‘मदर इंडिया’ को अमर करने वाले महबूब खान

महबूब खान को हमेशा ‘मदर इंडिया’ के निर्देशक के रूप में याद किया जाता रहेगा, जोकि सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म कैटेगरी में अकादमी अवार्ड (ऑस्कर) के लिए नामंकित होने वाली पहली भारतीय फिल्म थी। यह फिल्म और इसके निर्देशक सिनेप्रेमियों के लिए हमेशा ही आइकोनिक रहे हैं; क्योंकि इस फिल्म में वर्ग संघर्ष को नेहरु के समाजवाद के तड़के के साथ पेश किया गया था और इस फिल्म ने भारतीय सिनेमा को विश्व नक्शे पर मज़बूती के साथ स्थापित किया। कालजयी क्लासिक ‘मदर इंडिया’ के बिना भारतीय सिनेमा इतिहास अधूरा है और यही फिल्म भारतीय सिनेमा को विश्व में परिभाषित करती है, ऐसा फिल्म आलोचक राजीव मसंद और गीतकार जावेद अख्तर का कहना है। यह फिल्म अकादमी अवार्ड्स में सिर्फ एक वोट से हार गई थी, लेकिन इसने 5 फिल्मफेयर अवार्ड्स और दो राष्ट्रीय पुरस्कार जीते।
लेकिन महबूब खान की विरासत इतनी विशाल है कि उसे केवल एक फिल्म तक सीमित नहीं रखा जा सकता, जोकि उनकी ही एक पिछली फिल्म का रीमेक थी। उन्होंने लगभग 20 फिल्में बनायीं, जिनमें से अधिकतर अलग-अलग कारणों से मील का पत्थर हैं, मसलन ‘औरत’ (1940) जिसे ‘मदर इंडिया’ के रूप में दोबारा बनाया गया और जो महिला केंद्रित भारत की पहली फिल्म थी, ‘अंदाज़’ (1949) जिसने भारतीय फिल्मों में प्रेम त्रिकोण की बुनियाद रखी और जिसमें दिलीप कुमार व राज कपूर ने पहली व अंतिम बार साथ काम किया, ‘आन’ (1952) जो भारत की पहली पूर्ण रंगीन फिल्म थी, और ‘अमर’ (1954) जिसमें दिलीप कुमार का चरित्र पढ़ा लिखा व सभ्य वकील होने व एक महिला से प्रेम करने के बावजूद बारिश में भीगी हुई एक ग्रामीण महिला (निम्मी) के यौवन को देखकर अपने जज़्बात पर काबू नहीं कर पाता और उसका बलात्कार करने के बाद जीवनभर पछताता रहता है। 
हीरो में ऐसी मानवीय कमजोरी प्रदर्शित करने का साहस तो निर्देशक व एक्टर 21वीं शताब्दी में भी नहीं कर पाते हैं। ‘अमर’ को महबूब खान अपनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानते थे। रमजान खान के रूप में महबूब खान का जन्म बड़ौदा के निकट एक छोटे से गांव बिलिमोर में एक पुलिस कांस्टेबल के घर में 9 सितम्बर, 1907 को हुआ था। महबूब खान का परिचय सिनेमा संसार से टूरिंग सिनेमा के ज़रिये हुआ। जब वह पास के शहरों में एक या दो फिल्म देखने के लिए जाने लगे तो उन्हें यकीन हो गया कि वह हीरो बनने के लिए ही पैदा हुए हैं। लिहाज़ा 16 बरस की आयु में वह घर से भागकर बॉम्बे (अब मुंबई) पहुंचे, लेकिन उनके पुलिसकर्मी पिता ने उन्हें तलाश लिया और वापस अपने साथ ले गये। पिता ने उनका जबरन बाल विवाह करा दिया ताकि वह फिर बॉम्बे भागने का प्रयास न करें। इस शादी से उनके तीन बेटे हुए।
लेकिन महबूब खान 23 साल की उम्र में एक बार फिर अपने सपनों को साकार करने के लिए बॉम्बे भाग आये और तब उनकी जेब में मात्र 3 रूपये थे। शुरू में उन्होंने इम्पीरियल फिल्म कम्पनी में कुछ भूमिकाएं एक्स्ट्रा के रूप में कीं। 1931 में निर्देशक अर्देशिर ईरानी उन्हें भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ में हीरो लेने के लिए तैयार हो गये थे, लेकिन वह मास्टर विट्ठल से मात खा गये। 1931 व 1935 के बीच महबूब खान ने सागर मूवीटोन प्रोडक्शंस की फिल्मों में हीरो बनने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें सहायक अभिनेता की भूमिकाओं से ही संतोष करना पड़ा। बहरहाल, 1935 में उन्हें अपना पहला बड़ा ब्रेक मिला, हीरो के तौर पर नहीं बल्कि निर्देशक के रूप में और यह फिल्म थी ‘अल हिलाल’ या ‘द जजमेंट ऑ़फ अल्लाह’ जोकि रोमन-अरब टकराव पर एक्शन फिल्म थी। यह फिल्म सेसिल बी डेमिल्ले की ‘द साइन ऑ़फ द क्रॉस’ (1932) से प्रेरित थी। उनकी एपिक बनाने के लिए महबूब खान को भी ‘डेमिल्ले ऑफ इंडियन सिनेमा कहा जाने लगा। महबूब खान ने बाद में देवदास पर आधारित ‘मनमोहन’ (1936), ‘जागीरदार’ (1937) व ‘एक ही रास्ता’ (1939) का निर्देशन किया। 
इस तरह वह ऐसा सिनेमा बनाने के लिए विख्यात हो गये जो सामाजिक मान्यताओं और उनके ‘मिट्टी की संतान’ दर्शन को प्रतिविम्बित करता था, साथ ही कमर्शियली यह सिनेमा सफल भी होता था। महबूब खान ने अपने प्रारम्भिक करियर में जो फिल्में बनायीं उनमे ‘औरत’ (1940) सबसे महत्वपूर्ण थी, जिसमें एक किसान का अपनी भूमि से प्रेम प्रदर्शित किया गया था। इस फिल्म में सरदार अख्तर प्रमुख भूमिका में थीं, जिनसे महबूब खान ने दो वर्ष बाद विवाह कर लिया और एक बेटे साजिद खान (जिनका हाल ही में निधन हुआ है) को गोद लिया। 1942 में ही उन्होंने महबूब प्रोडक्शंस की स्थापना हसिया-हथौड़ी के ‘लोगो’ के साथ की, इसलिए उनकी फिल्म ‘रोटी’ (1942) ने मज़दूरों व साहूकारों के बीच ग़ैर-बराबरी पर फोकस किया। इसके 12 वर्ष बाद यानी 1954 में उन्होंने अपने विख्यात महबूब स्टूडियो की स्थापना की। 
महबूब खान को पंडित जवाहरलाल नेहरु और उनके समाजवाद से बेहद लगाव था। यह प्रेम किस हद तक था? इसका अंदाज़ा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि जब 27 मई 1964 को उन्होंने रेडियो पर नेहरु के निधन की खबर सुनी तो उन्हें भयंकर दिल का दौरा पड़ा और इससे अगले दिन यानी 28 मई 1964 को उनकी भी आंखें हमेशा के लिए बंद हो गईं। उन्हें मरीन लाइंस, मुंबई के बड़ा कब्रिस्तान में दफन किया गया।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर