‘ईश्वर में आस्था’ भी शामिल करें, तब ही पुस्तक पूर्ण होगी। विज्ञान और धर्म या अध्यात्म को दो अलग रूपों में देखना न केवल भूल है, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू होने को नकारना है। 
विज्ञान के क्षेत्र में डॉ. कलाम का योगदान अभूतपूर्व है। उन्हें मिसाइल मैन कहा गया, अंतरिक्ष विज्ञान उनके बिना अधूरा रहता। अग्नि जैसी खोज देश को आत्मनिर्भर और मज़बूत राष्ट्र बनाने में महत्वपूर्ण है। देश को न्यूक्लियर ऊर्जा के उपयोग से विकास की नई ऊंचाइयों तक ले जाने का संकल्प उनका था। वह सन् 2020 तक भारत को विश्व की चार आर्थिक महाशक्तियों के रूप में देखना चाहते थे। 
यह निश्चित है कि केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों के बल पर देश आगे नहीं बढ़ सकता। उसके लिए ऐसी सोच होनी चाहिए जो सृजनात्मक नेतृत्व पैदा करे। इसके लिए निर्भय और साहसी होना ज़रूरी है। नैतिकता, अहिंसा, क्षमा, करुणा, दूरदृष्टि और परस्पर सहयोग की भावना आवश्यक है।  नचिकेता, लिंकन, थिरुवल्लूवर, महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, विक्रम साराभाई, वर्गीज़ कुरियन जैसे व्यक्ति अपने जीवन में इन चीज़ों को शामिल करने के बाद ही वह सब कर सके जिससे उन्हें अपने क्षेत्र में दुनिया का नेतृत्व करने की क्षमता हासिल हुई। उनके भाषणों का प्रभाव यह था कि जब उन्होंने एक विद्यार्थी से पूछा कि वह क्या बनना चाहती है तो उसका उत्तर था कि वह एक विकसित भारत में रहना चाहती है। विद्यार्थियों में यह सोच उनके पढ़ाई शुरू करते ही बन जानी चाहिए कि चाहे कुछ भी हो जाये, देश को दुनिया में सबसे आगे देखना ही उनका संकल्प है। 
वैज्ञानिक सोच क्या है?
वैज्ञानिक और धार्मिक एवं आध्यात्मिक सोच वाला व्यक्ति कोई भी ऐसा काम करने से पहले दस बार इस बात का चिंतन करेगा कि उससे किसी का अहित तो नहीं हो रहा। इसके विपरीत जब सोच यह हो कि चाहे मेरा लाभ हो या नहीं, परन्तु दूसरे की हानि अवश्य हो, तब उस समाज का भविष्य चाहे भौतिक स्मृद्धि का दर्शन करा दे, लेकिन शांति की स्थापना नहीं हो सकती। एक बार डॉ. कलाम ने विद्यार्थियों के समक्ष बोलते हुए पूछा कि हमारा शत्रु कौन है। इस पर अनेक उत्तर मिले, लेकिन एक विद्यार्थी स्नेहल ठक्कर ने कहा कि शत्रु केवल गरीबी है। 
एक बार उनका हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया और चमत्कारिक रूप से सभी बच गये। घायल अवस्था में नींद का इंजेक्शन दिया गया तो स्वप्न में उन्हें विश्व की महान विभूतियां अपने आसपास दिखाई दीं जिन्होंने उन्हें जीवन का भरोसा दिया। उन्होंने अपनी पुस्तक में इस घटना का ज़िक्र करते हुए लिखा कि सपने, सपने और केवल सपने ही उन विचारों को जन्म देते हैं जो हमें अपने लक्ष्य तक ले जा सकते हैं। उनका मानना था कि बुद्धि ही वह शस्त्र है जो विनाश से रक्षा कर सकता है। कोई भी दुश्मन हमें हरा नहीं सकता यदि हम अपनी अक्ल, सूझबूझ का इस्तेमाल कर ऐसा ताना-बाना तैयार करें जिसे भेदना असंभव हो। अगर यही बुद्धि भ्रष्ट हो जाये तो भ्रष्टाचारी बनने और नैतिकता का पतन और अंधकार के गर्त में गिरने से कोई नहीं रोक सकता। 
आज हमारे पास विज्ञान की दी हुई तकनीकों का भंडार है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हम उनका उपयोग मानवता की सेवा के लिए करना चाहते हैं? ज़्यादातर उत्तर नहीं में ही मिलेगा। हमारी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में प्रतिदिन नये आविष्कार, अनुसंधान और खोजबीन हो रही हैं, लेकिन क्या उनका उपयोग केवल एक या मुट्ठी भर व्यक्तियों के लिए नहीं हो रहा, इसका उत्तर हां में मिलेगा। इसका उदाहरण यही है कि एक ओर अमीरी का भोंडा प्रदर्शन और दूसरी ओर गरीबी का नाच दिखाई देता है। जिस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल शिक्षा और स्वास्थ्य की आधुनिक सुविधाएं जन-जन को सुलभ कराने में होना चाहिए, उसे अधिकतर केवल एक वर्ग तक ही पहुंचने देने का प्रयास ही आर्थिक क्षेत्र में बढ़ती खाई का एकमात्र कारण है। विज्ञान और अध्यात्म को दो अलग नज़रों से देखने का ही यह परिणाम है। भारत की आध्यात्मिकता और सभी धर्मों, जातियों, वर्गों, संप्रदायों के प्रति समान भाव रखना ही उसकी पहचान है।