राजनीतिक प्रबंधों में उस्ताद साबित हुई भाजपा

भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर राजनीतिक प्रबंधन की उस्ताद साबित हुई है। उसके विपरीत विपक्ष, ़खासकर कांग्रेस पार्टी राजनीतिक बदइंतज़ामी में फंसी हुई है। मोदी का प्रबंधन दो-स्तरीय लग रहा है। ‘पृष्ठभूमि’ और ‘अग्रभूमि’। तरह-तरह की लोकलुभावन योजनाएं और राम मंदिर के इर्द-गिर्द बुना गया विमर्श और चलाई गई हवा मुख्य तौर पर एक असरदार बैकग्राउंड संगीत का काम करने वाली है। पृष्ठभूमि में यह धुआंधार संगीत चलेगा और अग्रभूमि में नेताओं और समुदायों का ज़ोरदार संयोजन-नियोजन अपनी भूमिका निभाएगा और विपक्ष एक बार फिर उस गलती की सज़ा भोगेगा, जो उसने अपनी एकता करने में लापरवाही दिखा कर किया है। 
मोदी और उनके सलाहकार संभवत: इस मान्यता पर पहुंच गये हैं कि चुनाव जीतने के लिए उन्हें जितने तरह का रणनीतिक प्रबंधन उन्हें करना था, वह सफलतापूर्वक किया जा चुका है या जल्दी ही कामयाबी से कर लिया जाएगा। जितनी कमज़ोर कड़ियां थीं, उनकी मुरम्मत कर ली गई है। भाजपा और मोदी का बढ़ता प्रभाव कांग्रेस को लगातार कमज़ोर कर रहा है। स्थिति यह है कि जो नेता अभी कुछ दिन पहले ही कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे, अब उनके भी भाजपा में जाने की चर्चा होने लगी है। ऐसे नेता दो तरह के हैं। एक वे जो इन चर्चाओं का खंडन नहीं कर रहे हैं और चुप बैठे हैं। इनकी चुप्पी रणनीतिक किस्म की है। इनमें प्रमुख नाम कमलनाथ का है, जिन्हें कांग्रेस ने मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया था और जो अक्तूबर-नवम्बर में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री के रूप में पेश किये जा रहे थे। आज स्थिति यह है कि या तो वे अपने बेटे के साथ भाजपा में चले जाएंगे या केवल उनका बेटा जाएगा। दूसरे नेता वे हैं, जो खुल कर कांग्रेस छोड़ने की पेशबंदी कर रहे हैं। इनमें प्रमुख नाम आचार्य प्रमोद कृष्णम का है। वे राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में न जाने के कांग्रेसी फैसले के बाद खुल कर मोदी की प्रशंसा करने लगे हैं। एक तरह से उन्होंने इस तरह की बातें करके ख़ुद को कांग्रेस से निकलवा लिया है। 
कमलनाथ और प्रमोद कृष्णम जैसी स्थिति कुछ और कांग्रेसी नेताओं की भी हो सकती है। ऐसे भी कुछ नेता हैं, जो स्वयं विपक्ष में रहते हैं लेकिन अपने बेटे या परिवार के कुछ लोगों को भाजपा में रखते हैं। नितीश कुमार के दायें हाथ समझे जाने वाले के.सी. त्यागी बहुचर्चित पालाबदल से पहले टीवी पर भाजपा को आड़े हाथों लिया करते थे। वे जे.पी. लोहिया और समाजवाद की दुहाई देकर बड़े आकर्षक ढंग से अपनी बातें कहते थे लेकिन उन्होंने अपने बेटे अमरीश त्यागी को पहले से ही भाजपा में ‘पार्क’ कर रखा था। कांग्रेस और विपक्ष के नेताओं के भाजपा के प्रति झुकने का यह सिलसिला अगले कुछ दिनों में और बढ़ सकता है।  
एक ज़माना था, जब भाजपा दूसरी पार्टियों से आए नेताओं के लिए अच्छी जगह नहीं मानी जाती थी। अब स्थिति बदल चुकी है। अपनी विस्तार करने की प्रक्रिया में भाजपा ने अपने दरवाज़े किसी भी पार्टी के नेताओं के लिए खोल दिये हैं। कांग्रेस से आये नेताओं की तो भाजपा में बहुतायत होती जा रही है। उसकी उत्तर-पूर्व की राजनीति तो मोटे तौर पर उन्हीं पर टिकी हुई है। असम, त्रिपुरा और मणिपुर के तीनों मुख्यमंत्रियों की ज्यादातर ज़िंदगी कांग्रेस में ही गुज़री है। रणनीतिक रूप से भाजपा में बहुत लचीलापन है। इसका लाभ उठा कर उसने कुछ नेताओं को विपक्ष से छीन लिया है (जैसे नितीश कुमार और जयंत चौधरी), कुछ को विपक्ष में जाने से रोक दिया है (जैसे मायावती और चंद्रबाबू नायडू), कुछ पार्टियां तो तंग कर रही थीं, उन्हें तोड़ दिया गया है (जैसे शिव सेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस)। पहले कभी सोचा भी नहीं गया था कि ‘भारत रत्न’ का सर्वोच्च पुरस्कार अल्पकालीन और दीर्घकालीन राजनीति के दुहैरे लक्ष्यों की पूर्ति का औज़ार भी बन सकता है। कर्पूरी ठाकुर, चरण सिंह और अडवाणी को यह पुरस्कार देकर हर बार फौरी लक्ष्यों को तो सिद्ध किया ही गया है, कांग्रेस की राजनीति को आहत करने में इन शिखर-पुरुषों की भूमिका भी रेखांकित हुई। यह देख कर भी ताज्जुब होता है कि जिन्हें ‘भारत रत्न’ दिया गया है, अतीत में भाजपा उनके खिलाफ संघर्ष करती रही है। उनके साथ संघ और पार्टी के रिश्ते तल़्ख वाले थे। मसलन, कर्पूरी ठाकुर की सरकार जनसंघ ने ही गिरवाई थी। चरण सिंह ने जनता पार्टी में दुहैरी सदस्यता का सवाल उठा कर जनसंघियों को सांसत में डाल दिया था।  
जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ, पाँच साल पहले 2019 के चुनाव की पूर्व संध्या पर इस सरकार ने भी अपना खज़ाना खोला था। उस समय मोदी तीन विधासभाओं के चुनाव हार चुके थे। कांग्रेस मान रही थी कि वह मोदी को हरा सकती है। इस बार खेल पलट चुका है। सहयोगी दल कांग्रेस को छोड़ने के बारे में सोच रहे हैं। ऐसे में अगले पांच साल के लिए कमर क्यों न कसी जाए। आखिर वे भी तो इसी सरकार के हाथों में रहने वाले हैं। मोदी जानते हैं कि लोकलुभावन योजनाएं या लाभार्थियों का संसार अपने आप वोटों में नहीं बदलता। उसके तीन स्तरों पर काम करना होता है। राज्यों के स्तर पर जहां अपनी स्थिति लगातार मज़बूत करना ज़रूरी होता है, नेताओं के स्तर पर जो विभिन्न समुदायों की नुमाइंदगी करते हैं और समुदायों के स्तर पर जिन्हें लगातार पार्टी के साथ जोड़ने का अभियान चलाना पड़ता है। 
2019 में मोदी इन तीनों स्तरों पर पर्याप्त काम नहीं कर पाये थे। तीन चुनाव हारने के बाद राज्यों में उनकी स्थिति भरोसेमंद नहीं थी। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठजोड़ बहुत बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा था। करीब छह महीने पहले तकरीबन भाजपा इसी तरह की स्थिति से दो-चार हो रही थी। बिहार, महाराष्ट्र और कर्नाटक उसकी कमज़ोर कड़ियां थीं। लेकिन जैसे ही उन्होंने तीन राज्यों के चुनाव जीते, ऐसा लगा कि उनकी सारी समस्याएं हल हो गई हों। इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा को यह उम्मीद भी है कि जो समुदाय उसे पहले वोट नहीं डालते थे, उनका एक हिस्सा भी उसे समर्थन दे सकता है। इनमें उत्तर प्रदेश के जाटव समुदाय के वोटरों का उल्लेख करना ज़रूरी है। पिछले विधानसभा चुनाव में इन वोटरों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कम होते हुए जाट वोटों की एक सीमा तक भरपायी की थी। इस बार भाजपा की कोशिश होगी कि पूरे प्रदेश के स्तर पर जाटव वोट उसकी तरफ आएं। मायावती ने उसका यह काम आसान भी कर दिया है। अलग चुनाव लड़ कर और विपक्ष के गठबंधन से दूर रह कर उन्होंने अपने आधार-मतदाताओं के लिए वोटिंग प्राथमिकताओं पर फिर से विचार करने की स्थितियां पैदा कर दी हैं। ‘ए.बी.पी.’ और ‘आजतक’ जैसे चैनलों पर प्रसारित हुए सर्वेक्षणों ने दिखाया है कि मायावती के हाथ लोकसभा चुनाव में कुछ नहीं लगने वाला है। ज़ाहिर है कि इसका विशुद्ध लाभ भाजपा के खाते में ही जाएगा।  

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।