अहम् आवश्यकताएं

रमेश, सुरेन्द्र, विक्की और गोलू चारों मित्र थे। वे एक ही विद्यालय में पढ़ते थे। इसी कारण उनमें मित्रता हो गई थी। मगर उनकी मित्रता पढ़ने-पढ़ाई के लिये नहीं, विद्यालय से बाहर की गतिविधियों के लिए थी। छुट्टी से पहले विद्यालय से निकल जाने, इधर-उधर घूमने और धमा-चौकड़ी करने की उनकी आदत थी। इधर उनमें एक नई आदत शामिल हो गई थी। विद्यालय से बाहर निकलने के बाद वे चाट-पकौड़े आदि खाने लगे थे।
विद्यालय से निकल कर चारों मित्र कभी आइसक्रीम के ठेले पर चले जाते थे तो कभी कोल्ड ड्रिंक्स की दुकान पर। उनके खाने-पीने का खर्च विक्की उठाया करता था। विक्की के पिताजी व्यवसायी थे। उसके पास पैसे की कमी नहीं थी। मगर एक दिन उसके दिमाग में एक बात आई। उसने सोचा कि खाते-पीते तो सभी हैं, मगर खर्च वह अकेला करता है। ऐसा आखिर कब तक चलेगा? उसने अपने मित्रों से कहा, ‘हम सभी मिलजुल कर खाते-पीते हैं तो खर्च भी मिल-जुल कर करना चाहिए।’
विक्की की बात मित्रों को सही लगी। रमेश और सुरेन्द्र को इसमें दिक्कत भी नहीं थी। मगर गोलू मित्रों पर खर्च करने की स्थिति में नहीं था। वह गरीब घर का लड़का था। उसके घर में किसी तरह से खाने-पीने का जुगाड़ हो पाता था। वह विद्यालय भी कभी आधे पेट खाकर तो कभी भूखे पेट ही चला जाया करता था। 
अगले दिन सुरेन्द्र की बारी पड़ी। उसके पास रुपये नहीं थे, मगर घर में रुपयों की कमी नहीं थी। टेबुल के ड्राअर में पिताजी के नोट रखे रहते थे। उसने वहां से कुछ नोट निकाल लिए। विद्यालय से निकलने के बाद चारों मित्र आइसक्रीम के ठेले पर चले गए। उस दिन सबने महंगे कप वाला आइसक्रीम खाए।
उसके बाद रमेश की बारी आई। उसकी मां के पर्स में काफी रुपये रहते थे। लेकिन उसे पता था कि मित्रों के साथ गुलछर्रे उड़ाने के लिये वह रुपये नहीं देगी। उसे यह भी पता था कि बिना किसी से पूछे-कहे रुपये निकाल लेना चोरी है। फिर भी उसने मां के पर्स से कुछ रुपये निकाल लिए। इस तरह विद्यालय से निकलने के बाद मित्रों की उस दिन की पार्टी पूरी हो गई।
चार मित्रों में से तीन की बारी पूरी हो गई थी। अगले दिन गोलू की बारी थी। घर आने के समय रास्ते में वह इसी चिंता में था कि रुपये का इंतजाम कहां से कर पाएगा। उसे पता था कि मां के पास पैसे की कमी है, मांगने पर मिलेगा नहीं। पिताजी बीमार थे, इसलिए उनसे भी पैसे की बात नहीं की जा सकती थी। पैसे के इंतजाम की चिंता में वह होमवर्क भी नहीं कर पाया। जब वह खाने बैठा तो उसे खाना अच्छा नहीं लगा। आधा पेट खाकर ही उठ गया। रात में सोने गया तो वह बहुत देर तक सोचता रहा कि पैसे का इंतजाम कहां से हो पाएगा।
सुबह जब गोलू की नींद खुली तो वह इस बात को लेकर चिंतित था कि मित्रों के बीच खाली हाथ कैसे जाएगा। वह अपना बस्ता तैयार कर विद्यालय के लिये निकलने वाला था। तभी उसकी नजर टेबुल पर गई। वहां दो सौ का एक नोट रखा हुआ था। पिताजी बेड पर पड़े हुए थे। मां उन्हें अस्पताल ले जाने की तैयारी में लगी थी। वह धीरे से दो सौ का नोट टेबुल पर से उठा कर अपनी जेब में रखा और विद्यालय निकल गया।
रास्ते में वह उसी नोट के बारे में सोचते जा रहा था। पहली बार उसने मां या पिताजी के दिए बिना रुपये लिया था। यह बात उसके दिमाग में बार-बार कौंध जती थी कि वह बिना किसी को बताए टेबुल पर से रुपया उठा लिया है। विद्यालय से निकलने के बाद मित्रों ने उसके पैसे से आइसक्रिम खाया। मगर उसे आइसक्रिम का स्वाद फीका-फीका लग रहा था। टेबुल पर से उठाए गए दो सौ रुपये के नोट की बात बार-बार उसके दिमाग में घूम जा रही थी।
विद्यालय से आने पर गोलू ने देखा कि मां घर के बाहर असोरे बैठी हुई है। वह बहुत चिंतित दिख रही थी। घर के अंदर जाने पर पता चला कि पिताजी की तबीयत अधिक खराब हो गई है। मां ने बताया, ‘आज पिताजी को अस्पताल ले जाना था। कल उधार रुपये का इंतजाम करने की बहुत कोशिश की थी। तीन-तीन जगह उधार मांगने गई थी, मगर खाली हाथ लौटना पड़ा था।’’ कुछ रुक कर मां ने आगे बताया, ‘आज सुबह शर्मा आंटी के यहां गई थी। मैंने उन्हें बताया कि पिताजी की तबीयत अत्यधिक खराब हो गई है। पूरी बात सुनने पर उन्होंने दो सौ रुपये उधार दिए थे। नोट लाकर मैं टेबुल पर रखी थी। तैयार होकर अस्पातल के लिये निकलने लगी तो देखी कि नोट वहां नहीं था। टेबुल के आगे-पीछे और घर में इधर-उधर चारों तरफ खोजी। मगर दो सौ का वह नोट कहीं नहीं मिला। इस कारण पिताजी को आज भी अस्पताल नहीं ले जा सकी।’
गोलू चुपचाप मां की बात सुन रहा था। पूरी बात सुनने-समझने के बाद उसे लगा कि काटो तो खून नहीं है। उसके कारण पिताजी की चिकित्सा बाधित हो गई थी। वह मां से चिपक गया और फूट-फूट कर रोने लगा। जब कुछ स्थिर हुआ तो उसने अपनी मित्र-मंडली और खाने-पीने की बातें मां को बता दी। उसके बाद उसने कहा, ‘मित्र-मंडली को खिलाने की आज मेरी बारी थी। टेबुल पर नोट देखा तो उठा लिया। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। मुझे माफ कर दो।’
मां चुपचाप गोलू की बातें सुन रही थी। गोलू ने कहा, ‘मैं अब उस मित्र-मंडली में नहीं रहूंगा और उन सबों से बात भी नहीं करूंगा। मैं उन लोगों के साथ कैसे जुड़ गया मुझे यह पता भी नहीं चल पाया। मां, सब कुछ बिना सोचे-समझे हो गया था।’
पूरी बात सुनने के बाद मां ने कहा, ‘इसीलिए कहा गया है कि मित्रता हो या संबंध, बराबरी में ही ठीक होता है। सबकी औकात और आवश्यकताएं अलग-अलग होती हैं। कुछ लोगों को अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिये कोई चिंता नहीं करनी पड़ती। उनके घर की आर्थिक सम्पन्नता इतनी मज़बूत होती है कि सारी आवश्यकताएं स्वत: पूरी हो जाती हैं। अर्थात् आवश्यकताएं पूरी करने के लिए किसी विशेष प्रयास की ज़रूरत नहीं पड़ती। मगर कुछ लोग अपनी आवश्यकताएं पूरी करने में परेशान हो जाते हैं। हम लोग तो अपनी ज़रूरी आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पाते हैं। विद्यालय जाने का उद्देश्य पढ़ाई करनी है, मित्रों के साथ घूमना या खाना-पीना नहीं। अपने उद्देश्य को याद रख कर उसे पूरा करना ही सफलता की मूल है।’
दूसरे दिन से ही गोलू अपनी मित्र-मंडली से अलग हो गया। वह सीधे घर से विद्यालय और विद्यालय से घर जाने-आने लगा। उसका ध्यान अब पूरी तरह पढ़ाई की ओर केंद्रित हो गया था। 
(सुमन सागर)